Friday, December 31, 2010

हैप्पी न्यू इयर


हो उदय नव सूर्य नभ पर

द्वोष के तम का हरण हो

हे सखे नव वर्ष में

कुछ इस तरह से आचारण हो

भावनाएं नेह की हों

धर्म की न देह की हों

आदमियत जिससे हो आहत

वर्जना उस चाह की हो

प्रेम हो सबमें परस्पर

प्रेममय वातावरण हो

हे सखे नव वर्ष में.........

शिखर पर पहुंचो प्रगति के

बन के पर्याय उन्नति के

तोड़कर सब व्यथ बंधन

पुष्प बन जाओ प्रकृति

संत की भांति सखा तुम

सज्जनों में स्मरण हो

हे सखे नव वर्ष में

कुछ इस तरह से आचरण हो


बाहर से दरवाजा बाहर से ही बंद होता है

इसमें समझने और जांच जैसी कोई बात कम से कम मुझे तो समझ नहीं आती। जिस दिन आरुषि की हत्या हुई नूपुर तलवार (आरुषि की मां) ने नौकरानी की आवाज पर दरवाजा खोला, यानि दरवाजा अंदर से बंद था। हेमराज की लाश दूसरे दिन छत पर मिली, छत पर जाने वाले सीढिय़ों पर लगे दरवाजे में अंदर से ताला बंद था। यनि दोनों दरवाजे अंदर से बंद थे। यदि कोई व्यक्ति आरुषि की हत्या करने के बाद छत पर हेमराज की हत्या करता तो छत पर जाने वाला दरवाजा छत से बंद होता न कि अंदर से। और यदि कोई छत का दरवाजा अंदर से बंद करके मुख्य दरवाजे से बाहर निकला होता तो दरवाज बाहर से बंद होता न कि अंदर से। तलवार परिवार के घर की न तो कोई खिड़की टूटी न दीवार फिर भी कातिल फरार...असंभव। यानि कातिल घर में था और घर में है।

सीबीआई कह रही है कि मोबाइल और हत्या में इस्तेमला किया गया हथियार नेपाल में हो सकता है, पर जिस कैमरे की हत्या के समय चर्चा की जा रही थी वह सिरे से गायब है। इस बात को भी नजर अंदाज किया जा रहा है कि छत पर जाने वाली सीढ़ी के दरवाजे में लगे ताले की चाबी तुरंत हाजिर क्यों नहीं हुई, जबकि छत का इस्तेमाल रोज हो रहा है।

और सबसे अहम बात कि जांच अधिकार बार-बार क्यों बदले गए। सबसे पहले यदि इस बात की जांच हो जाए तो शायद कुछ निकल सकता है। क्योंकि सब इंस्पेक्टर पीआर नवनेरिया, सब इंस्पेक्टर संतराम, इंस्पेक्टर अनिल समानिया सब नाकारा तो नहीं हो सकते जो आखिर में जांच सब इंस्पेक्टर जगदीश सिंह को सौंपी गई। बार-बार जांच अधिकारी बदलने से जांच ही प्रभावित नहीं हुई बल्कि सबूतों का साफ करने का भी पर्याप्त मौका मिला। इसके पीछे कौन था, किसके कहने पर अधिकारी बदले गए, इनको बदलने से किसको लाभ था...यदि इसका खुलासा हो जाए तो शायद आरुषि के कातिल तक पहुंचने का सुराग भी मिल सकता है।

Wednesday, December 29, 2010

किसानों की उपज नियंत्रण मुक्त क्यों नहीं

पैट्रोलियम कंपनियों को लगातार हो रहे घाटे से बचाने के लिए सरकार ने भारी महंगाई के बीच पैट्रोल के दामों को नियंत्रण मुक्त कर दिया और पैट्रोल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से तय करने का अधिकार कंपनियों को सौंप दिया। डीजल के दामों को भी नियंत्रण मुक्त करने की सिफारिश योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया कर रहे हैं।इस देश में किसान भी सदियों से घाटे की खेती कर रहा है। अब तो हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि रोजाना किसानों द्वारा आत्महत्याओं की खबरें आ रही हैं। सरकार तमाम प्रयासों के बावजूद खेती को घाटे से उबार नहीं सकी है, क्या पैट्रोलियम कंपनियों की तरह वह किसानों को भी अपनी उपज का मूल्य तय करने का अधिकार देगी।

Sunday, December 12, 2010

कुछ तो चाहिए किचकिच के लिए

ऐसा लगता है राजनीति किचकिच की पूरक हो गई है, वक्त वे-वक्त कोई न कोई नेता ऐसा बेसिर-पैर का बयान दे देते हैं कि सियासत में तूफान उठ खड़ा होता है। 2जी स्पेक्ट्रम पर घमासान चल रहा है, सारा देश इस भारी-भरकम घोटाले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था का इंतजार कर रहा है, ऐसे वक्त में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान कांगे्रस महासचिव दिग्विजय को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने दो साल पहले की घटना एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत पर बेसिर-पैर का जुबानी धमाका कर दिया। वे जो बोल रहे हैं वह कितना सच और झूठ है यह दीगर बात है, लेकिन दो साल बाद इसकी कोई जरूरत नहीं थी। अगर बहुत हरिश्चंद्र बनने का शौक था तो एआर अंतुले के साथ कंधा मिला लेते। ऐसा लगता है एक दिन बाद संसद सत्र स्थगित होने वाला है, इसलिए कोई न कोई किचकिच चलती रहे, इसके लिए दिग्गी राजा ने यह फिजूल बयान दिया। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि इससे आतंकी हमले के गुनहगार आमिर कसाब को लाभ होगा, मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि कसाब देश के खिलाफ युद्ध छेडऩे का दोषी है, जिसमें करकरे साहब की मौत एक पार्ट है। लेकिन विपक्ष को भी कुछ न कुछ तो चाहिए चिल्लाने के लिए सो वह भी पिल पड़ी।दिग्विजय सिंह ने जितना फालतू बयान दिया है, विपक्ष का बखेड़ा भी उतना ही फिजूल है। आखिर क्या कहा दिग्विजय ने, करकरे जब मालेगांव हत्याकांड की जांच कर रहे थे उस दौरान उन्हें हिन्दूवादी संगठनों से धमकी मिल रही थी। दूसरी बात वे इस बात से परेशान थे कि भाजपा नेता उनकी निष्ठा पर सवाल उठा रहे हैं। करकरे को धमकी मिल रही थी यह तो महज दिग्गी सिगूफा लगता है लेकिन जरा गड़े मुर्दे उखाड़ें तो करकरे पर भाजपा का संदेह खूब चर्चा में रहा। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी पर भाजपा और शिवसेना ने करकरे को खूब कोसा था, यहां तक कहा गया था कि एटीएस प्रज्ञा ठाकुर को जेल में प्रताडि़त कर रही है। भाजपा तो वाकायदा आंदोलन चलाने के मूड में थी। फिर अब दिग्गी के बयान से भाजपा के पेट में दर्द क्यों हो रहा है। प्रज्ञा अब भी जेल में हैं और भाजपा उन्हें बचाने के लिए, निर्दोष साबित करने के लिए क्यों कोई प्रयास नहीं कर रही है।इसलिए लगता है कि किसी को देश से मतलब नहीं है, किसके नंबर कैसे बढ़ सकते हैं, वे कैसे चर्चा में रह सकते हैं इसी की जुगत में जुबान चलाते रहते हैं। दिग्विजय सिंह दो साल पहले भी कांग्रेस में थे और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, यदि करकरे को धमकी मिल रही थी तो स्वयं करकरे भी इसकी शिकायत कर सकते थे और दिग्विजय सिंह भी इस बात पर सवाल उठा सकते थे, दो साल बाद इन बातों की कोई तुक नहीं है। और भाजपा करकरे साहब के प्रति आज जितनी कृतज्ञ है, उतना ही भरोसा तब करना चाहिए था जब वे मालेगांव कांड की जांच कर रहे थे। कृपया होश में आएं और इलाहाबाद हाईकोर्ट की इन टिप्पणियों पर गौर फरमाएं। जनता बेवकूफ नहीं है, सिर्फ अवमानना के डर से चुप रहती है। और दूसरी जनता दौड़ा-दौड़ा कर मारेगी।

Wednesday, December 8, 2010

चोर तंत्र

भ्रष्टाचार के आंकड़ों पर गौर करें तो कहना लाजमी होगा कि हमारी व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं बल्कि चोर तांत्रिक है। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अच्छी न लगे मैं उनसे क्षमा चाहता हूं लेकिन मेरा आज का अनुभव और आज ही उपलब्ध आंकड़े मेरे आंकलन की पुष्टि करते नजर आ रहे हैं।
मुझे आज एक सज्जन मिले, उन्होंने अपने बच्चे की पोस्ट ऑफिस में नौकरी लगने की खुश खबरी सुनाई साथ में बच्चे की ज्वाइनिंग रिपोर्ट में जमा करने के लिए लगने वाले जाति प्रमाण पत्र पर उनको हुई परेशानी की व्यथा-कथा। तीन दिन तक वे केंद्र द्वारा दिए गए प्रोफार्मा पर एसडीएम के दस्तखत लेने के लिए चक्कर लगाते रहे, चौथे दिन एक वकील साहब की मदद से उनका काम हुआ। वकील साहब ने उन्हें 50 रुपए बाबू को देने को कहा। उनके पास 100 का नोट था, जो उन्होंने वकील साहब को दिया, वकील साहब कुछ ज्यादा ही करीबी व्यक्ति थे लिहाजा उन्होंने 100 रुपए वापस कर दिए और अपनी जेब से 50 रुपए संबंधित बाबू को दे दिए। इसके बाद उन्होंने कहा कि यार 100 रुपए तो चार लोग मिलकर सामौचे-कचौरी में खर्च कर देते हैं फिर यह तो मेरे लिए बड़ा काम था, इसलिए देने में कोई हर्ज नहीं।
एक नौजवान के भविष्य को नजरअंदाज करने वाला अधिकारी किस हद तक कमीना है यह उसने बता दिया, इस स्थिति में कोई भी पिता मजबूर हो जाएगा। लेकिन समौसे-कचौरी के रूप में उनकी जो स्वीकारोक्ति कचोटने वाली थी। बहरहाल गरीब और आम आदमी इसतरह से मजबूर होकर सालाना करीब 900 करोड़ रुपए रिश्वत में खर्च कर देता है। जबकि उक्त अफसर की तरह कई भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और घपलेबाज व्यापारियों के 462 अरब विदेशी बैंकों में जमा हैं। पिछले तीन साल में केवल 2105 भ्रष्टाचारियों को पकड़ा गया है, सजा कितनों को हुई सरकार के पास इसके कोई आंकड़े नहीं है। फिर यह आंकड़े वे हैं जो पकड़े गए हैं। लोकसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 2008 में भ्रष्टाचार के 744, 2009 में 795 मामले तथा 31 अक्टूबर 2010 तक 566 मामले दर्ज किए गए। जिसमें इन छोटे अफसर जैसे अनेकों मामले निश्चित रूप से शामिल नहीं हैं।
जानकारों की राय है कि देश में भ्रष्टाचार को जड़ से तभी उखाड़ा जा सकता है जब ऐसा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। जब नेता और दल ही भ्रष्ट हों तो आप व्यवस्था के अचानक भ्रष्टाचार मुक्त हो जाने की उम्मीद नहीं कर सकते। देश में भ्रष्टाचार ऊपरी स्तर से नीचे के स्तर की ओर फैलता है। शीर्ष नेतृत्व, चाहे वह राजनीतिक हो या प्रशासनिक, अगर भ्रष्टाचार करता है तो निचले स्तर पर भ्रष्टाचार होना स्वाभाविक है। उपलब्ध आंकड़ों और परिस्थतियां हमें यह सोचने पर विवश करती हैं कि हम लोकतंत्र में नहीं बल्कि चोर तंत्र में जी रहे हैं।

Sunday, December 5, 2010

बाबरी बरसी: आइना देखकर भी शर्म नहीं आती

कुछ लोग होते हैं जिन्हें उनकी हैसियत सरेआम भी बता दी जाए तो बेशमरी से उसे अपनी खूबी साबित करने में लग जाते हैं। हमारे देश के नेता भी कुछ ऐसे ही हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंड पीठ का फैसला आने के बाद भी कुछ लोगों को चैन नहीं है, वे मामले को आगे ले जाना चाहता है। विज्ञापन जगत ने गा-गा इनको समझा दिया, सबका ठंडा एक, लेकिन सदियों से पूर्वजों का मंत्र सबका मालिक एक इनको समझ में नहीं आता। ये शांति नहीं शमसान की आग ठंडी न हो इसकी व्यवस्था में लगे रहते हैं। बहरहाल हाईकोर्ट के फैसले के वक्त जनता ने इन्हें आईना दिखा दिया है, लेकिन खुद को खुदा और राम का अलंबरदार बनने की ख्वाहिश जोर मार रही है, जैसे खिसयानी बिल्ली...

कुछ लोगों को लगता है कि फैसले की तारीख को जनता डर के मारे घरों में बैठी रही। लेकिन मुझे लगता है कि ये उनकी नासमझी है। पिछले 18 साल में सरयू में बहुत पानी बह चुका है, लोग शांति के साथ विकास की परिक्रमा पूरी करने की ओर अग्रसर हैं। आखिर क्या मिला उन हिन्दुओं को जो 6 दिसंबर 1992 को एक नया इतिहास लिखने की ठाने थे और उन मुसलमानों को जिन्होंने ईंट का जबाव पत्थर देने की कोशिश की थी। क्या हिन्दुओं ने जिस उद्देश्य को लेकर इतिहास बदलने का प्रयास किया था उसमें वे सफल हुए? या वे मुसलमान जिन्होंने सिर्फ खोखले स्वाभिमान के लिए हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म दिया था जिसमें बाद में सारा देश क्या हिन्दू क्या मुसलमान उजड़े, मरे, बर्बाद हो गये आज क्या वह सम्मान हासिल कर सके? निश्चित तौर पर कोई कुछ हासिल नहीं कर सका, उल्टे दोनों की नादानियों का नतीजा यह है कि पिछले 18 वर्षों में दोनों समुदायों के बीच की दरार इतनी चौड़ी हो गई जितनी फूट डालने के बाद अंग्रेज भी नहीं कर सके थे। सफल हुए तो केवल वे जिन्होंने इस आग में दूर से हाथ सेंके और वह हर व्यक्ति असफल हुआ जो इस आग में कूदा चाहे नेता हो या आम आदमी। भरोसा नहीं आता तो नजर घुमाईये और देखिए आडवानी जी की तरफ और फिर कल्याण सिंह, उमा भारती और ऋतंभरा की तरफ। एक व्यक्ति लाखों अपराध करने के बाद भी महारथी साबित हो रहा है और बाकी सब नेपथ्य में हैं।

जनता ने इस सच को समझा है, जाना है, इसी समझ का उदाहरण थी फैसले की वह तारीख जब अयोध्या पर हाईकोर्ट का ऐतिहासक फैसला आने के बाद शांति के समुद्र में विवाद की एक लहर नहीं उठी। हमने पिछले 18 साल में उन्हें उस स्थिति में ला खड़ा किया जहां से वे बिना वैशाखी के नहीं चल सकते। अब उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि यह समय शौर्य दिवस या काला दिवस मनाने का नहीं है बल्कि आत्मलोचन का समय है। मंदिर की नींव पर सत्ता की इमारत बार-बार खड़ी नहीं होगी और स्वार्थ के लिए खुदा के खुदमुख्तार बनकर जनता की नजरों के नूर नहीं हो सकते।

Wednesday, December 1, 2010

चार मुर्दे बैठकर चौपाल पर, जिंदगी का अर्थ समझाने लगे

दम साधे पूरे दो महीने से घोटालों का नाटक देखा। सोच रहा था कहीं से कुछ निकलेगा तब तसल्ली के साथ कुछ बात करेंगे। लेकिन ढाक के तीन पांत। अशोक चव्हाण ने इस्तीफा दे दिया, ए राजा ने इस्तीफा दे दिया, जितना कमाना था कमा चुके हैं, अब क्या फर्क पड़ता है। अदालत चीख रही है-व्यवस्था सड़ चुकी है, सिर चकरा रहा है, लेकिन अफसोस कि मुंह पर रुमाल रखकर निकल लेने के अलावा यहां न तो कोई तैयार है न कोई चारा।
दरअसल कुछ निकलने की उम्मीद करना मूर्खता है और अदालत का व्यवस्था को कोसना बेमानी। क्योंकि ऐसी उम्मीदें तभी फलीभूत हो सकती हैं जब दूसरा पक्ष ईमानदार हो। यहां तो हमाम में सब नंगे हैं। गले तक गंदगी के दलदल में डूबकर दूसरों को सुचिता का पाठ पढ़ा रहे हैं। बीएस येदियुरप्पा अरबों की जमीन अपने बाल-बच्चों में बांट दें तो दाग अच्छे हैं और राजा अरबों रुपए डकार जाएं तो व्यवस्था पर बदनुमा दाग। चव्हाण और राजा को हटाकर कांग्रेसी खुद को हरिश्चंद्र की औलद समझने लगें और बीयर कंपनियों को देने के लिए गेहूं सड़ा दें तो अधिकारियों की लापरवाही। क्या तमाशा है, दूसरे की नब्ज पकड़ में आ जाए तो मुर्दे जिंदगी का सबक सिखलाने लगते हैं।
और फिर इन्हीं को क्यों कोसें। ईमानदार है कौन। जन्म प्रमाण पत्र से मौत का सर्टिफिकेट बनवाने तक का ऐसा कौन सा काम है जिसके लिए बाबू लेने को तैयार न हो और जनता देने को तैयार न हो। हमें आराम मिल जाए इसके लिए कुछ ले-दे कर हम दूसरों का पत्ता काटने से कहीं नहीं चूकते। दस-बीस रुपए देकर शॉर्टकट से निकलने के हम आदि हो चुके हैं, और बहाना बनाते हैं कि कौन झमेले में पड़े। भ्रष्टाचार को लानत भेजते-भेजते हमारा दम नहीं फूलता और चार-छह लाख खर्च करके मनचाही नौकरी पाकर हम सीना फुलाकर घूमते हैं। हम ईमानदार नहीं है दोगले हैं खुद के प्रति, समाज के प्रति और व्यवस्था के प्रति।
इसका मतलब यह नहीं कि सब ऐसे हैं, कुछ वाकई ईमानदार भी हैं, लेकिन बस कुछ, अधिकांश लोग ढींगे मारते हैं, इन्हें या तो मौका नहीं मिला या फिर ये पकड़े नहीं गए। अन्यथा कोई कारण नहीं कि हर आदमी ईमानदारी का दम भरे और पूरा देश भ्रष्टाचार के दलदल में डूबता चला जाए, देश की सर्वोच्च अदालत को कहना पड़े कि व्यवस्था में गंगा से ज्यादा कचरा आ चुका है।

Tuesday, October 26, 2010

अरुंधति का अंधा अलगाव पे्रम

अरुंधति रॉय की कश्मीर के विषय में राय उनकी सफलता के अजीरण का द्योतक है। उनकी मोहब्बत नक्सलियों के लिए है, अलगाववादियों के लिए है। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं का इससे बेहतर उदाहरण और कोई नहीं हो सकता।कश्मीर के विषय में बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है। देश का हर आदमी महाराजा हरीसिंह के जमाने से आज तक हुए घटनाक्रमों से परिचित है। नक्सलियों के विषय में कहा जा सकता है कि जायज मांग को भटके हुए लोगों ने आतंक में परिवर्तित कर दिया। नक्सलवाद के जन्मदाता भी अपने भटके हुए आंदोलन से दुखी थे और इसी दुख में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। लेकिन कश्मीर के विषय में यह तर्क नहीं दिया जा सकता। यहां का आतंक, हिंसा भटकी नहीं है, यह पैदा ही इसी स्वरूप में हुई, नाजायज।अरुंधति का कहना है कि उन्होंने वही कहा जो कश्मीरी वर्षों से कहते आ रहे हैं, मुझे नहीं पता कि उन्होंने कौन से कश्मीरियों की आवाज को शब्द दिये हैं, क्योंकि कश्मीर में जितना कश्मीरी पंडित सताए गए हैं उतना दुख कम से कम सैयद अली शाह गिलानी की गिरोह को तो कभी नहीं झेलने पड़े।अरुंधति का यह रंज जायज है कि इस देश में सच कहने वाले जेल में डाले जाते हैं और घोटाले, घपले बाजा, हत्या और दंगों के आरोपी खुलेआम घूमते हैं लेकिन कश्मीर भारत का है या नहीं, कश्मीर भारत का है यह कितना सच है और कितना मिथक, यह भारतीय प्रशासनिक सेवा में अव्वल आए जम्मू के शाह फैजल नामक नौजवान से पूछिए, जम्मू कश्मीर में सरकार चुनने वाले मतदाताओं से पूछिए, लद्दाख में फटे बादलों के पीडि़तों से पूछिए, कारगिल में शहीद हो गए जवानों के परिवार वालों से पूछिए और सांसें जमा देने वाली सर्दी के बीच बर्फ में घुटनों तक डूबे सीमा की सुरक्षा में तैनात जवानों से पूछिए।अरुंधति राय को कश्मीर की आजादी की चिंता है, पाकिस्तान भी यही चाहता है, चीन भी यही चाहता है पर कहता नहीं है और पाकिस्तान में पल रहे आतंक के अजगर भी यही चाहते हैं। क्या फर्क रह गया अरुंधति, आतंकवादियों और देश को नष्ट करने पर तुले मुल्कों की सोच में। अरुंधति की मति मारी गई है इसलिए उन्हें लगता है कि भारत ने कश्मीर पर कब्जा कर रखा है, कबाइलियों के काल से इस देश के जवानों ने धरती के स्वर्ग को बचाया था इसलिए इतने झंझावात झेलने के बाद भी स्वर्ग है किंतु स्वर्ग का जो हिस्सा काली मानसिकता वाले पाकिस्तान के कब्जे में है वह नरक से बद्तर है। अरुंधति जी वहां जाएं और फिर विश्लेषण करें कि कब्जा कहां है और कलेजे के टुकड़े की तरह कौन पल रहा है। फिर शायद यह बताने की जरूरत नहीं रहेगी कश्मीर अभी कैसा है और आजादी मिलते ही उसकी सूरत कैसी हो जाएगी।

Sunday, October 17, 2010

सामंती इतिहास का अक्स वंशवादी राजनीति

राजनीति और समाजसेवा यह दो ही ऐसे आधार हैं जिससे खुलेतौर आम आदमी के हित की आवाज उठाई जा सकती है। चूँकि समाजसेवा कई स्थानों पर व्यक्तिगत भी होती है और इसमें कोई खास लोकप्रियता अथवा लाभ के अवसर कम होते हैं, हमेशा सरकार के आगे गिड़गिड़ाना जैसी जिल्लत भी होती है। इसके विपरीत राजनीति एक सशक्त माध्यम है, अपनी आवाज उठाने का, जनता को सीधे सरकार से जोडऩे का। इसलिए कोई भी व्यक्ति वजाये किसी समाजसेवी संस्था से जुडऩे से बेहतर समझता है राजनीति में जाना। कालांतर में बहुत से परिवार राजनीति से जुड़े थे। इसके अलावा कुछ गरम दल के क्रांतिकारी भी थे उनका भी पूरा का पूरा परिवार स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहा था।महात्मा गांधी का परिवार इसका उदाहरण है। गांधी जी ने अपने पूरे परिवार को दक्षिण अफ्रीका से बुलवाया और उन्हें सत्याग्रह और दूसरे आंदोलनों में शामिल कराया। एक तरह से वह हिस्सेदारी संघर्षों में साझेदारी हुआ करती थी। इसी तरह नेहरू परिवार, जिसमें मोतीलाल नेहरू, स्वरूप रानी नेहरू ,जवाहर लाल नेहरू, कमला नेहरू और इंदिरा नेहरू गांधी एक साथ आंदोलनों में अपनी-अपनी भूमिका निभाती थीं। सुभाषचंद्र बोस, उनके दोनों भाई, उनके भतीजे, कृपलानी और उनकी पत्नी सीता कृपलानी, जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभावती, राममनोहर लोहिया और उनके पिता हीरालाल लोहिया, भगत सिंह और उनके चाचा सरदार अजीत सिंह ये सब वंशवाद के उदाहरण हैं। लेकिन तब यह पूरा कुनबा देश और जनसेवा के लिए समर्पित था। स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे परिवार का संघर्ष एक मिसाल कायम कर रहा था, ताकि अन्य देशवासी भी इसे देखें और स्वतंत्रता आंदोलन का विस्तार जितना हो सके उतना हो। यह समय था जब पूरा का पूरा परिवार राजनीति में था किंतु वर्तमान परिवेश में इन्हीं पवित्र विचारों और उद्देश्य की आढ़ में राजनीति ही वंशों में सिमटती जा रही है। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाला पूरा नेहरू गांधी खानदान आज इतना बड़ा हो गया है कि कांग्रेसी राजनीति उसी के इर्द-गिर्द घूमती है। राजनीति का क ख ग सीखने से पहले ही उसके आने वाली पीढ़ी सुर्खियों में आ जाती है। जैसे इस वक्त राहुल गांधी सुर्खियों में हैं। वे खुद उसको आगे बढ़ा रहे हैं फिर भी कहते हैं कि वंशवाद नहीं चलेगा। बहरहाल यह तो महज एक बड़ा उदाहरण है। असल में पूरे देश की राजनीति वंश आधारित हो गई है। सामंतवाद की मुखालिफत करने वाले यह जनप्रतिनिधि और इनके समर्थक आधुनिक सामंतवाद के धुर समर्थक बनकर उभरे हैं। इन्हें अपनी पार्टी समर्थकों में वर्षों से दरियां बिछा रहा और जिंदाबाद मुर्दाबाद का नारा लगा रहा कोई छोटा समर्थक नहीं दिखता जैसा कि कभी हुआ करता था, आज यदि सुनील दत्त जी का स्वर्गवास होता है तो प्रिया दत्त, स्वर्गीय राजेश पायलट का स्थान केवल सचिन पायलट, माधवराव सिंधिया जी का स्थान ज्योतिदारित्य सिंधिया ही भर सकते हैं। घर के मराठी शेर बाला साहब ठाकरे की विरासत को उनका ही कोई परिजन आगे बढ़ायेगा, पहले उद्धव और अब आदित्य ठाकरे तो मराठा छत्रप शरद पवार की पुत्री ही इसके योग्य हैं, ऐसे तमाम उदाहरणों से भारतीय राजनीति भरी पड़ी है। इसमें इन युवा नेताओं की महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं है, यह परिणाम है राजनीति की उस विधा का जहां समाजसेवा गौड़ और सीटों की संख्या महत्वपूर्ण हो गई है। यह परिणाम है समर्थकों के उस समर्पित स्वार्थ का जहां कोई समाजसेवा नहीं करना चाहता बल्कि किसी बड़े नेता के हाथ के नीचे रहकर केवल अपने काम होते रहें कि मानसिकता रखता है।वस्तुत: वंशवादी राजनीति उन परिस्थितियों में आगे बढ़ती है, जहां पर दलों की व्यवस्था और उनका आतंरिक जनतंत्र कमजोर होता है। मानी हुई बात है कि अगर कोई दल नेता के नाम पर खड़ा है, तो उस नेता का परिवार उनके व्यक्तित्व का एक निश्चित अंश माना जाता है। हमारा समाज आज भी परिवारों का समाज है। परिवार के आगे जातियां, जातियों के आगे उपजातियां, उपजातियों के आगे भाषा और उसके बाद धर्म। ये सभी हमारे संबंधों की सघनता के आधार हैं। होना यह चाहिए था कि समाज में समानता और समाजवाद की बात करने वाले लोग इसके प्रति लोगों को सजग करते, किंतु बजाये इसके खद्दरधारियों ने लोगों की इसी मानसिकता का लाभ उठाया। ऐसा नहीं है कि खालिस नेताओं का वंश ही राजनीति में प्रवेश पा रहा हो, ऐसे लोग भी हैं जिनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन इनके पास दौलत और रसूख इस कदर है कि इन्हें सघर्ष और राजनीति समझने की जरूरत ही नहीं होती। राजनीति में फिल्मी कलाकारों, उद्योगपतियों और धन्ना सेठों के प्रवेश का यही आधार है। पहले लगता था कि यह बीमारी कांग्रेस में ही है, पर अब दिखाई पड़ता है कि सभी पार्टियां वंशवादी राजनीति के दलदल में धंसती चली जा रही हैं, जो कि चिंता का विषय है। वंशवाद और जनतंत्र साथ-साथ नहीं चलते। इसलिए जहां वंशवाद बढ़ेगा, वहां जनतंत्र और विचारधारा कमजोर होगी, साथ ही, व्यक्ति के बजाय वंश सामंती इतिहास को दोहराने का आधार बन जाएगा।

Saturday, September 11, 2010

पवित्र मौके पर पाक परस्तों का पाप

गणेश चतुर्थी और ईद के सुखद संयोग को हुर्रियत के नाग इस तरह अपवित्र करेंगे किसी ने कल्पना नहीं की थी। कश्मीर में सरकार ने ईद की खुशियां मनाने के लिए कफ्र्यू हटाया था, लेकिन वहां दुआ करने के बजाए लोगों ने उपद्रव किया। नामज अदा करने के जमकर उपद्रव किया, भारत विरोधी नारे लगाए, तिरंगे को आग लगाई। सुरक्षा बलों को सख्त निर्देश थे कि लोगों को खुशी-खुशी ईद मनाने दी जाए, कुछ भी हो जाएग कहीं कफ्यू नहीं लगेगा, कहीं कोई पाबंदी नहीं होगी, कोई गाली नहीं चलाएगा। क्या मजाक है, गद्दारों से मोहब्बत किस लिए दिखाई जा रही है समझ नहीं आता।क्या केंद्र ने उन पाकिस्तान परस्तों का ठेका ले रखा है जो जिस थाली में खा रहे हैं उसी थाली में छेद कर रहे हैं। जब देशवासियों की गाढ़ी कमाई का अरबों रुपए कश्मीर पर लुटाया जा रहा है तो उन कमीनों को लात मारकर बाहर क्यों नहीं करते जो पाकिस्तनी झंडे फहरा कर देशवासियों की भावनाओं और देश का अपमान कर रहे हैं। कश्मीर अभी भी देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा संघीय व्यवस्था में भारी है, चाहे वह कर वसूली हो या फिर विभिन्न कानूनों का समान रूप से लागू करना। बावजूद इसके विकास के लिए विशेष पैकेजों की बाढ़ लगातार उफान पर रहती है। कश्मीर में ईद के मुबारक मौके पर हुर्रियत के कमीनों ने जो किया उसने स्पष्ट कर दिया कि यह इंसान और मुसलमान कुछ भी होने के लायक नहीं हैं।अब जरा पाकिस्तान को देखें, खुद को इस्लाम के अलंबरदार कहने वाले यहां के राक्षसों ने एक नाबालिग हिन्दू लडक़ी को अगवा कर जबरदस्ती मुसलमान बना दिया गया, पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया, उल्टे समझा दिया कि इसका कोई लाभ नहीं क्योंकि इस रिपोर्ट को अदालत रद्द कर देगी। फिर भी हमारी सरकार इनके साथ प्यार की पींगे बढ़ा रही है। अमन की दुआएं करने के मौके पर इंसानियत को शर्मशार करने वाले क्या मुसलमान हो सकते हैं। पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र के नाम पर एक कलंक है। इससे और इसके हिमायतियों से अमन और मोहब्बत की उम्मीद करना मूर्खता है।

Saturday, September 4, 2010

सोनिया, गडकरी और बालासाहेब ठाकरे

शर्म करो और हो सके तो चुल्लू भर पानी में डूब मरो, इससे बेहतर कोई सलाह उनके लिए मेरे पास नहीं है, जो भरपूर मौका मिलने के बाद खुद तो कुछ नहीं कर सके और सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर अनावश्यक विवाद और अपने निचले दर्ज का नेता होने का प्रमाण पेश कर रहे हैं।
1998 में सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा गया। इस समय कांग्रेस में भरपूर बिखराव था, कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं था। भाजपा के लिए मौका था कि वह विपक्षी दल की इस स्थिति का लाभ उठाती, लेकिन जनता के समर्थन और केंद्र में सरकार होने के बावजूद भाजपा लाभ नहीं उठा सकी। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सर्वमान्य व्यक्ति के नेतृत्व में भी पार्टी कोई ऐसा उदाहरण देश के सामने नहीं रख सकी, जिसे भाजपा के हक में याद किया जाए। पोखरण का विस्फोट सिर्फ बटन दवा कर अपने नाम करना चाहते थे इसलिए जनता ने नकार दिया। सहयोगियों के सामने हमेशा घुटने टेकते रहे, आपसी खींचतान चरम पर रही, प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री के बीच मतभेद नजर आए। और सबसे शर्मनाक स्थिति यह थी कि भाजपा की मातृ संस्था यानि आरएसएस और इनके वरिष्ठ नेता ही सरकार के पक्ष में नहीं थे।भाजपा ने अपनी छवि को सुदृढ़ करने के बाजाए चुनावों में सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा जमकर उछला। भाजपा को सोते-जागते विदेशी मूल के अलावा और कुछ सूझा ही नहीं। सुषमा स्वराज और उमा भारती तो सिर मुंडाने के लिए तैयार हो गई थीं। विरोध की यह बेतुकी परिपाटी भाजपा की ही देन है, और दुर्भाग्य की आज तक बदस्तूर जारी है। अब जबकि सोनिया गांधी को उनकी पार्टी ने लगातार चौथी बार अध्यक्ष चुन लिया तो भाजपा कहती है कि वे प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद भी छोड़कर दिखाएं।इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा ने सोनिया गांधी से हार मान ली है, भाजपा ने मान लिया है कि जबतक सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं कांग्रेस का बाल बांका नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा नहीं तो यह कोई तुक की बात नहीं है कि आप प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद छोड़ दें।
अब ठाकरे साहब को देखिए। इस मर्द की मर्दानगी कभी महाराष्ट्र से बाहर नहीं निकल सकी। ऐसा नहीं है कि मौका नहीं मिला। देश के करीब-करीब हर हिस्से में शिवसेना की इकाईयां हैं, लेकिन उनकी औकात वहां नहीं है, क्योंकि ठाकरे का पौरुष सिर्फ महाराष्ट्र में रोजी-रोटी कमा रहे उत्तर भारतीयों और सामना की संपादकीय में ही दिखाई देता है। बाहर निकलने का दम इनमें नहीं है, इसलिए इनके मुंह से भी यह बातें शोभा नहीं देतीं।
लगे हाथ कुछ और सूरमाओं की बात कर लें। शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा। इन तीनों को सोनिया के विदेशी मूल का होने से ऐतराज था। पार्टी छोड़ी और आज सोनिया की कृपा ही जिंदा हैं। शरद पवार का समय पूरा हो रहा है, इसलिए सोनिया की कृपा से अपनी बेटी को राजनीति में दाखिल करवा लिया और संगमा को कोई पूछ नहीं रहा, उनकी भी बेटी आज सोनिया की कृपा पर देश की सबसे छोटी सांसद बनकर खुश है।
इन सबका मतलब सोनिया का प्रशस्तिगान नहीं है। सोनिया को देश पहली ही पारी में नकार चुका था और लगातार तीन बार भाजपा को मौका दिया। लेकिन भाजपा इतनी नाकारा निकली की नकार चुकी सोनिया को देश ने पुन: अंगीकार किया। सत्ता जनता की भावनाओं की कद्र करने और विपक्ष उसकी अधिकारों की आवाज उठाने के लिए होता है। भाजपा दोनों ही मोर्चों पर फेल रही। राम मंदिर जैसे जनजन से जुड़े भावनात्मक मुद्दे पर भाजपा गठबंधन के सहयोगियों के सामने जिस मजबूती से खड़ी नहीं हो सकी, जबकि कांग्रेस ने अमेरिका के साथ परमाणु करार जैस विषय पर सरकार को दांव पर लगाकर वामपंथियों को दरकिनार कर दिया। सोनिया गांधी का इसके पीछे सरकार को भरपूर समर्थन रहा। जबकि मंदिर निर्माण जैसे पवित्र आंदोलन के पीछे भाजपा अध्यक्ष हमेशा पूर्णजनादेश की बातें करके जनता को बरगलाते रहे।
तब से अब तक इस तरह की बहुत सी बातें हैं कहने के लिए, लेकिन लब्बोलुआब यही है कि सोनिया गांधी को यहां तक पहुंचने में सोनिया गांधी की कोई योग्यता या कोई उपलब्धी नहीं है, असल बात यह है कि जनता ने जिन्हें विकल्प के रूप में चुना था वे खोखले साबित हुए और देश को सोनिया के नेतृत्व में सरकार को चुनना पड़ा। रही बात कांग्रेस की कांग्रेस में यदि कोई कद्दावर होता तो राजीव गांधी के स्वर्गवास के बाद कांग्रेस की जो दुर्गती हुई थी वह न होती। वे पहले से ही कांग्रेस को गांधी परिवार की बापौती माने बैठे हैं, इसलिए उनकी वीरता पर चर्चा करना बेकार है।

Wednesday, September 1, 2010

सियासत की शिकार श्रीराम जन्मभूमि

अयोध्या फिर सुर्खियों में है, फैसला आने वाला है...यहां भगवान राम का मंदिर होगा या बाबरी मस्जिद। सरकार ने ऐहतियातन सुरक्षा की आपात योजना तैयार कर डाली है, धारा 144 लागू कर दी गई है क्योंकि भगवान वाले और खुदा के खुदमुख्तारों ने फैसले से पहले ही ऐलान कर दिया है कि दूसरे के हक में फैसला मंजूर नहीं करेंगे। यानि सियासत चरम पर है और फैसला कुछ भी हो कुछ न कुछ फसाद या हलचल तय मानी जा रही है।
फसाद इसलिए नहीं कि किसी को खुदा या राम से मुहब्बत है बल्कि इसलिए कि दोनों ही कौमों के चंद स्वयंभू नेता इस मसले पर राजनीतिक रोटियां सेंकने को तैयार हैं। सदियों से रामजन्म भूमि इसी सियासती की श्किार है। इनके सियासी स्वार्थ सेहतमंद रहें इसलिए आम जनता को राम और अल्लाह के नाम पर लड़वाया जाता रहा। पहले यह काम अंग्रेजों ने किया और अब नेता कर रहे हैं। अंग्रेजों ने स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोडऩे के लिए सबसे पहले मस्जिद का सहारा लिया था। उपलब्ध साक्ष्यों में हेरफेर करके उन्हें प्रचारित किया और बाद में उन्हीं तथ्यों को उल्लेख इतिहासकार अपनी पुस्तकों में करते आए।
1889 के पहले लिखे गए किसी भी सरकारी या गैरसरकारी दस्तावेज और मुस्लिम इतिहासकारों के 'नामेÓ कहीं भी मस्जिद बनाने का आरोप बाबर पर नहीं लगाते, लेकिन इसके बाद जो भी दस्तावेज तैयार हुए या इतिहासकारों ने बाबरकाल का उल्लेख अपनी पुस्तकों में किया उनमें स्पष्ट लिखा कि बाबर ने मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया।
असल में मंदिर तोडऩे का गुनाह इब्राहीम लोधी ने किया था। उसने 17 सितंबर 1523 को मस्जिद की नींव डाली थी और 10 सितंबर 1524 को मस्जिद बनकर तैयार हुई। बाबर का आक्रमण इसके बाद हुआ। बाबर को हिन्दुतान बुलाने का गुनाह पंजाब के सूबेदार और इब्राहीम लोधी के चचा दौलत खां और रणथंबोर के हिन्दू राजपूत राणा सांगा ने किया था। बाबर हिन्दुस्तान आया और 20 अप्रैल 1526 को पानीपत के मैदान में उसने इब्राहीम लोधी को पराजित कर उसकी सल्तनत छीन ली। बाबर का साम्राज्य बढ़ता गया और फिर उसके ही एक सूबेदार मीर बांकी ने लोधी द्वारा बनवाई मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद कर दिया, यह ठीक वैसा ही है जैसे आज गांधी, नेहरू और किदवई नगर हैं, गांधी, नेहरू, किदवई को यह पता ही नहीं है कि उनके नाम से कोई नगर या सड़क है। मस्जिद के बाहर एक शिलालेख में मस्जिद निर्माण से संबंधित जानकारी थी, यह शिलालेख 1889 तक पढ़े जाने लायक था। एक अंग्रेस अफसर ए फ्यूरर ने इस शिलालेख का अनुवाद किया था जो आज भी आर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में दफन है। स्वाधीनता संग्राम में जब हिन्दू-मुस्लिम दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ इंकलाब का नारा बुलंद किया तब इस एकता को तोडऩे के लिए अंग्रेजों ने इस शिलालेख को तोड़ दिया। इसके अलावा अंग्रेज अफसर कनिंघम जिसके पास पुरातत्व महत्व की इमारतों की देखरेख की जिम्मेदारी थी, ने चालाकी से लखनऊ गजेटियर में यह दर्ज कराया कि मस्जिद निर्माण के समय एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दुओं का कत्ल किया गया था। लेकिन उस वक्त ऐसे संसाधन उपलब्ध नहीं थे जिससे कनिंघम के झूठ को पकड़ा जा सके। जबकि फैजाबाद गजेटियर के मुताबिक 1869 में पूरे फैजाबाद की आबादी 9949 थी, यह वो समय था जब राजाज्ञा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था, ऐसा कोई साधन नहीं था कि अचानक कहीं आया जाया जा सके, फिर 1526 में पौने दो लाख हिन्दू एक जगह अचानक कैसे एकत्रित हो गए। इस बात को आज बखूबी समझा जा सकता है।
अंग्रेजों के इस कुकर्म से कुछ विद्वान इन तथ्यों से परिचित थे और फिर अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि है यह सत्य किसी पुस्तक का मोहताज नहीं, इसलिए 1857 में मुसलमानों के तत्कालीन क्रांतिकारी नेता अमीर अली ने मुसलमानों से एक सभा में अपील की थी कि हमारा फर्जे इलाही हमें मजबूर करता है, हम हिन्दुओं के खुदा रामचंद्र जी की पैदाइशी जगह पर जो मस्जिद बनी है, उसे बाखुशी उनके सुपुर्द कर दें, क्योंकि यही दोनों के बीच नाइत्तेफाकी की सबसे बड़ी बजह है। अमीर अली की इस बात का सबने समर्थन किया था। लेकिन अंग्रेज इससे घबरा गए, उन्होंने अमीर अली और बाबा रामचरणदास को फांसी पर लटका दिया। सुल्तानपुर गजेटियर के पेज 36 पर इसका उल्लेख है। संत रामशरणदास की पुस्तक श्रीराम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद, तथ्य और सत्य में भी इसका उल्लेख है।
अंग्रेजों की हूबहू भूमिका में आज के नेता हैं। यह मंदिर मस्जिद विवाद हल करना ही नहीं चाहते, अन्यथा ऐसे कई मौके आए जब इसका समाधान निकल सकता था। लखनऊ में 11 अक्टूबर 1990 को 7 राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठनों सामूहिक बैठक में निर्णय किया था कि 30 अक्टूबर से पहले किसी भी दिन बाबरी मस्जिद को हटाकर राम मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि सौंप दी जाए। इस बैठक में मुस्लिम फॉर प्रोग्रेस के अध्यक्ष शरीफ जमाल कुरैशी, मुस्लिमे हिन्द के अध्यक्ष मोहम्मद आलम कोया, राष्ट्रवादी मुस्लिम फ्रंट के अध्यक्ष अब्दुल हकीम खां, दस्तकार मोर्चे के असद अंसारी, मुस्लिम संघर्ष वाहिनी के अध्यक्ष अय्यूब सईद, मुस्लिम महिला संगठन की श्रीमती नफीसा शेख तथा भारतीय मुस्लिम युवा सम्मेलन के मुख्तार अब्बास नकवी शामिल थे। यही वो समय था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आरएसएस प्रमुख देवरस जी को बुलाकर कहा था कि गैर विवादित भूमि पर विश्व हिन्दू परिषद की अगुवाई में मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ करें, जबतक कार्य विवादित भूमि तक पहुंचेगा मामला सुलझा दिया जाएगा। देवरस जी और विहिप इसके लिए तैयार थे, लेकिन सत्ता की लालच में डूबे लालकृष्ण आडवाणी के सामने दोनों को झुकना पड़ा। आडवाणी जी 25 सितंबर को ही रथ पर सवार हो चुके थे, जिससे उतरना उन्हें गवारा नहीं हुआ और उसके बाद जो हुआ वह सबके सामने है। आज विहिप मंदिर निर्माण में आणवाणी को सबसे बड़ी बाधा बताता है। आडवाणी ने यदि रथयात्रा की जिद न करके राव की बात पर चलने और मुस्लिम संगठनों की बैठक में हुए फैसले को स्वीकार कर लिया होता तो संभवत: अब तक जन्मभूमि पर भव्य मंदिर होता। भाजपा ने हिन्दुओं के वोट पाने के लिए इस आंदोलन को ऊंचाईयां दीं और सत्ता मिलने के बाद इससे किनारा कर लिया। ऐसा एक नहीं कई बार हुआ। अंतत: जनता ने सच को समझा और इन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया, तो अब फिर भाजपा राम की शरण में है।
अदालत से जो फैसला आना है वह इन तथ्यों पर आएगा कि वहां वास्तव में कोई मंदिर था या नहीं। मुस्लिमों का कहना है कि जिस स्थान पर मस्जिद बनी है वहां पहले कोई मंदिर था ही नहीं। इस विषय पर कई बार बैठकें और वार्ताएं हो चुकी हैं। पुरातत्व विभाग की टीम ने यहां खुदाई करके भी देखा, जिसकी रिपोर्ट अदालत को दे दी गई है। हालांकि यहां खुदाई जैसे किसी उपक्रम की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि ऐसी कई निशानियां मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि यहां मंदिर था। मसल मस्जिद का ऊपरी हिस्सा जिन 14 खंबों पर टिका हुआ है उनमें हिन्दू देवी देवताओं की आकृतियां विद्यमान हैं। मस्जिद में कहीं भी लकड़ी का उपयोग नहीं होता, जबकि यहां बड़ी मात्रा में लकड़ी का उपयोग किया गया है। मस्जिद में हरहाल में एक पानी की टंकी होती है, बाबरी मस्जिद में इसकी व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात इस्लमा के मुताबिक विवादित स्थल पर नमाज नहीं पढ़ी जा सकती और पिछले करीब 40 वर्षों से यहां नमाज पढ़ी भी नहीं जा रही है, इसलिए उपलब्ध साक्ष्यों और इस्लामिक मान्यता को ध्यान में रखकर मुस्लिमों को खुशी-खुशी अपने पूर्व में लिए गए निर्णयों पर अमल करना चाहिए। अदालत का निर्णय चाहे जो भी आए।

Sunday, August 29, 2010

पाक की मदद से बेहतर है कुत्ते को रोटी खिला दो

पाकिस्तान ऐसी वेश्या है जो पैसे के लिए किसी के साथ भी हमबिस्तर हो सकती है, लेकिन प्यार करने वाले को गले नहीं लगा सकती। हालांकि वफा वह पैसा देने वालों से भी नहीं करती, बस वफा का नाटक करती है। इन शब्दों से संभव है कई लोगों को ऐतराज हो, लेकिन पाकिस्तान की हालिया हरकत के जबाव में मेरे पास इससे बेहतर उदाहरण नहीं है।भारत बाढ़ पीडि़तों की नि:स्वार्थ मदद करना चाहता है, स्वयं सबसे पहले पेशकश की, पहले पाकिस्तान ने ना-नुकुर किया, फिर सहायता स्वीकार कर ली राहत कर्मियों को वीजा नहीं दिया और अब कहता है कि अपनी सहायता संयुक्त राष्ट्र संघ के जरिए भेजिए। दूसरी ओर चीन हथियार दे रहा है, परमाणु सामग्री दे रहा है, अमेरिका भरपूर पैसा दे रहा है, इसलिए पाकिस्तान उनके सामने दुम हिलाता रहता है। चीन के लिए अमेरिका को और अमेरिका के लिए चीन को चूतिया बनाकर अपना हित साधता रहता है। इसलिए कहता हूं कि पाकिस्तान की मदद करने बेहतर है कि किसी कुत्ते को रोटी खिला दो। क्योंकि रोटी खाने के बाद कुत्ता वफादारी निभाता और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इससे राहू नियंत्रित होता है।बाढ़ से कराह रही जनता के परिप्रक्ष्य में यह दूसरी आपत्तिजनक बात हो सकती है। क्योंकि आपत्तिकाल में फंसे व्यक्ति की सहायता करना किसी का भी परमकर्तव्य है। किंतु जो भारत विरोधी नारे लगाने में शामिल हों और जिनका मुस्तकबिल न केवल हरामखोर बल्कि गद्दार और एहसानफरामोश हो उनके प्रति न तो मेरे मन में कोई संवेदना है ना ही प्रेम। मुंबई हमलों के गुनहगार हाफिज सईद की रैली में लाखों पाकिस्तानियों ने भारत के खिलाफ जहर उगला, राष्ट्रीय ध्वज को आग लगाई। हम उन्हें चंद सईद समर्थक कहकर क्षमा नहीं कर सकते, दूसरी बात पाकिस्तान के किसी भी कौने से कभी भी भारत के खिलाफ चलाए जा रहे नापाक अभियानों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। दूसरी ओर भारत में पाकिस्तान विरोधी बातों पर आलोचनाएं शुरू हो जाती हैं। बेशक राहत शिविरों में कई अच्छे लोग होंगे लेकिन जिस तरह सैकड़ों कुचक्रों को जानने और सहने के बाद भारत का एक बड़ा वर्ग पाकिस्तानियों के पक्ष में खड़ा हो जाता है, सरकार हमेशा दोस्ती और मदद के लिए तैयार रहती है, पाकिस्तान का कोई बंदा ऐसा करने से परेहज करता है और हुक्मरानों का कमीनापन तो दुनिया वर्षों से देख रही है। इस मुसीबत के समय में भी पाकिस्तानी हुक्मरान सिर्फ इसलिए मदद स्वीकार करने में आनाकानी कर रहे हैं, ताकि अपनी जनता से कह सकें कि हमने विपत्ती के समय में भी पड़ोसी मुल्क से मदद नहीं ली। कालांतर में यही काम जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी किया था। उन्होंने अपनी जनता को आश्वस्त किया था कि हम हजार वर्षों तक घास की रोटी खा लेंगे लेकिन भारत के सामने नहीं झुकेंगे। हालांकि भारत ने कभी पाकिस्तान को झुकाने की नीयत से न तो मदद की न लड़ाई। फिर भी पाकिस्तान का रवैया सदैव उकसाने और पीठ में छुरा घोंपने वाला रहा। बहरहाल जुल्फिकार अली को फांसी पर लटका दिया और पाकिस्तानी सेना को भारतीय फौजों ने कुत्तों की तरह मारकर भगा दिया।एक और महत्वपूर्ण मसला। पाकिस्तान को आज तक जिन देशों ने मदद की है उनकी मदद का दुरुपयोग भारत के खिलाफ हुआ। इसके अलावा अहसान फरामोश भी है। अमेरिका लाखों डालर की मदद आतंकियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों और आम जनता की बेहतरी के लिए करता है, लेकिन पाकिस्तन इसका इस्तेमाल आतंकियों को पालने-पोसने और भारत के खिलाफ फौजों की तैयारी में खर्च करता है। इस वक्त चीन की जांघ पर बैठकर उसे सहला रहा है, पीओके का मालिकाना हक उसे सौंपने जा रहा है, क्योंकि चीन ने अमेरिकी विरोध के बावजूद पाकिस्तान से परमाणु करार कर लिया है और हथियार तो देता ही रहता है। पाक दोनों को बेवकूफ बना रहा है, कभी चीन को सहलाता है और जिस दिन अमेरिका आंख दिखाता है उसके सामने 90 अंश पर झुक जाता है।हालांकि चीन और अमेरिका भी स्वार्थी हैं, वे अपने-अपने स्वार्थों के लिए ही उसकी मदद करते हैं उन्हें पाकिस्तान की आबादी से कोई मतलब नहीं है, फिर भी पाकिस्तान हंसकर उनकी हर मदद स्वीकार करता है, लेकिन भारत नि:स्वार्थ मदद करता है, उसके उज्जवल भविष्य की कामना करता है, इसलिए किसी अय्याश वेश्या की तरह पाकिस्तान उसके सामने अकड़ता रहा है। बहरहाल हमारी संस्कृति सांपों को दूध पिलाने और बिच्छू को पानी से बाहर निकालने की रही है, इसलिए हमारी सरकार संयुक्त राष्ट्र के जरिए ही दुखी-पीडि़त जनता को मदद करने की तैयारी कर रही है।

Friday, August 27, 2010

समझो ड्रेगन की चाल

विवादित कश्मीर में नत्थी वीजा, वरिष्ठ सैन्य अफसर को वीजा नहीं देना, ब्रह्मपुत्र पर बांध, सीमा पर सड़क, सीमा पर मिसाइल, परमाणु पनडुब्बियों को छिपा कर रखने के लिए सुरंगें, पाकिस्तान के साथ परमाणु करार और हर कदम पर भारत के विरोध में मदद, नेपाल को भारत के खिलाफ भड़काना, एवरेस्ट पर सड़क, 40 अरब डालर के व्यापार की चकाचौंध में चौंधियाये देश के कर्णधारों को चीन की ये गतिविधियां दिखाई नहीं दे रहीं हैं, जिनके चलते उसने भारत पर पूरी तरह शिकंजा कसने की तैयारी कर रखी है। और आगामी तैयारियों के तहत वह भारत को पूरी तरह विवश करने का प्रयास करेगा। इसके लिए उसने पाकिस्तान, बांगलादेश और ताजा-ताजा गणतंत्र देशों में शामिल हुए नेपाल को हथियार बना रहा है।पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में अपना जाल बिछाकर चीन लगातार भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता कर चुका है। बांग्लादेश के रूपपुर में भी चीन परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने में सहयोग की पेशकश कर चुका है। नेपाल में जबसे माओवादियों का राजनीतिक वर्चस्व बढ़ा है लगातार नेपाल चीन की ओर झुकता जा रहा है। वैश्विक एजेंसियां लगातार इस बात की शंका जाहिर कर रही हैं कि पाक परमाणु हथियार कहीं आतंकवादियों के हाथ न लग जाएं। लेकिन चीन को इसकी चिंता नहीं है। उसका लक्ष्य मात्र भारत को घेरना है। इसलिए वे आतंक के निर्यातक ही सही चीन उनकी मदद करेगा। लेकिन भारत सरकार को यह दिखाई नहीं दे रहा है, सब उलझे हुए हैं देशी जनता को वोटों के लिए आपस में लड़ाने में धर्म, आरक्षण और जातिवाद की भट्टïी झोंकने में। किसी की जुर्ररत नहीं कि पड़ोसी की ओर आंखें तरेर कर कह सके, फलां जगह आपकी स्वतंत्रता और सत्ता समाप्त होती है और इसीलिए चीन छाती पर चढ़ता आ रहा है। हालिया वीजा विवाद में हालांकि विदेश मंत्रालय ने सख्ती दिखाई है, लेकिन रक्षा मंत्री अब भी दो टूक बोलने से परहेज कर रहे हैं, न जाने क्यों उन्हें एक धोखेबाज से द्विपक्षीय संबंधों में लाल लगे दिख रहे हैं।

Sunday, August 22, 2010

कब होंगे इतने उदार, हमारे अमीर

अमीरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नई अर्थव्यवस्था में यह आश्चर्यजनक नहीं है। भारत में अगर चीन और जापान से अधिक अमीर हैं तो यह नई व्यवस्था का कमाल है जो हरहाल में मशीनरी विकसित कर रही है जिससे पैसे वालों को और पैसे वाले बनें और उनकी भूख कभी शांत न हो। इस कमाल की व्यवस्था की एक और विशेषता यह है कि इससे अमीरों और गरीबों के बीच फैसले की खाई दुर्निवार होती जा रही है।अमीरों की दुनिया देखकर जिस कारण सबसे अधिक कोफ्त होती है वह है उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों से बढ़ती दूरी। न तो उन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब है न उसके बारे में सोचने की फुर्सत और जिज्ञासा। गांधीजी कहते थे अमीर एक तरह से ट्रस्टी हैं। अमीरों की अनिवार्यत: यह कोशिश होनी चाहिए कि उनके पैसे से गरीबों का भला हो। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में सबकुछ उल्टा हो रहा है। अमीरों द्वारा पैसा खर्च करना तो दूर उल्टे गरीबों का खून चूस रहे हैं। मुकेश अंबानी जैसे देश के उद्योगपति सम्राट की नजर में भारत की आबादी बाजार है, इंसान नहीं।पश्चिम को लगातार उसके रहन-सहन और संस्कृति के नाम पर कोसने वालों को वहां रहने वाल अमीरों के उदार हृदय दिखाई ही नहीं देते। वे इस विषय में कुछ सोचना ही नहीं चाहते कि क्यों अमेरिका के अमीरों ने अपनी आधी संपत्ति सामाजिक सरोकारों के लिए दान कर दी। क्या हमारे उद्योगपति वैश्विक कामयाबी के साथ दबे-कुचले लोगों भला करने का विचार करते हैं या कभी कर पाएंगे। मेरी व्यक्तिगत राय है कि इसकी उम्मीद न के बराबर है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब अमीर बन रहे हैं शातिर और चालाक व्यक्ति जो उल्टे-सीधे काम करने, कर चोरी करने और सरकारी नीतियों को अपने हक में बनवाने का महारथ हासिल है। आज अमीरों खासकर नए अमीरों में रईसाना जीवन जीना और देश व समाज की हर फिक्र को धुंए में उड़ाना ही जीवन मूल्य है। अगर वे गरीबों के लिए कुछ करते भी हैं तो उसमें कोई न कोई स्वाथ छिपा होता है। अन्यथा उनकी संस्थाओं, जहां हर आदमी हाड़तोड़ श्रम दे रहा है, में पैदा हो रहा रोजगार ही उनके सामाजिक सरोकारों का चरम है।गांधी और बिनोबा के समय में जमशेद जी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला, जे डालमियां जैसे उद्योगपतियों ने सामाजिक विकास के लिए कई काम किए। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च,टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, टाटा मेमोरियल सेंटर और बिड़ला इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाएं सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखकर ही स्थापित की गर्ईं थीं। इसके विपरीत यदि आज कोई इस तरह की बड़ी संस्था स्थापित करता है तो उसका मूल उद्देश्य लाभ कमाना होता है।भारतीय और विदेशी अमीरों के दृष्टिकोण में भी बड़ा फर्क है। इसके लए अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर का उदाहरण देखा जा सकता है। अलगोर जब डेमोक्रेटिव पार्टी के उम्मीदवार बने तो उनके खिलाफ इसलिए विरोध का माहौल तैयार होने लगा कि उन्होंने तब तक चैरिटी पर केवल 10 हजार डालर ही खर्च किए थे। इसके अलावा वहां ऐसे कई रईस हैं जिन्होंने आदर्श स्थापित कर कई संस्थाओं की मदद की। वहां हावर्ड जैसी ख्यात संस्थाएं भी अनुदान पर चलती हैं, हमारे यहां कोई एकाध आनंद जैसा साधारण व्यक्ति तो सुपर-30 खोल लेता है, लेकिन उद्योगपतियों को एक स्कूल चलाना भी बोझ लगता है। यदि पश्चिमी अमीर इस तरह की सोच से ग्रसित होते तो बिल गेट्स अपनी संपत्ति का 95 प्रतिशत हिस्सा दान नहीं कर पाते। यह राशि शिक्षा और एड्स पर खर्च की जाती है। कुछ वर्षों पूर्व दुनिया के दूसरे अमीर रहे वारेन वुफेट तो और भी आदर्श भूमिका में थे, उन्होंने अपने नाम से कोई फाउंडेशन नहीं बनाया और अपनी 90 प्रतिशत संपत्ति गेट्स के फाउंडेशन को दान कर दी। उस समय यह राशि करीब दो लाख करोड़ थी। अभी हाल ही में अमेरिका के अमीरों ने अपनी आधी संपत्ति दान करने की घोषणा की है, उनमें से किसी एक ने भारतीय अमीरों को भी ऐसा करने की सलाह दी है, लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आई।

Friday, August 20, 2010

12 साल सोनिया के या...

सोनिया गांधी के पुन: कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की कवायद शुरू हो चुकी है और वे ही अध्यक्ष होंगी इसमें किसी को लेश मात्र संदेह नहीं है। इतने लंबे समय तक कांग्रेस पर लगाम कसने वाली वे पहली कांग्रेस नेता हैं।लंबे नानुकुर के बाद 1998 में श्रीमती सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी। उस समय कांग्रेस की हालत ऐतिहासिक रूप से बद्तर थी। स्व. नरसिंह राव घोटालों में फंसे थे। वरिष्ठï कांग्रेसी इधर-उधर बिना राजा की फौज की तरह भाग रहे थे। आजीवन कांग्रेस को दान करने वाले सीताराम केसरी यद्यपि अध्यक्ष पद संभाल रहे थे लेकिन वे कहीं से अध्यक्ष का दायित्व नहीं निभा पा रहे थे। कुछ कांग्रेसी थे जो पार्टी के बिखराव की इस नस को जानते थे और आखिरकार केसरी जी को बिदा करके उन्होंने सोनिया गांधी को कांग्रेस की कमान सौंप दी। केसरी जी को जिस प्रकार जल्दबाजी में अध्यक्ष पद से हटाया गया इसकी तीखी आलोचना हुई थी, उनके स्वर्गवास को लोगों ने पद से हटाने का सदमा तक करार दिया। बहरहाल सोनिया गांधी ने न केवल कांगे्रस की कमान संभाली बल्कि पार्टी को एकजुट किया, लगातार दो पराजयों का दंस झेलने वाली राष्टï्रीय पार्टी को लगातार दो चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के रूप उभारा और सत्ता पर काबिज कराया। आज उनकी पार्टी और सत्ता पर ऐसी पकड़ है कि उनकी मर्जी के बिना सत्ता और संगठन पत्ता भी नहीं हिलता।सोनिया गांधी की कई मामलों में आलोचना की जा सकती है, लोग करते भी हैं। लेकिन उन्होंने भारतीय राजनीति में जो मिशाल कायम की वह सुनियोजित ही सही, कोई ओर नेता नहीं कर सका। कहा जाता है कि उन्होंने पूरी सोची समझी रणनीति के तहत प्रधानमंत्री का पद त्याग दिया, लाभ के पद के आरोपों के चलते इस्तीफा दिया, विदेशी मूल के मुद्दे पर पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया। सोनिया के राजनीतिक विरोधी कहते हैं कि उन्होंने ऐसा केवल सत्ता लोभ के कारण किया। हालांकि यह सर्वविदित है कि 1980 में संजय गांधी की मौत के इंदिरा गांधी अपने बड़े पुत्र राजीव गांधी को राजनीति में लाना चाहती थीं, तब सोनिया ने इसका विरोध किया था। वह अपने पति की मृत्यु के एकदम बाद राजनीति में नहीं आईं। पहले उन्होंने अपने बच्चों की जिम्मेदारी का निर्वाह किया और फिर राजनीति में आईं। ऐसा करने में उन्हें सात साल लग गए। देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी सात साल में एक सर्वमान्य नेता पैदा नहीं कर सकी तो इसमें गलती किसकी है? हमारे देश के ही अनेकों नेता देशवासी होने जैसा स्वांग भी नहीं रच सके, जबकि सोनिया गांधी ने आडंवर ही सही भारतीय संस्कृति की छाप, जितनी उन्हें बताई गई या उन्होंने देखी हर जगह छोड़ी। यहां तक कि विदेशी मूल का धुर विरोधी भारतीय राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ को भी समय-समय पर सोनिया की तारीफ करने को विवश होना पड़ा।शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने पार्टी इसीलिए छोड़ी थी क्योंकि उन्हें विदेशी मूल का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। आज वही पवार साहब ऐसी सरकार में मंत्री हैं जो सोनिया जी के इशारे से चलती है। प्रमुख विपक्षी दल ने कई तरह से सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की, कहीं-कहीं सफल होते दिखे, लेकिन अंतत: उन्हें मुंह की ही खानी पड़ी। कांग्रेस की अमरवेल बिना नेहरू-गांधी परिवार से लिपटे फलफूल नहीं सकती यह भी साबित हो गया। आज वह लगातार 12 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने वाली नेहरू-गांधी परिवार की अकेली सदस्य हैं। उनसे पहले हालांकि मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी अलग-अलग समय पर कांग्रेस का नेतृत्व संभाल चुके हैं, लेकिन इतने लंबे समय तक कोई नहीं रहा। इन 12 वर्षों में कांग्रेस को सत्ता के द्वार तक पहुंचाकर वह उसकी खोई हुई गरिमा को वापस लाईं और एक बार फिर से वंशवाद की स्थापना हुई। कल तक सोनिया गांधी को पार्टी में लाने के लिए उतावले नेता आज राहुल को अपना मुखिया चुनने के लिए बेताब हैं।

Tuesday, August 17, 2010

कर्ज का कहर, कहीं कर्णधारों का

देश की विपरीत छवि प्रस्तुत करना देश के किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे दुखद स्थिति हो सकती है, किंतु देश के एक-एक कौने पर कब्जा जमाये बैठी क्षेत्रीय दलों की सरकारों और राष्टï्रीय दलों की सरकारों ने हालात ऐसे पैदा कर दिये हैं कि चुप रहना मुनासिब नहीं लगता। स्वार्थ में अंधे मसीहाओं ने मनहूसियत की ऐसी बस्ती बसा दीं जहां केवल एक ही सड़क आंगन से समसान तक सदैव चलती रहती है।यूँ तो इस देश को शर्मशार कर देने वाली अनेक घटनाएं हैं, लेकिन इनमें सर्वाधिक दुखद और विश्वभर के लिए विस्मयकारी घटना है किसानों द्वारा लगातार आत्महत्या करना और विकास के नाम पर सरकारों द्वारा उनका उत्पीडऩ। सारी दुनिया जानती है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कृषि आधारित है, जहां की आज भी 65 से 70 फीसदी आबादी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, ऐसे देश में किसानों द्वारा मौत को गले लगाना किसी के गले नहीं उतर रहा। लेकिन दुर्भाग्य कि देश के मसीहा बने बैठे लोगों को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। इसका सबसे सटीक उदाहरण है स्पेशल एकॉनामिक जोन यानि (सेज)। कहीं किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर रहा है, कहीं सरकारें मनमानी से परेशान है। किसानों का दुख और निराशा कितनी गहरी है और सरकार को अपने किसानों की कितनी चिंता है यह कहानी आंकड़े बताते हैं। पिछले वर्ष देश में प्रतिमाह औसतन 100 किसानों ने आत्महत्या की। राज्य सरकारों से यह कौन पूछेगा कि जब इतनी अधिक संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे थे तब सरकार ने कौन से उपाय किये थे और यदि किए थे तो वे आत्महत्याओं को रोकने में कारगर क्यों नहीं हुए?महाराष्टï्र, केरल, उड़ीसा, आंध्रपदेश आज ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ किसानों की स्थिति आत्महत्या करने तक दयनीय नहीं हो गई। यहां तक कि हरितक्रांति के अग्रदूत पंजाब की भी। और मजे की बात यह है कि इनमें से कई राज्य सूचना एवं प्रौद्योगिकी में महारथ हासिल होने के कारण विश्व भर में जाने जाते हैं। ऐसे विकसित प्रदेशों में किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं निश्चिय ही विकास के मुख पर करारा तमाचा है।क्या इसी विकास के लिए गरीबी में तिलतिल मरते किसान की जमीन छीन कर उद्योगों को दी जा रही है और विकास के केनवास पर समृद्धि की तस्वीर उकेरी जा रही है? वह भी किसानों पर लाठियां भांजकर और गोली चलाकर। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल करीब-करीब प्रत्येक प्रांत में किसानों ने अपनी भूमि नहीं देने के एवज में लाठियां खाईं। उत्तरप्रदेश में तो पिछले तीन दिनों से यही सब चल रहा है। न तो लाठियां चलवाने वाली सरकार को लज्जा आई और न ही लाठियां भांजने वाले खाकी बर्दी धारियों को, यद्यपि तमाम जनता के साथ यह भी इसी किसान की उगाई फसल से पेट भरकर रोटी खाते हैं।आज परमाणु करार को देशहित में नहीं बताने वाले गरीब मजदूर और किसानों के मसीहाओं ने भी अपने राज्य में अन्नदाता का भरपूर दमन किया। बल्कि यूं कहें कि सर्वाधिक तो अतिश्योक्ति न होगी। उत्तरप्रदेश में जो चल रहा है वह किसी भी सूरत में सही नहीं है। यमुना एक्सप्रेस वे के लिए भूमि संभव है बेहद जरूरी हो, लेकिन जिन किसानों की रोजी-रोटी छीनी जा रही है उसकी भला कोई कीमत लगाई जा सकती है। जो उपजाऊ खेत विकास के लिए बंजर किए जा रहे हैं वे केवल भू-स्वामी का पेट नहीं भरते बल्कि यहां उगी फसल लाखों लोगों का पेट भरती है। विकास विरोधी कोई नहीं हो सकता, लेकिन इसी तरह से उपजाऊ भूमि खत्म होती गई तो जिस अर्थव्यवस्था पर हम इतना इतराते हैं उसका क्या होगा। खैर! देश के लिए इससे बड़ा अहित और क्या हो सकता है कि उसका पालनहार आत्महत्या के लिए विवश हो जाये या फिर उसको गोलियों से भून दिया जाये।

Monday, August 16, 2010

धर्म चूल्हे पर स्वार्थ की हांडी

कालांतर में एक अजामिल नाम का डाकूथा जिसने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा। अंत समय में उसने अपने पुत्र को आवाज लगाई। सोचा बता दूं लड़के को कहां किससे कितनी उगाही करनी है, चोरी और लूट का धन कहां छिपा रखा है। लेकिन कमला हो गया अंतिम समय में नारायण-नारायण सुनकर स्वयं नारायण चले आये और डाकू का जीवन धन्य हो गया। ऐसा हुआ या नहीं यह तो पता नहीं लेकिन यह कहानी कदाचित उन लोगों ने गढ़ी है जो अपने कुकर्मों को इस कहानी की आड़ यह तर्क दिया जा सके कि जब हत्या, चोरी, डकैती जैसे पाप करने के बाद एक डाकू को अंत समय में भगवान मिल सकते हैं तो फिर हम तो थोड़ी सी रिश्वत लेते हैं उसके ऐबज में सामने वाले का काम करते हैं, धर्म के नाम पर थोड़ा सा बेवकूफ बनाते हैं, पेट पालने के लिए। इसमें कौन सा बढ़ा पाप करते हैं।यही इंसान की विशेषता है, और इसी तरह से वह कुछ भी करके समाज में सम्मानित स्थान पर बैठा रहता है। बस जरूरत होती है उसे एक ऐसे मंच की जहां खड़े होकर वह अपने आपको धर्म और संस्कृति का ठेकेदार घोषित कर सके, जहां उसके हाथ छोटी-बड़ी कैसी भी हो ताकत हो। यह प्रवृत्ति किसी एक धर्म के ठेकेदार में नहीं बल्कि तमाम धार्मिक ठेकदारों में पल रही है।अभी चंद रोज पहले भारतीय संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदारों ने फ्रेंडशिप डे पर कुछ लड़के-लड़कियों को अनावश्यक परेशान किया और वह पाप भी किया जो छिछोरों का आभूषण है। करीब-करीब इसी समय फतवों की फैक्ट्री से एक फतवा जारी हुआ कि महिलाएं पेशेवर होने से बचें, उन्हें नौकरी नहीं करनी चाहिए, मंगेतर से बात नहीं करने, इससे पहले बीमा नहीं करवाने, फोटो नहीं खिंचवाना चाहिए जैसे वाहियाद फतवे जारी किए गए। लेकिन मुसीबत यह है कि धर्म के आधार पर कही गई इन बातों का विरोध करने वाला कोई नहीं है। सत्ता चौराहे पर तमाशबीन की तरह खड़े हो कर तमाशा देखती है और चार मुर्दे चौपाल पर बैठकर लोगों को जिंदगी का अर्थ समझाने लगते हैं। धर्म की आग में स्वार्थ की हांडी चढ़ाकर इंसान की भावानाओं पकाने और खाने तकके पतन में जा पहुंचे लोगों की दुकानदारी चह रही है।हिन्दू हो या मुसलमान या फिर कोई अन्य अपनी और अपनी संतति, संपत्ति की सुरक्षा का उसको प्राकृतिक अधिकार उसके जन्म के साथ ही मिला हुआ है। अपने भविष्य के प्रति सावधान होना, हंसना-बोलना उसके जन्मजात अधिकार हैं। कोई यह नहीं सकता किउसे यह अधिकार हिन्दुस्तान में है और अन्य जगह नहीं है। वयं रक्षाम हर काल में हर स्थान पर लागू है। वो नपुंसक और कायर होते हैं जो अपनी रक्षा करने के लिए दूसरों को आवाज देते हैं और वे मनहूस होते हैं जो हंसने-बोलने से परहेज करते हैं। हिन्दुस्तान की हर कौम ने इसे अपनाया है। लेकिन कुछ धर्म के ठेकेदारों ने अपनी दुकान चमकाने के लिए ऐसे अनाप-शनाप पाखंड फैला रखे हैं जिसमें आदमी की आस्था तकजला कर भस्म कर देते हैं। हिन्दुओं में हों या मुसलमानों में यह ऐसे घातक जीव हैं जो अपने स्वार्थ के लिए न केवल राष्टï्र की प्रगति में बाधकबनते हैं बल्कि एक-एक घर में परस्पर आग लगाने की सीख देते हैं। धर्म व्यक्तिगत होता है, कोई धर्म किसी पर थोपा नहीं जा सकता, इसलिए आधुनिक युग में इन महानुभावों को चलता कर दिया जाये यही बेहतर होगा, कहीं ऐसा न हो कभी कोई रोटी खाना भी जायज और नाजायज की श्रेणी में ला दे।

Friday, August 13, 2010

कश्मीर को स्वायत्तता क्यों!

पिछली पोस्ट में हमने आजादी के बाद कश्मीर को अब्दुल्ला परिवार और केंद्र सरकार की खींचतान ने किस तरह जन्नत को देश के माथे का नासूर बना दिया पर चर्चा की। अब चूंकि एक बार पुन: कश्मीर को स्वायत्तता देने की बात चल रही है इसलिए यह सवाल मौजूं है कश्मीर को स्वायत्तता क्यों।गहराई से देखें तो राजनीतिक स्वार्थों के साथ कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा होना भी उसका दूसरा बड़ा दुर्भाग्य रहा है। कहा जाता है कि आजादी के बाद देश के तमाम राजे-रजवाड़े और रियासतों का भारत में विलय हुआ था जबकि कश्मीर भारत में शामिल हुआ था। कश्मीर के साथ कालांतर में यह उदारता क्यों और किन विशेष परिस्थितियों में बरती गई यह बीती बात हो गई है, अब असल सवाल है कि जब कश्मीर के लिए केंद्र से तमाम प्रकार की सहायताएं और सुविधाएं झोली फैला कर मांगी जाती हैं तो फिर उसके कानूनों को लागू करने से क्या परहेज है। क्या केंद्र ने उन पाकिस्तान परस्तों का ठेका ले रखा है जो जिस थाली में खा रहे हैं उसी थाली में छेद कर रहे हैं। जब देशवासियों की गाढ़ी कमाई का अरबों रुपए कश्मीर पर लुटाया जा रहा है तो उन कमीनों को लात मारकर बाहर क्यों नहीं करते जो पाकिस्तनी झंडे फहरा कर देशवासियों की भावनाओं और देश का अपमान कर रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कश्मीर नक्शे में हिंदुस्तान का हिस्सा रहे इन नागों को स्वायत्तता देकर दूध पिलाने से क्या लाभ है। दूसरी बात यदि कश्मीर को स्वायत्तता देने के बाद ऐसी ही मांग अन्य सीमावर्ती राज्यों में उठी तो स्थिति कितनी भयंकर होगी।सिर्फ इसलिए कि सुंदरता को दाग न लग जाए और पं. नेहरू के शेख को दिए वचन के कारण कश्मीर को सारे देश से अलग रखना, उसे विशेष सुविधाएं देना और मुसीबतें मोल लेना समझदारी या उदारता नहीं मूर्खता है। नेहरू काल में परिस्थितियां और थीं, घाटी में आतंकवाद का अजगर नहीं था और हुर्रियत के विषैले नाग भी इतने जहरीले नहीं थे। और सबसे महत्वपूर्ण है कि यदि पूर्व में गलती हो गई तो इसे जिंदगी भर ढोने का क्या मतलब है। अतीत से सबक लेना अच्छी बात है, बंधा रहना तो मूर्खता ही है। नेहरू काल में जो गलती हुई उसे सर्वसम्मति से दुरुस्त किया जाए न कि सर्वसम्मति से कश्मीर को स्वायत्तता दी जाए।कश्मीर अभी भी देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा संघीय व्यवस्था में भारी है, चाहे वह कर वसूली हो या फिर विभिन्न कानूनों का समान रूप से लागू करना। बावजूद इसके विकास के लिए विशेष पैकेजों की बाढ़ लगातार उफान पर रहती है, यदि आम कश्मीरी को इसका लाभ नहीं मिला तो इसके लिए जिम्मेदार है अब्दुल्ला परिवार है, फिर भी उन्हीं को गले लगाए रखने वालों और उनकी बातों पर कान देने वालों पर तो तरस आता है या फिर उनकी नीयत पर शक होता है।फारूख की निष्ठा सदैव शंकास्पद रही है और अब भी है। वे कश्मीर को कोई हिन्दुस्तान से अलग नहीं कर सकता जैसे बयान देकर अपनी नीयत पर पर्दा नहीं डाल सकते। क्या फारूख को नहीं मालूम की कई हिस्सों में ऐसे लोग मौजूद हैं जो पाकिस्तान परस्त हैं और इन पर कभी भी फारूख की मीरी-पीरी अंकुश नहीं लगा सकी। फारूख की बात मानकर या वर्तमान परिस्थितियों को देखकर कश्मीर को स्वायत्तता के नाम पर और अधिकार देना घोर मूर्खता होगी।मैंने जैसा कि कहा फारूख की देश के प्रति निष्ठा सदैव संदेहास्पद रही है उसका नमूना उन्होंने दस साल पहले पेश किया था। तब फारूख साहब का कहना था कि वे केवल कश्मीर की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि तमाम राज्यों के हित रक्षण में यह बहस छेड़ी है। क्या फारूख की इस नीयत से सहमत हुआ जा सकता है।बहरहाल अब फारूख की नीयत को गोली मारें और उन सांपों के फन कुचलें जो देश में दुश्मनों के झंडाबरदार बने हैं। कश्मीर के भारत में शामिल होने की जो भी कानूनी पेचीदगी, बारीकी रही हो, आज किताबी हो चुकी है, तब से अब तक झेलम में बहुत पानी बह चुका है। कश्मीर को खुशहाल बनाने के सपने में हिन्दुस्तानियों ने साझेदारी ही नहीं की है इसे अपने खून पसीने से सींचा है। जिन लोगों को कश्मीरी मुसलमानों के हितों की चिंता हो रही है उन्होंने कभी उन कश्मीरी पंडितों के विषय में नहीं सोचा जो पलायन कर चुके हैं। इसलिए कश्मीर में हो रहे उपद्रव को देखकर उसे स्वायत्तता देने की बजाए सेना को देशद्रोहियों के सफाए में लगाया जाए। कश्मीर का यही एक मात्र हल है, लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

Thursday, August 12, 2010

जन्नत को दोजख बना दिया

नेशनल कांफ्रेंस, हुर्रियत और केंद्र सरकार और इनके बीच में फंसा कश्मीर और आम कश्मीरी। विवाद पुराना है, कश्मीर को लेकर चूहे-बिल्ली का खेल आजादी के बाद से निरंतर चल रहा है। पहले एक मोर्चे पर फारूख अब्दुल्ला के अब्बा जान शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्ला थे और दूसरे छोर पर पं. नेहरू और इंदिरा थीं। कांग्रेस लाख कोशिशों के बावजूद कश्मीर में अपने पैर नहीं जमा पाई। इसके बाद जनता पार्टी से जनसंघ और फिर भाजपा ने भी कई प्रयास किए लेकिन अपनी जमीन नहीं तलाश पाई। बीच में कुछ समय के लिए ऐसा लगा था कि सब कुछ ठीक हो गया है, लेकिन सियासी स्वार्थ ने कश्मीर को जन्नत से दोजख बना दिया।बंटवारे के बाद आम कश्मीरी मुसलमान भारत के साथ अपनी मर्जी से जुड़े थे। क्योंकि पाकिस्तानी कबाइलियों के हमलों से उन्हें ऐतवार हो गया था कि उनकी कश्मीरियत पाकिस्तान में महफूज नहीं है। कश्मीर के राजा हरि सिंह जिन्होंने संकट के समय में भारत में मदद से मांगी थी, उनकी इच्छा के विपरीत मरहूम शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा को स्वीकार किया था। कुछ समय बाद विद्रोह हुआ और जम्मू दो धाराओं में बंट गया। एक धारा का नेतृत्व प्रजा परिषद ने किया, जिसका मानना था कि कश्मीर को दिल्ली के हवाले कर दिया जाए और दूसरी धारा में वे लोग थे जो इसमें जम्मू को भी शामिल करना चाहते थे। पंडित नेहरू भी इस विचारधारा के लोगों से सहमत थे। लेकिन तत्कालीन जनसंघ अध्यक्ष स्वर्गीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी चाहते थे कि कश्मीर को स्वायत्ता दे दी जाए और जम्मू को अलग कर लिया जाए। इसके लिए मुखर्जी ने पंडितजी को एक पत्र भी लिखा था, जिसके जबाव में नेहरू ने लिखा था कि ऐसा करने से पाकिस्तान को लाभ होगा और हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं वह औचित्यहीन हो जाएगी। मुखर्जी जी को यह बात जंची, लेकिन इसी दौरान उनकी अकाल मृत्यु से मामला ठंडे वस्ते में चला गया। इसके बाद शेरे कश्मीर की महत्वाकांक्षा ने कश्मीर का कबाड़ा कर दिया। कुछ विद्वानों का मत है वे पाकिस्तान से अधिक घुल-मिल गए थे और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोने लगे थे, इसलिए अक्सर ऐसी बयानबाजी करते रहते थे जिससे कश्मीरी जनता में दिल्ली के प्रति मलाल बना रहे। इस दौरान शेख का पाकिस्तान जाना, गिरफ्तार होना और नेहरू की सिफारिश पर छूटना इस बात की तस्दीक भी करता है, लेकिन सियासी रंजिश के बावजूद शेख-नेहरू मित्रता के कारण यह बातें आम नहीं हो सकीं।खैर! इन सारी स्थितियों के बावजूद कश्मीर में शांति थी। 71 के युद्ध के बाद शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ और अब्दुल्ला की सरकार बनी। शेरे कश्मीर का विरोध करने वाला कोई नहीं था। 1977 में पहली मर्तबा कश्मीर में विरोधी पार्टी के रूप में जनता पार्टी ने चुनाव लड़ा और बुरी तरह पराजित हुई। 1983 में कांग्रेस ने कोशिश की उसे भी मुंह की खानी पड़ी। कश्मीरी जनता पूरी तरह से नेशनल कांफ्रेंस के कब्जे में थी। इन चुनावों ने जन्नतवासियों को उनकी ताकत और देश पर उनके अधिकार से परिचित कराया। इस वक्त भी कश्मीर शांत था, लेकिन 1983 के बाद जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल बने और उन्होंने फारूख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर दिया। फारूख पर देश विरोधी पार्टी से सांठ-गांठ करने का आरोप लगा था। 86 में फिर चुनाव हुए और फारूख फिर मुख्यमंत्री बने। लेकिन फारूख के मन में बर्खास्तगी की कसक बाकी थी और अपनी दरकती जमीन का भय। उन्होंने ऐलान किया कि राज्य की सरकार बनाने में राज्य के लोगों की कोई भूमिका नहीं है, केंद्र की मर्जी के बगैर यहां कोई सरकार नहीं बना सकता। अब्दुल्ला का यही वो विष बुझा तीर था जो कश्मीर के सीने में लगा और देश के लिए नासूर बन गया। राज्य में उथल-पुथल शुरू हुई और यहीं से घाटी में आतंकवाद का भी दौर शुरू हुआ। जो राज्य से असंतुष्ट थे वे कांग्रेस में शामिल हो गए, जो कांग्रेस से असंतुष्ट थे वे नेशनल कांफ्रेंस में शामिल हो गए और जो दोनों से नाराज थे उन्हें पाकिस्तान ने बरगला कर दहशतगर्द बना दिया। पाकिस्तान के लिए यह भारत विरोधी गतिविधियां चलाने का उम्दा समय साबित हुआ जिसका फायदा उसने सिद्दत से उठाया। इधर 87 के चुनावों में जमकर धांधली हुई, जीतों को हारा घोषित किया गया और हारों को विजयी। मतदान केंद्रों पर एजेंटों की पिटाई हुई, पाकिस्तान से हथियार और फिजा बिगाडऩे वाले लोगों का निर्यात किया गया।हालात लगातार बदलते चले गए, कश्मीर में पाकिस्तानी फितरतें पसरती चलीं गईं और इस हद तक पसरी कि कभी जनमत संग्रह का विरोध करने वाला पाकिस्तान आज स्वयं जनमत संग्रह पर आमादा है, हालांकि अब वह पाक अधिकृत कश्मीर का जनमत संग्रह नहीं चाहता।कश्मीर की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है कश्मीर में जड़ें जमाने और जमाए रखने का द्वंद। कांग्रेस और भाजपा लाख प्रयासों के बावजूद यहां अपनी जमीन नहीं तलाश पाए उनके प्रयास लगातार जारी हैं और अब्दुल्ला परिवार को जब-जब लगता है कि उनके हिस्से में सेंध लगाई जा रही है वे स्वायत्ता का जिन्न जगा देते हैं। पिछली बार करीब 10 साल पहले इन्हीं दिनों फारूख अब्दुल्ला तब मुख्यमंत्री थे, स्वायत्ता का तूफान उठा था। 1998 में फारूख अब्दुल्ला सत्ता का स्वाद चखने के लिए उस भाजपा के साथ मिल गए थे जो सदा से धारा 370 और कश्मीर की सवायत्ता का विरोधी रही है। लेकिन यह ऐसा वक्त था जब कश्मीर को लेकर भाजपा की प्रतिबद्धता डिग रही थी। भाजपा के कुछ लोग विरोध में थे, लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री स्वायत्ता पर हुर्रियत से बातचीत को तैयार थे। दूसरी मजेदार बात यह कि स्वायत्ता संबंधी प्रस्ताव की रिपोर्ट 1999 में सौंपी गई थी जिसे 26 जून 2000 में पारित किया गया। तब कई राजनीतिक विश्लेषकों और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने शंका व्यक्त की थी कि यह सब भाजपा सरकार के अप्रत्यक्ष इशारों पर किया जा रहा है। हालांकि यह कारण भी संदेह के घेरे में था कि केंद्र सरकार द्वारा हुर्रियत नेताओं से बातचीत की और उनके लोगों की रिहाई की नीतियों से फारूख चौकन्ने हुए और उन्होंने यह दांव खेला है। आज पुन: दस साल पहले के हालात बने हैं। सरकार हुर्रियत से बात करना चाहती है और संविधान के अंदर कश्मीर को स्वायत्ता देना चाहती है, लेकिन फारूख अब्दुल्ला पूर्ण स्वायत्ता चाहते हैं। पूर्ण स्वायत्ता का अर्थ है कि कश्मीर में देश के संविधानसम्मत किसी भी कानून का लागू न होना, कश्मीर एक अलग तरह का राज्य अर्थात 1953 वाली स्थिति में पहुंच जाना। अपने स्वार्थ के लिए सियासतदां जन्नत को जहर पीने के लिए विवश कर रहे हैं। इसके पीछे गहरे षड्यंत्र हैं, खासतौर पर अब्दुल्ला परिवार के और कश्मीर के महाराज हरि सिंह के बंशजों के। हरि सिंह के पौत्र अजातशुत्रु सिंह अपने बाप-दादाओं की रियासत पर कभी राज नहीं कर सके। उनकी हार्दिक इच्छा है कि वे कश्मीर के मुख्यमंत्री बनें। इधर फारूख साहब के मन में कहीं न कहीं यह इच्छा दबी है कि वे कश्मीर को पाकिस्तान की गोद में डालकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। और अपने इस स्वार्थ के लिए वे कश्मीरियों को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचक रहे हैं। कश्मीर को यदि स्वायत्ता प्रदान कर दी जाती है तो सबसे पहला काम यही होगा कि पाकिस्तान में बैठे आतंकी अजगर कश्मीर को निगल जाएंगे। दुनिया का सबसे छोटा और कमजोर राज्य होगा जहां न तो आजीविका का कोई स्थाई साधन है और न ही सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त संसाधन।बेहतर हो कि सरकार प्रतिबद्धता दिखाए और बजाए इसके कि 370 व समान नागरिक संहित विपक्ष के मुद्दे हैं, कश्मीर को देश के अन्य राज्यों जैसा दर्जा दे। कश्मीर का आज 370 लागू होने के बाद कोई भला नहीं हुआ है, लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि पूरे देश के लोगों के लिए कश्मीर सुलभ कराने पर स्थिति में कुछ सुधार आए।

Monday, August 9, 2010

आयोग या सफेद हाथी

मध्यप्रदेश में वर्ष 2003 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद विभिन्न घटनाओं को लेकर गठित किए गए सात न्यायिक जांच आयोग में से तीन आयोग अनेक बार कार्यकाल बढ़ाए जाने के बावजूद अपनी रिपोर्ट शासन को नहीं सौंप पाए हैं, जबकि इन तीन आयोगों पर सरकार का 1 करोड़ 40 लाख रुपए से अधिक धन व्यय हो चुका है। हालांकि सरकारी खर्चे के हिसाब से यह राशि बहुत बड़ी नहीं है लेकिन जहां लाखों लोगों को दो जून की रोटी ठीक से नसीब न हो रही हो वहीं बिना किसी काम के चंद निठल्ले लोग सिर्फ जांच के नाम पर कागज काले करते रहें और सरकारी पैसा हजम करते रहें, वहां यह राशि बहुत बड़ी हो जाती है।जिन आयोगों ने शासन को अपनी रिपोर्ट नहीं सौंपी है उनमें 22 सितंबर 07 को रीवा स्थित जेपी सीमेंट फैक्ट्री परिसर में गोली चालन की घटना की जांच करने वाला आयोग, सामाजिक सुरक्षा पेंशन तथा राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना में अनियमितताओं के लिए गठित जांच आयोग और सरदार सरोवर परियोजना में फर्जी विक्रय पत्र तथा पुनर्वास स्थल अनियमितता संबंधी जांच आयोग शामिल है। तीन आयोगों में से जेपी सीमेंट की घटना की जांच के लिए आयोग का गठन 31 अक्टूबर 07, सामाजिक सुरक्षा पेंशन के लिए जांच आयोग आठ फरवरी 08 तथा सरदार सरोवर परियोजना के लिए आयोग का गठन आठ अक्टूबर 2008 को किया गया था। सर्वाधिक 98.88 लाख की राशि सरदार सरोवर परियोजना के लिए गठित जांच आयोग पर, जबकि 41.90 लाख रुपए की राशि सामाजिक सुरक्षा पेंशन के जांच आयोग और 3.17 लाख रुपए जेपी सीमेंट फैक्ट्री गोली कांड पर व्यय हो चुकी है।31 अक्टूबर 07 को जेपी सीमेंट गोली कांड मामले की जांच के लिए गठित आयोग का कार्यकाल चार बार, सामाजिक सुरक्षा पेंशन आयोग का कार्यकाल चार बार और सरदार सरोवर परियोजना में फर्जी विक्रय पत्र मामले की जांच के लिए गठित आयोग का कार्यकाल दो बार बढ़ाया जा चुका है। इसके पहले राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2004 के बाद 31 जनवरी 2004 को श्योपुर में डकैत मुठभेड़ में सहायक पुलिस निरीक्षक दिवारीलाल रावत की संदेहास्पद मृत्यु के मामले की जांच के लिए 31 मई 04 को गठित आयोग ने 25 जनवरी 2006 को अपनी जांच पूर्ण कर शासन को सौंप दी थी। इस आयोग के कार्यकाल में चार बार वृद्धि की गई और इस पर लगभग 12.50 लाख रुपए व्यय हुए।14 जुलाई 04 को उपायुक्त वाणिज्यकर आरके जैन की विशेष पुलिस स्थापना की अभिरक्षा में संदेहजनक मौत के मामले के लिए छह अगस्त को गठित जांच आयोग ने 30 अप्रेल 2009 को अपना प्रतिवेदन शासन को सौंपा और इसके कार्यकाल में दस बार वृद्धि की गई जबकि इस पर लगभग 4.40 लाख रुपए व्यय हुए।मुरैना जिले के पोरसा में चार सितंबर 09 को एक व्यक्ति की हिंसक घटनाओं में मृत्यु के बाद भीड़ पर पुलिस द्वारा किए गए बल प्रयोग मामले की जांच के लिए सात अक्टूबर गठित जांच आयोग ने 29 मई 2005 को अपनी जांच रिपोर्ट शासन को सौंपी। इस आयोग पर शासन के मात्र 52 हजार रुपए व्यय हुए जबकि इसके कार्यकाल में आठ बार वृद्धि की गई। उन्होंने बताया कि इसी प्रकार दतिया जिले में एक अक्टूबर 2006 को दुर्गा नवमी पर्व के दौरान सिंध नदी में तीर्थ यात्रियों के डूबने और लापता हो जाने के संबंध में 13 अक्टूबर को गठित जांच आयोग ही एक मात्र ऐसा आयोग रहा जिसके कार्यकाल में वृद्धि नहीं की गई और और इस आयोग ने 21 मार्च को अपना प्रतिवेदन शासन को सौंपा जबकि इस आयोग पर शासन का 1.98 लाख रुपए खर्च हुए। फिलहाल तीन आयोग जांच कार्य पूर्ण नहीं होने के कारण अपनी रिपोर्ट नहीं दे पाए हैं और अब देखना यह है कि यह अपनी रिपोर्ट कब तक शासन को सौंप पाएंगे। या फिर जांच के नाम पर सफेद हाथी बनकर माल हजम करते रहेंगे।

Monday, August 2, 2010

कहां मर गया मानव अधिकार....

नक्सलियों को खरोंच आ जाती है तो मानव अधिकार आयोग के पेट में दर्द होने लगता है...सोपेरा में उपद्रवी मारे जाते हैं तो इसके सीने पर छुरियां चल जाती हैं...यहां तक कि मुठभेड़ में मारे गिराए गए आतंकियों के मानव अधिकारों के लिए यह आयोग दौड़ पड़ता है, लेकिन देश में हर साल सैकड़ों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और मानव अधिकार आयोग के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। क्या किसानों के कोई मानव अधिकार नहीं है? भ्रष्टाचार, उपेक्षा, भेदभाव और तिरिस्कार के घोर तिमिर में सदियों से घिरा किसान 21वीं सदी में भी अपनी आर्थिक और समाजिक उन्नति की कल्पना भी नहीं कर पा रहा है, क्या मानव अधिकार आयोग को यह दिखाई नहीं देता। डेढ़ सेर अनाज के बदले में अपनी और बाल-बच्चों की जिंदगी पंडित की चाकरी में गुजार देने वाला किसान आज भी बैंकों और सहकारी सोसायटियों के मामूली से कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहा है। महाराष्ट्र जैसे राय में साहूकार मामूली सा कर्ज देकर किसानों से उनकी बहू-बेटियों की मांग करते हैं, इन घटनाओं पर क्यों मानव अधिकार आयोग की जुबान सिल जाती है। किसानों के मामले में केवल मानव अधिकार आयोग ही नहीं समाज, सरकार और मीडिया का रवैया भी दोगला है। जिस दिन लोकसभा में कृषि मंत्री शरद पवार बड़ी बेशर्मी से यह स्वीकार कर रहे थे कि महाराष्ट्र में में 2010 के पहले सात महीनों में ही 131, कर्नाटक में 81, आंध्र प्रदेश में 7, पंजाब में 5 और उड़ीसा से आठ किसानों द्वारा आत्महत्या की हैं, उस पूरे दिन को देश का समूचा इलेक्ट्रानिक मीडिया डिंपी की पिटाई और राहुल महाजन की अय्याशी की तस्वीरें दिखा रहा था। महाजन परिवार की दो कोड़ी की हरकतों को मीडिया ने राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाकर पेश किया। कभी इतनी बड़ी कवरेज देश के अन्नदाता को किसी मीडिया समूह ने नहीं दी, जितनी राहुल के स्वयंवर और अब छिछोरेपन को दी। जनता भी यही देखना अधिक पसंद करती है। जेठ मास की गर्मी, सावन-भादौं की वर्षा और पूस की सर्दी में किसान की खुल देह आम आदमी के मन में उतनी संवेदना उत्पन्न नहीं करती, जितना डिंपी की जांघ के नीचे बना निशान। बहरहाल अन्नदाता की उपेक्षा और तिरिस्कार का सदियों से चला आ रहा यह सिलसिला कब थमेगा यह तो पता नहीं लेकिन सब्र का बांध जिस दिन टूटेगा उस दिन चित्र भयावह होगा।

Sunday, July 25, 2010

मजबूर प्रधानमंत्री, कमजोर सरकार

महंगाई के सामने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी यूपीए सरकार ने घुटने टेक दिए। प्रधानमंत्री ने बिना किसी लाग लपेट के कह दिया कि यदि पानी बरसा तो दिसंबर तक महंगाई घटेगी वरना मुश्किल है। यह पहली बार नहीं है जब मनमोहन सिंह जी ने ऐसी हताशा भरी बातें की हैं। इससे पहले भी गरीबों को बचाने की एक सीमा होने का बयान दे चुके हैं। पीएम की इस शर्मनाक बयानी को जनता अपनी नियति मानकर ओढ़ भी लेगी लेकिन आंकड़ेबाज प्रधानमंत्री अपने कलेजे पर हाथ रखकर बताएं कि धन्नासेठों की तरक्की की सीमा क्या मानते हैं? क्यों नहीं तेल कंपनियों की लाभ-हानि को भगवान भरोसे छोड़ दिया, जिस प्रकार महंगाई पर लगाम भगवान के भरोसे छोड़ दी।शास्त्र कहते हैं ऐसे राजा के विषय में दुख करना चाहिए जो नीति न जानता हो और जिसे अपनी प्रजा प्राणों के समान प्रिय न हो। और ऐसा राजा नरक का अधिकारी होता है। शास्त्र कहते हैं जो राजा प्रजापालन में सक्षम न हो उसे राज करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन धन्य हो आधुनिक राजाओ, तुम्हें तो लज्जा भी नहीं आती। यह कितनी शर्मनाक स्वीकारोक्ति है कि हमने गरीबों को बचाने का भरसक प्रयास किया लेकिन इसकी भी कोई सीमा होती है। और कितना बड़ा धोखा है, जनता को महंगाई की आग में झोंककर उसे भगवान भरोसे छोडऩे का। क्या किसी भी देश के मुखिया के ऐसे बचन कभी सुनने को मिले हैं? लानत है ऐसे प्रजापालक पर जो अपने देशवासियों को भगवान भरोसे छोड़कर चैन की सांस लेने का विचार मन में लाता है। क्यों इन्हें शर्म नहीं आती कि देश की तरक्की के नाम पर करों का बोझ जनता पर लादने से, कंपनियों को घाटे के नाम पर आवश्यक वस्तुएं महंगी करने से एक ओर गरीब आदमी की पीठ और पेट के बीच अंतर खत्म होता जा रहा है, दूसरी ओर तमाम रियायतें पाकर धन्नासेठों की तोंद फूल रही है, उनकी तिजोरियां निरंतर बड़ी होती जा रही हैं। तमाम रईस पोषित योजनाओं में धन खपाने और ऐसे रईसों को रियाततें बंद करने के बजाये मनमोहन सरकार गरीबों को भगवान भरोसे छोड़ रही है। क्या सिर्फ इसलिए कि योजनाएं बंद होंगी तो कमीशन बंद हो जायेगा? धन्ना सेठों को रियायतें नहीं मिलेंगीं तो चुनावी फंड बंद हो जायेगा? मशीनें बंद हो जायेंगीं, कारखाने बंद हो जायेंगे? विद्वान अर्थशास्त्री जी वैसे भी यह तभी तक गतिमान रहेगा, इन सबका तभी तक कोई मतलब रहेगा जब तक गरीब जिंदा है, जिस दिन गरीब खत्म हो जायेगा, उस दिन सब कुछ खत्म हो जायेगा। सारे विकल्पों को नजरअंदाज करके ईंधन में मूल्यवृद्धि की आग लगाकर आपने नीयत साफ कर दी है तो भविष्य में नतीजे के लिए भी तैयार रहिए। हर आदमी की जुबां पर बस यही बात है कि कांग्रेस का हाथ, महंगाई के साथ...।

Saturday, July 24, 2010

खादी, खाकी और खरदूषण

बिहार विधानसभा में जूते-चप्पल चल रहे हैं, गुजरात में दो माननीय सरेआम मंच पर गाली गलौच कर रहे हैं। गुजरात के ही गृह राज्यमंत्री फर्जी मुठभेड़ कांड में फंसे हैं। संस्कारों और सुचिता का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टी के सर्वेसर्वा दूसरी पार्टी के नेताओं को कुत्ते की दुम बताते हैं तो कभी औरंगजेब की औलाद। जनता के नुमाइंदे हत्या करवा रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं, गुंडागर्दी कर रहे हैं। जब इनका आचरण ऐसा है तो फिर इसमें कैसा आश्चर्य कि आने वाली राजनीतिक नस्ल संस्कारहीन और खून से सने हाथों वाली होगी।बिहार में जब विधायक बेहयाई से लोकतंत्र की लाज तार-तार कर रहे थे, उसी वक्त गुजरात में राहुल गांधी के चुने हुए छात्र नेता भारतीय संस्कारों की धज्जियां उड़ा रहे थे। बिहार में सड़कछाप छिछोरों की तरह गालियां दी जा रहीं थीं और गुजरात में एनएसयूआई के नेता एक पिता की उम्र के बुजुर्ग को न केवल पीट रहे थे बल्कि सड़क पर गिराकर उन्हें लातों से मार रहे थे। उन बुजुर्ग की किस बात पर इन यवुाओं का पौरुष आंदोलित हो उठा पता नहीं, लेकिन इन्होंने उज्जैन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र नेताओं की गुंडागर्दी की स्मृति ताजा कर दी जिसमें प्रोफेसर सबरबाल की मौत हो गई थी। दरअसल संख्याबल से मिलने वाली सत्ता और उस पर जनता की बेवसी की मुहर ने राजनीति को प्रदूषित कर दिया है। तमाम राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने खेमे में धनबलियों और बाहुबलियों का जमघट लगा रखा है, जिन पर हत्या, बलात्कार, रंगदारी जैसे संगीन अपराधों के मामले दर्ज हैं। गवाह सबूत भले ही चीख-चीखकर इनके गुनाहों की कहानी सुनाएं लेकिन सियासी जोड़तोड़ और खाकी बर्दी की मदद, कानून की किताबों में लिखी धाराओं के बीच की जगह से इन्हें बचा ले जाती है। खादी, खाकी और खरदूषणों का ऐसा खलनायक तंत्र लोकतंत्र के मंदिर अपनी जड़ें जमा चुका है जिसने समाजसेवा की उर्वरा भूमि को बंजर कर दिया। अब यहां या तो अपराध के नागफनी पनपते हैं या फिर वे अमरबेलें हैं जो अपने बाप-दादाओं के कंधों पर सवार होकर फलफूल रही हैं। जिनका न तो राजनीति से कोई लेना-देना है और न ही समाजसेवा से कोई सरोकार। इसलिए बिहार जैसे वाकये सामने आते हैं।सवाल यह है कि क्या दृश्य कभी बदलेगा? अगर ईमानदार प्रयास हों तो जरूर बदल सकता है, क्योंकि राजनीति और अपराध के गठजोड़ के लिए जितनी जिम्मेदार सियासी पार्टियां हैं, उतने ही जिम्मेदार हम हैं। हमारे ही एक-एक वोट से अपराधी और गुंडा किस्म के लोग संसद तक पहुंचे हैं। हमारा मानस हमेशा इनके विरोध में रहा है, लेकिन विकल्पहीनता की स्थिति में हमने उस अधिकार का प्रयोग नहीं किया जिसमें अपना वोट किसी भी पक्ष में नहीं डाला जाता। हालांकि इसका एक कारण हर आदमी का कानूनी पेचेदगियों से परिचित न होना भी है, लेकिन यह सत्य है कि हमने गलत का कभी मुखर विरोध नहीं किया। जब मैं कह रहा हूं कि हमने, तो यहां मतलब एक-एक व्यक्ति से नहीं है, बल्कि उन लोगों से है जो विरोध करने में समर्थ हैं, जिनकी देश में व्यापक अपील है, जनता जिनका अनुशरण कर सकती थी।मैं बहुत पीछे नहीं जाऊंगा, अभी हाल ही की कुछ घटनाएं उदाहरण स्वरूप सबके सामने हैं। ठाकरे खानदान में मुंबई पर अपनी बापौती जमाई और उत्तरप्रदेश, बिहार की जनता तथा तमाम नेताओं का अपमान किया। पूरे देश में इसका व्यापक विरोध होना चाहिए था, लेकिन सियासी कारणों से किसी का मुंह नहीं खुला। इसमें तीन नाम ऐसे हैं, जो न केवल शक्ति संपन्न थे बल्कि इनके इशारे मात्र पर देश की जनता, ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी को जमींदोज कर देती। सरकार को मजबूरन ठाकरों पर कार्रवाई करनी पड़ती। लेकिन विवादों से परे रहने के आदि हमारे इन सम्मानितों ने मनसे और शिवसेना की विघटनकारी और देशद्रोही गतिविधियों से खुद को दूर रखा।सबसे पहला नाम सदी के महानायक शहंशाह अमिताभ बच्चन। राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों बनाम मुंबईकरों की जंग की शुरूआत यहीं से की थी। उन्होंने अमिताभ को भला-बुरा कहा, जया बच्चन को जरूर बुरा लगा, लेकिन पूरी दुनिया जिस आवाज का लोहा मानती है वह जुबान राज ठाकरे के सामने झुक गई।फिर शिवसेना के निशाने पर आए भारत के सबसे बड़े उद्योपति मुकेश अंबानी। मुकेश अंबानी यदि कड़ा रुख अपनाते तो सरकार के हाथपांव फूल जाते लेकिन वे भी विवादों से परे रहे। फिर इन चचा-भतीजे के निशाने पर आया ऐसा सख्श जिसकी एक आवाज पर जनता ठाकरे परिवार तो क्या देश के किसी भी कौने में किसी भी सरकार या संगठन की ईंट से ईंट बजा देती। लेकिन हरदिल अजीज यह इंसान भी किसी विवाद में नहीं पडऩा चाहता था। इसलिए इसने ठाकरे की घुड़की चुपचाप बर्दाश्त कर ली। यह व्यक्ति था क्रिकेट का भगवान सचिन तेंदुलकर। मीडिया ने सचिन पर ठाकरे की टिप्पणी को जमकर उठाया था और ठाकरे की आलोचना की थी, लेकिन सादगी पसंद सचिन ने एक शब्द नहीं बोला।इन विभूतियों के उदाहरणों का मतलब यह नहीं कि यह उठें और जनता के साथ मशाल लेकर कोई विरोध जुलूस निकालें। तात्पर्य यह है कि इस हैसियत का आदमी यदि किसी बात का विरोध करता है तो टुकड़ों में बंटी जनता एकजुट होकर उसका अनुशरण करती है। ये देश के वास्तवकि नायक हैं। जब यही लोग गलत बात को चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे तो आम आदमी जिसकी कोई सुनने वाला नहीं, विरोध करके क्या उखाड़ लेगा। उसे पांच साल में एक बार वोट देना है, अपराधी डराकर ले लेते हैं, कुटिल झूठ बोलकर संसद पहुंच जाते हैं, फिर कोई सुपारी देता है, कोई गाली देता है और लोकतंत्र शर्मशार होता है।

Sunday, July 18, 2010

कुत्ते की पूछ और पाकिस्तान

कुत्ते की पूछ और पाकिस्तान एक समान है, न पूंछ कभी सीधी होती है और न ही पाकिस्तान कभी अपनी ओछी हरकतों से बाज आता है। कुत्ते की पूछ की कुछ खासियतें होती हैं, मालिक के सामने होगा तो हिलाता रहेगा, ताकतवर के सामने होगा तो दिखेगी भी नहीं कि कहां घुस गई और जब अपने साथियों के साथ होगा तो पूछ एकदम तनी होती है। अमेरिका और चीन के सामने पाकिस्तान की पूछ हमेशा हिलती रहती है। इस अदा के कारण उसे रोटी का टुकड़ा भी मिल जाता है और कभी-कभी मालिक को फुसला भी लेता है। मसलन यदि अमेरिका ने कहा कि अब यहां हमले हुए तो पाकिस्तान भुगतेगा, पाक ने कहा जी हुजूर, उसने कहा फलां आदमी हमारे यहां अपराध करके गया है, पाक ने पकड़कर दे दिया, लेकिन जब अमेरिका कहता है लादेन पाकिस्तान में है तो कह देता है हुजूर मैं तो आपका गुलाम हूं कसम खाता हूं लादेन यहां नहीं है। चीन के सामने भी उसके यही हाल हैं। चीन और अमेरिका दोनों को पूछ हिला-हिला कर बेवकूफ बना रहा है। अमेरिका से पैसा ले रहा है और चीन से हथियार। अमेरिका को चीन पर नजर रखने के लिए एक कुत्ता चाहिए और चीन को भारत के खिलाफ एक मोहरा चाहिए। पाकिस्तान दोनों में राजी है। रोटी तो मिल रही है, मालिक कहे छू तो केवल गुर्राना ही तो है।मुंबई हमलों में घिरने के बाद यही पूछ टांगों के बीच छिप गई थी। तब न तो चीन कुछ बोल रहा था न अमेरिका। सभी ने मिलकर मुंबई हमले की निंदा की और पाकिस्तान से दोषियों पर कार्रवाई करने को कहा था। अकेला पड़ गया था, कूं-कूं करने लगा, वार्ता से समस्या का हल निकलेगा, इस तरह आतंकियों को मौका मिलेगा। समय बीतता गया और साथियों का दबाव कम हुआ, चीन के साथ परमाणु करार हो गया और अमेरिका ने फिर से टुकड़े फेंक दिए तो स्थिति क्या है, हमें वार्ता की जल्दबाजी नहीं है, जब वे पूरी तरह तैयार होंगे हम बात कर लेंगे। यह गुर्राहट शाह महमूद कुरैशी की नहीं है, आकाओं की ओर से मिली छूट और हरदम जूते मारने को तैयार रहने वाली पाकिस्तानी फौज और आईएसआई का भय है। इसका नमूना देख लीजिए सेना प्रमुख कियानी और आईएसआई चीफ शूजा पासा के कहने पर पहले कुरैशी ने अकड़ दिखाई, दूसरे दिन कहा कि हम भारत तभी जाएंगे जब वार्ता का सकरात्मक हल निकलेगा। इसी बीच अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पाकिस्तान पहुंच गईं, उन्होंने कान में मंतर फूंका होगा ज्यादा गुर्राओ मत औकात में रहो, तब बयान आया कि हमने कभी नहीं कहा कि भारतीय विदेश मंत्री ने वार्ता के दौरान दिल्ली फोन पर बात की। उनके अफसर कर रहे थे। यशवंत सिन्हा ने ठीक कहा, इस आदमी में विदेश मंत्री होने के गुण नहीं है। जिस आदमी को यह पता न हो कि प्रतिनिधिमंडल निरंतर अपनी सरकार के संपर्क में रहता ही है, यह एक सामान्य प्रक्रिया है उसे विदेश मंत्री बना किसने बना दिया।

Wednesday, July 14, 2010

खंड-खंड पाखंड

भाजपा में जितनी खलबली उमा भारती के पार्टी में रहते थी, उतनी ही हलचल उनके पार्टी से बाहर रहने पर है। आधे नेता चाहते हैं कि उनकी घर वापसी होनी चाहिए और आधे कहते हैं उमा बाहर ही बेहतर हैं। पार्टी के इन अंतर्विरोधों के कारण उमा भारती भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए परेशानी का सबब बन गई हैं।कौन पक्ष में है और कौन विपक्ष में इस पर मत जाइए, पाखंड को खंड-खंड होते देखिए। जिनका दीदी से स्वार्थ सधता है, जो उमा का आर्शीवाद चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उमा भारती वापस घर आ जाएं और जिन्हें लगता है कि साध्वी का साथ उनके लिए सन्यास का मार्ग प्रशस्त कर देगा वे चाहते हैं उमा बाहर ही रहें तो बेहतर होगा।कैलाश विजयवर्गीय की देखरेख में सिंहस्थ के लिए सड़कें बनीं थीं। पता चला था कि इन सड़कों पर डामर की जगह टायर जलाकर बिछा दिए गए थे जो पहली ही बारिश में पूरी तरह बह गए। इस समय उमा भारती मप्र की मुख्यमंत्री थीं, हल्ला तो हुआ था पर कार्रवाई क्या हुई आज तक पता नहीं। आज सिंहस्थ घोटाले को लोग भूल चुके हैं, लेकिन विजयवर्गीय को अहसान याद है, वे चाहते हैं कि उमा भारती वापस आ जाएं। दीदी ने इतने बड़े घोटाले पर पर्दा डाल दिया और शिवराज इंदौर की मामूली सी हरकत को दबाने में नाकाम साबित हो रहे हैं।हुबली में तिरंगा फहराने के विवाद पर कुर्सी छोड़ते वक्त उमाजी ने बाबूलाल गौर पर भरोसा जताया था। लेकिन जब वे वापस आईं तो गौर साहब कुर्सी छोडऩे को तैयार नहीं थे। इस खींचतान का नतीजा शिवराज सिंह चौहान के पक्ष में गया। केंद्रीय नेताओं के बीच पैठ रखने वाले कुछ साथियों ने उमा का पत्ता साफ करा दिया। गौर साहब अब चाहते हैं कि उमाजी की वापसी यदि होती भी है तो कम से कम उनके साथ धोखेबाज जैसा व्यवहार न हो, इसलिए वे उंगली कटाकर शहीद होना चाहते हैं।शिवराज सिंह चौहान, अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। यदि उमा भारती पार्टी में वापस आईं और उन्होंने मध्यप्रदेश की मांग की तो सबसे पहली गाज शिवराज सिंह चौहान पर गिरनी है। स्वभाव के अनुरूप वे किसी और का दखल अपने काम में बर्दाश्त नहीं करेंगीं, लिहाजा अनंत कुमार को मप्र से जाना होगा। सुषमा स्वराज के मुकाबले की पार्टी में कोई दूसरी महिला नेत्री नहीं है, उमा के आने से सुषमा का वजन कम होना तय है और अरुण जेटली की रणनीति में उमा का आक्रमण शामिल करना पार्टी की मजबूरी होगी। लिहाजा यह नेता कतई नहीं चाहते कि उमा की वापसी हो।अब इतने सारे और बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी उमा प्रकरण को जिंदा क्यों रखे है। भाजपा और संघ की यह शाश्वत विवशता है कि पार्टी में हमेशा ऐसे नेताओं की कमी रही है, जिसकी देश में व्यापक अपील हो और आम आदमी में जिसके प्रति सहज आकर्षण हो। अटल-आडवाणी युग में अटल भाजपा और संघ की मजबूरी रहे। कई ऐसे मौके आए जब अटल ने संघ और भाजपा को आइना दिखाया। आडवाणी से उनके मतभेद भी उभरते रहे, लेकिन पार्टी के वे एक मात्र ऐसे नेता थे जिनकी जनता के बीच व्यापक पहुंच थी। अब वह स्थान रिक्त हो गया है। आडवाणी का प्रयास पिछले आम चुनाव में विफल हो चुका है। पार्टी को ऐसा कोई और चेहरा नजर नहीं आता जिसे जनता के बीच भेजा जा सके। हालांकि नरेंद्र मोदी पार्टी के देशव्यापी चर्चित नेता हैं, लेकिन उनकी छवि सर्वमान्य नहीं है। सुषमा, जेटली, नायडू, कुमार यह सब क्षेत्र विशेष तक सीमित हैं। लिहाजा पार्टी को एक ऐसे चेहरे की जरूरत है जो भले ही वोट न कमा सके पर कम से कम जनता उसे सुने तो। उमा भारती में यह कौशल है और पार्टी इसे भुनाना चाहती है। लेकिन उमा अकेले ही भाड़ नहीं फोड़ सकतीं इसलिए उन्हें भी साधना जरूरी है जो क्षेत्र विशेष में वर्चस्व रखते हैं। और इसी स्वार्थ में पार्टी का सत्यानाश हुआ जा रहा है।

Monday, July 12, 2010

बदलनी होगी सफलता की परिभाषा

हत्या, लूट, बलात्कार, चोरी, डकैती, ब्लैक मेलिंग हर तरह के अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और इस पर लगाम लगने की कोई सूरत फिलहाल तो नजर नहीं आती। निश्चित रूप से यह चिंताजनक है, लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक है अपराध के दलदल में ऐसे लोगों का धंसना जो न तो पेशेवर अपराधी हैं और न ही अपराध करना उनके लिए कोई मजबूरी है, केवल अपने अहंकार की तुष्टि के लिए वे संगीन अपराध कर जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो उच्च वर्ग से प्रभावित होकर, उनके जैसा दिखने, रहने और करने के लिए अपराध की दुनिया को अंगीकार कर लेते हैं। प्रेम संबंधों में विफलता, अति उत्साह में तेज वाहन चलाना, सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन, मस्ती में छेड़छाड़ और प्रतिरोध करने पर आवेश अथवा अपमान बोध से इनके हाथों गंभीर अपराध अंजाम पा जाता है। इनकी एक लंबी फेहरिस्त है, जिसमें लगातार इजाफा हो रहा है।सवाल उठता है क्यों...इनके पास पर्याप्त आर्थिक समृद्धि है और सामाजिक सम्मान भी, यह अपराध करने के लिए मजबूर नहीं हैं, फिर भी शहरी क्षेत्र में घटने वाले अधिकांश अपराधों में इनका हाथ क्यों। गहराई से देखें तो इसके पीछे संस्कारहीनता और अहंकार है, जो इन्हें अपनी मर्जी के खिलाफ कुछ भी बर्दास्त नहीं करने देता। ये अपनी मर्जी से संचालित होते हैं, कोई क्या कर लेगा का गुमान हमेशा उनके चेहरे और व्यवहार में झलकता है, आम तौर पर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इसमें इनका दोष नहीं है, समाज ने ही इस तरह के व्यवहार, समृद्धि, ताकत, जोड़तोड़ की राजनीति और चालाकी को सफलता का पैमाना स्वीकार कर लिया है। और कोई असफलता का दाग अपने दामन पर लगना बर्दाश्त नहीं करता। हमारे बीच कुसंस्कारों को कामयाबी मानने वाला भी एक समाज है, जिसने अपना अलग संसार बसा रखा है, हम उसे इस रूप में स्वीकार नहीं करते बल्कि इस रूप में देखते हैं कि वे समाज से अलग हैं, कुछ विशेष हैं। यही सोच उनके अहंकार को पोषित करती है और उनकी औलादें निरंकुश हो जाती हैं।इसमें इनका कोई दोष नहीं है जब वे अपने आसपास के माहौल को, अपने मां-बाप को किसी आदर्श से संचालित नहीं देखते, उन्हें किसी नैतिकता का पालन करते नहीं देखते, उन्हें मर्यादित आचरण करता हुआ नहीं पाते तो फिर वे और क्या करें। जो लोग अपनी तिकड़म से, रुतबे से, अपराधियों का सहारा लेकर बढ़ाए गए बाहुबल से अपना धन संसार रचते हैं, उनके बच्चों के इर्द-गिर्द भी एक भौतिक हवस का संसार अपने आप बस जाता है। फिर लड़के आलीशान मकान चाहते हैं, एक लग्जरी कार, उसमें उसमें उनके साथ बैठने के लिए एक लड़की चाहते हैं और महफिल में उनके सामने जीहुजूरी करने वाले चार शोहदे भी चाहते हैं। लड़कियों का हाल भी इससे जुदा नहीं होता उन्हें शॉपिंग की आजादी चाहिए, जागरूकता और आधुनिकता के नाम पर समय-असमय घूमने की आजादी चाहिए, कम से कम एक ब्वाय फ्रेंड तो होना ही चाहिए जिसके साथ वे डिस्को पार्टी में जाकर थिरक सकें। जब उनके सामने सफलता के मायने ज्यादा से ज्यादा धन और ज्यादा से ज्यादा रोब-रुतबे के रूप में प्रस्तुत किए जाएंगे तो फिर वे और क्या करेंगे। जब उन्हें पता होगा कि उनके आसपास के माहौल में सही को गलत और गलत को सही कैसे बनाया जाता है, कानून को अपने पक्ष में कैसे किया जाता है, पुलिस और न्याय को कैसे खरीदा जाता है, बड़े से बड़े अपराध करके कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है तो फिर वे किस बात से डरेंगे।इसका मतलब यह नहीं कि अच्छे लोग नहीं हैं आज भी बहुत से तबकों के लोग ईमानदार हैं लेकिन इनकी बात कोई नहीं सुनता, कोई इनकी तारीफ नहीं करता। इनकी तुलना में उनकी बात को अधिक महत्व दिया जाता है जिनके पास सत्ता और शक्ति है। अगर इन परिस्थितियों से निपटना है तो सबसे पहले सफलता की परिभाषा बदलनी होगी। जो रौब-रुतबे, शक्ति और समृद्धि की नहीं, उच्च विचारों, संस्कारों और उच्च आदर्शों की होगी। बिगड़ेल औलादों और स्वयं के बेलगाम और बेशर्म विचारों पर तहजीब का अंकुश लगाना होगा।

Friday, July 9, 2010

निर्लज्जता का नायाब नमूना

बयानों की चिंगारी से समय-समय पर महंगाई की आग भड़काने वाले खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री शरद पवार ने शक्कर को नियंत्रण मुक्त करने की वकालत करके यह सिद्ध कर दिया कि उनके रहते यदि महंगाई खुद भी घटना चाहे तो घट नहीं सकती। निर्लज्जता का इससे नायाब नमूना भारत के अलावा कहीं और नहीं मिलेगा। पहले पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे की चिंता हुई थी, उन्होंने लगातार प्रयास करके पेट्रोल, डीजल, गैस, केरोसिन के दाम बढ़वा दिए और अब शरद पवार को चीनी मिलों की चिंता हो रही है। पवार को लगता है कि पैट्रोल की तरह शक्कर को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर देना चाहिए ताकि बाजार में कितनी शक्कर आनी है यह चीनी मिलें तय कर सकें। ऐसा करने से चीनी मिलों को नुकसान से बचाया जा सकेगा। इस तरह का प्रस्ताव उनका मंत्रालय जल्द ही कैबिनेट को भेजने वाला और उनकी सलाह मानी गई तो इसका फैसला अगस्त तक आ जाएगा। यदि फैसला पवार की मंशा के अनुरूप होता है तो शक्कर का महंगा होना तय है। जनता को इससे बेशक तकलीफ होगी पर शरद पवार को फायदा होगा। सीधे शब्दों में कहें तो शक्कर पर शरद का एक हिसाब से कब्जा हो जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो शक्कर सोना हो जाएगी।दरअसल महाराष्ट्र की सुगर लॉबी पर शरद पवार का कब्जा है। पवार की इच्छा के बिना यहां पत्ता भी नहीं हिलता। तीन साल पहले का बाकया याद करें महाराष्ट्र को छोड़कर सारे देश में शक्कर के दाम बढ़ रहे थे। क्योंकि यहां की सुगर मिलों ने गन्ना कम मिलने का बहाना बनाकर शक्कर कम जारी की थी, इधर पवार के बयानों से संकेत मिलने के बाद बड़े-बड़े व्यापारियों ने शक्कर की जमाखोरी शुरू कर दी और 20 रुपए किलो मिलने वाली शक्कर अचानक 40 रुपए किलो जा पहुंची थी। अब चूंकि शक्कर 30 रुपए के आसपास है पवार को यह बात बर्दाश्त नहीं हो रही है, इसलिए उन्हें कंपनियों के घाटे की चिंता सताने लगी।पवार साहब आप वर्षों से किसानों के मंत्री हैं, क्या उनकी कभी ऐसी चिंता की है। क्या कभी विचार किया कि क्यों न फसल के मूल्य निर्धारण का अधिकार किसानों को दे दिया जाए, जिन गन्ना किसानों की मेहनत से सुगर मिलों के पहिए घूमते हैं, वे भी घाटे में हैं। खेत जोतने-बखरने से लेकर फसल को खलिहान तक लाने में किसान का जो श्रम और लागत लगती है, कभी उसका हिसाब लगाया है। कितने किसानों के गन्ने का पैसा सुगर मिलों में अब तक अटका पड़ा है, कभी दिलाने का प्रयास किया है, नहीं किया है। बावजूद इसके किसान सबसे अधिक रिस्क उठाकर फसल तैयार करता है और बाद में घाटे का सौदा करता है। शर्म से ढूब मरना चाहिए सरकार को और कंपनियों को। शुक्र है कि देश का किसान कंपनियों की तरह चालाक नहीं है, कंपनी कर्मचारियों की तरह हड़ताल नहीं करता वरना मात्र एक साल की हड़ताल से सरकार, कंपनियों और किसानों चूसने वाले धन्नासेठों की अकल ठिकाने पर आ जाए।

Tuesday, June 29, 2010

समृद्ध दिख रहे देश के भूखे देशवासियों

माननीय मनमोहन सिंह जी
प्रधानमंत्री भारत
समृद्ध दिख रहे देश के भूखे देशवासियों का प्रणाम।
आगे समाचार यह है कि आर्थिक मामलों के मंत्री समूह के निर्णय और किरीट पारिख समिति के कुठाराघात से हम सपरिवार संताप झेल रहे हैं लेकिन इस बात का पूरा विश्वास है कि आप अपनी सरकार के मंत्रियों, घटक सहयोगियों के साथ प्रसन्न चित्त और सेहतमंद होंगे। कनाडा में जब दुनिया के दरोगा ने कहा कि मनमोहन सिंह बोलते हैं तो दुनिया सुनती है, यकीन जानिए हमारा सीना चौड़ा हो गया।
देश में चौतरफा आपकी दूरदर्शिता और वचनबद्धता की जय जयकार हो रही है। अपने बचन पर दृढ़ रहते हुए आपने पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन और रसोई गैस के भाव बढ़ाकर देशावासियों को जो संताप दिया है उसके लिए विपक्ष आपका हृदय से आभारी है, यह और बात है कि वह इसके लिए आपको सार्वजनिक रूप से धन्यवाद ज्ञापित नहीं कर पा रहा है। आपने उसे जनता के आंसुओं से अपनी सूखती राजनीति को सींचने का भरपूर मौका दिया है और कोशिश कर रहा है कि अगले आम चुनाव में वोटों की अच्छी फसल काट सके।
आपका गरीबी हटाओ अभियान भी पूर्णत: सार्थक हो रहा है। गरीब धीरे-धीरे से भारत भूमि से घट रहे हैं, नए गरीब उनकी जगह ले रहे हैं। यह विशेष चिंता की बात नहीं, जिस प्रकार आर्थिक नीतियों के हवन कुड में 'दैहिक आहुतियांÓ दी जा रहीं हैं जल्द ही गरीब खत्म हो जाएंगे। अभी कल ही आपके गरीब हटाओ अभियान के सम्मान में रामसुख की घरवाली पुनिया ने आत्महत्या कर ली है, रामसुख की देह देखकर पता लगाना कठिन हो चला है कि उसका पेट किस तरफ है। बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, पूरा का पूरा परिवार चंद दिनों में धरती से विदा हो जाएगा।
दीनदयाल किसान के भी यही हाल हैं। पिछले साल कर्ज लेकर किसानी की थी, पानी नहीं मिला सो फसल सूख गई और अब खाना न मिलने से वह भी सूखता जा रहा है। बच्चे को हफ्तों से दूध नहीं मिला है, क्योंकि सुखिया का आंचल फांके काटते-काटते सूख गया है, गाय-भैंस का दूध खरीदने की औकात नहीं है। फूलवती के जीवन के फूल मुरझा गए हैं। शादी तो कबकी तय हो चुकी है, लेकिन लोकरीति निभाने लायक भी उसका बाप पैसा नहीं जोड़ पा रहा है। लड़के वालों ने कह दिया है यदि जल्द विवाह न हुआ तो फिर रिश्ता खत्म ही समझो।
नामुराद चुन्नीलाल की सभी औलातों ने पढ़ाई छोड़कर आपके शिक्षा के अधिकार कानून को अपने हाथ में ले लिया है। बताते हैं कि 50-60 साल पहले एक प्रायमरी स्कूल उनके गांव में बना था, जहां पांचवें दर्ज तक पढ़ाई होती है। इसके बाद पढऩे के लिए उन्हें गांव से कोई 10 किलोमीटर पढऩे जाना पड़ता है। जितनी देर पढ़ते नहीं हैं उतनी देर सफर करना पड़ता है। फिर महंगाई के मारे परिवार का गुजारा भी एक आदमी से नहीं हो रहा है, इसलिए सभी बच्चे अब कोई न कोई काम करेंगे और परिवार की माली हालत सुधारने की कोशिश करेंगे। हां परमलाल का लड़का जरूर शहर के किसी अच्छे स्कूल में पढऩा चाहता था, लेकिन वहां की फीस चुका पाना उसके परदादा के भी बस में नहीं है, इसलिए उसने भी अभी से कुछ काम धंधे की जुगाड़ शुरू कर दी है।
एक और अच्छी खबर है। आपकी इच्छामात्र से उत्पन्न महंगाई के दैत्य ने गणपत की संतान को जन्म लेते ही लील लिया। गणपत की घरवाली बच्ची को जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गई और थोड़ी देर में बच्ची भी मां के साथ चल दी। बताते हैं कि डॉक्टरों ने उसे जो दवाएं और जैसा खाने को कहा था वैसा उसके पूरे खानदान की कमाई मिलाकर भी नहीं मिला। रात को दर्द हुआ था, सुबह तक गणपत एंबुलेंस का इंतजार करता रहा, जब नहीं आई तो टोनी भाई की कार मांगी, उन्होंने पेट्रोल डीजल के महंगे होने का रोना रो दिया और जो किराया मांगा वह गणपत दे नहीं सका।
हां टोनी भाई दुखी हैं, बेशर्म पार्टी के कार्यकर्ता हैं, साइकिल की दुकान खोलने की सोच रहे हैं। उनका विचार है कि डॉक्टर साहब तेल का दाम कुछ और बढ़ाते तो नए धंधे के चलने में संसय न रह जाता। फिर भी कह रहे थे, ससुरे बहुत फटफटिया चलाते थे, सरदार जी ने ला दिया औकात में। सीताशरण भैया भी सेहतमंद हैं, तोंद दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, गांव के राशन की दुकान उनके नाम से है और अब वार्ड मेम्वरी का चुनाव लडऩे का विचार कर रहे हैं, सो राशन में जमकर घालमेल चल रहा है। पारिख साहब की समिति ने कैरोसिन का कोटा कम करने की सिफारिश की थी, बस यही रंह है कि उनकी यह मुराद आपने पूरी नहीं की। हालांकि संतोष है कि उन्होंने तभी से तेल जमा करके रखा है। पूरी प्लानिंग की है, किसको कितना देना है। मोटर-गाड़ी की सूची अलग है और गरीब-गुरवों की अलग। ब्लैक का कोटा तो तहखाने में छिपाकर रखा है इसकी किसी को जानकारी नहीं।
दीनू जरूर कुछ परेशान सा दिख रहा था। अम्मा रोज गरियाती है, क्या कर लिया पढ़लिख कर, काम का रहा न काज का। साला मध्यमवर्गीय! हमने भी तो कहा था काहे को ज्यादा पढ़ाई लिखाई कर रहा है, न मजूरी कर पाएगा न अफसर बन पाएगा और आखिर वही हुआ, आ गई अकल ठिकाने पै। ससुरा बकवास करता रहता है, कहता है कि हमने तो उम्मीद की थी आर्थिक उदारीकरण से देश के आर्थिक विकास को गति देने वाले अर्थशास्त्री ऐसे उपाय करेंगे जिससे गरीबी-अमीरी के बीच की खाई सिमटेगी, लेकिन उन्होंने उस खाई को गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की कब्र बनाकर रख दिया। उदारीकरण उधारीकरण में बदल गया है। मैंने कर्जा लेकर पढ़ाई की थी और बाप ने कर्जा लेकर खेती की थी, न तो नौकरी मिली और फसल ठीक आई, अब कर्जा सिर पर है। नॉन बैंकिंग की आड़ में साहूकारों ने कर्ज की दुकानें खोल रखी हैं, सरकारी बैंक का बाबू कर्ज देने से पहले कपड़े उतारने पर उतारू रहता है और नॉन बैंकिंग वाले कर्ज देने के बाद जीना मुश्किल कर देते हैं।
पर चिंता जैसी कोई बात नहीं है। सबने देखा कि दुनिया के दरोगा ने सबके सामने कहा है कि जब मनमोहन सिंह जी बोलते हैं तो सारी दुनिया सुनती है, आप जितने गदगद हुए हम भी उतने ही गदगद हुए। गरीबों का क्या उनको ये बातें समझ तो आती नहीं, काहे का विकास, वित्तीय प्रबंधन और आर्थिक विकास दर, उसे तो रोटी से मतलब है, नामुराद खाने के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं, फिर भी पेटभर रोटी नहीं जुटा पाते। अंत में जो लिखा है कम ही समझना, समाचार तो इससे भी अच्छे-अच्छे भी हैं। एक मुर्दा शमसान में चिल्ला रहा है मुझे फूक दो, पर लकडिय़ां महंगाई दैत्य के कब्जे में हैं, गुजारिश करने जा रहे हैं, मिल जाएंगीं तो कम से कम मुर्दा सडऩे से बच जाएगा।

Thursday, June 17, 2010

रांड का स्यापा

भोपाल अदालत के फैसले के बाद गैस पीडि़तों के हितैषियों की बाढ़ सी आ गई। 25 बरस से तमाम रहस्यों पर कुंडली मारे बैठे लोगों का ईमान अचानक जाग उठा। नेताओं को मुद्दा मिल गया और अपना उल्लू सीधा करने का मौका भी। कोई किसी को रौंदकर आगे निकलना चाहता है तो कोई पिछला हिसाब बराबर करना चाहता है, तो किसी के मन में प्रदेश की राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिलोर मार रही है। भाजपा के लिए बिल्ली के भाग से छींका टूटा है, वो भला इस मुद्दे को हाथ से कैसे जाने दे सकती है, फिर बचपन में कुछ नहीं कर पाए और जवानी में हाथ में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का आरोप झेलना पड़ेगा, सो पिल पड़े...हमें जवाब चाहिए...किसने छोड़ा एंडरसन।

गैस कांड के समय भाजपा की उम्र महज चार थी। कहा जा सकता है तब भाजपा में विरोध करने की ताकत नहीं थी, हालांकि इसके नेता वही थे जिन्होंने जनसंघ के परचम और नाम को बदल कर झंडे में कमल का फूल खिला लिया था। हां यह जरूर कह सकते हैं कि तब यह नेता अपनी सारी ऊर्जा बच्चे को नजला न होजाए, इसमें खर्च कर रहे थे। लेकिन अब भाजपा जवान हो चुकी है, सत्ता सुंदरी का सानिध्य भी पा चुकी है, लिहाजा अब चुप रहना भारी पड़ सकता है, इसलिए सारी सच्चाईयों से बाकिफ होने के बाद भी अर्जुन सिंह से पूछ रही है कि सही क्या है हमें भी बताइए।भोपाल गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड का तत्कालीन अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन सरकारी सहायता से भागा यह कोई नई बात नहीं है। सारा देश जानता है कि एंडरसन को भोपाल से दिल्ली तक सरकारी उडऩखटोले से लाया गया था, मीडिया में कई बार इसका खुलासा हो चुका है।
] अब कोई इतना भोला तो नहीं कि सरकारी विमान किसके आदेश से उड़ता है इतना भी न समझ सके। लेकिन तब प्राथमिकताएं जुदा थीं, अब वक्त का तकाजा और है। अब वोट चाहिए सो 25 बरस जिसकी ओर से आंखें मूंदे रहे अब उन्हें पलकों पर बैठाने का समय है। वरना ऐसे कई मौके आए जब गैस पीडि़तों के हक में आवाज बुलंद की जा सकती थी खासतौर पर 1996 में तब जब सुप्रीम कोर्ट ने गैस कांड के आरोपियों के खिलाफ गैर इरादतन हत्या को लापरवाही से हुई मौत का केस तैयार करने की व्यवस्था दी गई थी। सभी को पता था कि केस की हांडी में मथी जा रही नई धाराओं से गैस पीडि़तों को न्याय नहीं मिलेगा और अपराधी आसानी से आजाद हो जाएंगे। लेकिन तब किसी के मन में पुनरीक्षण याचिका दायर करने की बात नहीं आई, इसके उलट तब कोशिश की जा रही थी कि यूनियन कार्बाइड का मालिकाना हक डाउ केमिकल्स को कैसे मिले, इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार के मंत्री दिन रात एक किए हुए थे। यहां तक कि देश के सम्मानित उद्योगपति रतन टाटा भी डाउ के पक्ष में उतर आए थे, गृह मंत्री पी चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को खत लिख डाला था कि रतन टाटा की अगुवाई में एक समिति बना दी जाए जो इस मामले पर काम करेगी। अरुण जेटली भी डाउ केमिकल्स के समर्थन में थे। मध्यप्रदेश सरकार के गैस त्रासदी एवं पूनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर ने पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के आधार पर सीआईसी की रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि यूनियन कार्बाइड के चारों ओर की आबोहवा जहरीली है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जो आज अदालत के फैसले पर दुख जता रहे हैं, तब गैस पीडि़तों की खिल्ली उड़ाई थी। यूका फैक्ट्री की मिट्टी हाथ में उठाकर कहा था देखो मेरे हाथ तो नहीं गले, यहां सब ठीक है। और आज शोक जता रहे हैं, आयोग और समितियां गठित की जा रही हैं।इन दोगले नेताओं में बाबूलाल गौर और जयराम रमेश अकेले नहीं हैं। वे सभी नेता और अधिकारी तब बहुत कुछ कर सकते थे जो आज अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। बसंत साठे, जनार्दन द्विवेदी, पीसी अलेक्जेंडर, स्वराज पुरी, मोती सिंह आदि-आदि। बसंत साठे तब के कद्दावर नेताओं में से एक हैं, उन्हें आज याद आ रहा है कि सरकार की शहर पर एंडरसन को छोड़ा गया। जनार्दन द्विवेदी और अलेक्जेंडर तब दूध नहीं पीते थे। हां सत्यव्रत चतुर्वेदी और शिवराज सिंह चौहान की जरूर तब राजनीति में कोई हैसियत नहीं थी, पर दिग्विजय सिंह अर्जुन सिंह के कार्यकाल में पशुपालन मंत्री की कुर्सी पर बैठे थे। तब इनमें से किसी ने नहीं बोला कि अर्जुन क्या कर रहे हो। हर आदमी की जुबान में ताला लगा हुआ था। आज ईमान जागा। लोकसाहित्य में इसे रांड का स्यापा कहते हैं जो अपने पति को जहर देकर मार देती है फिर उसकी लाश पर आंसू बहाती है।बसंत साठे, जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, सत्यव्रत चतुर्वेदी ये सब अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। कोई पुराना बदला निकाल रहा है तो किसी को प्रदेश की राजनीति में अपनी जड़ें जमाए रखना चाहता है। पुरानी मराठी लॉबी सोनिया को पसंद नहीं करती, शरद पवार की बगावत इसका उदाहरण है तो कुछ ऐसे हैं जो चाहते हैं कि अर्जुन मुंह खोलें और राहुल के बढ़ते कदमों में अवरोध पैदा हो जाए। अन्यथा कौन नहीं जानता भाजपा या कांग्रेस, कि किसी व्यक्ति को अचानक सरकारी विमान से भगाने में कितनी बड़ी ताकत लगी हुई होगी और न भी लगी हो तो उसकी जानकारी के बिना इतना बड़ा फैसला असंभव है। लिहाजा अब इन बातों का कोई तुक नहीं है कि अर्जुन सिंह मुंह खोलें और दुनिया को बताएं कि राजीव गांधी के कहने पर मैंने लाशों के ढेर पर खड़े होकर कातिल को गैर कानूनी तरीके से जमानत दिलवाकर दिल्ली भेजा जहां से वह देश को मुंह चिढ़ाता अमेरिका चला गया।

Saturday, February 20, 2010

इल्जाम किसी और के सिर आए तो अच्छा

देश की ख्याति राम की मर्यादा, कृष्ण के कर्म, बुद्ध की अहिंसा, महावीर के अपरिग्रह, स्वामी विवेकानंद के आधुनिक दर्शन, दयानंद के सामाजिक उत्थान के कारण फैली है। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के नाम से पूरा विश्व अहिंसा दिवस मनाने पर एकमत है, उसी देश में इंसान के पशु बन जाने की यह घटना वाकई त्रासद है। चाहे वह स्वार्थ के कारण इंसान को इंसान न समझने के कारण हो, या फिर भूख से तिललित मरते बच्चों को रोटी का टुकड़ा उपलब्ध कराने के लिए हो, या फिर स्वार्थ के कारण आदमी को मार डालने के लिए हो।दुर्भाग्य, कभी देश की पहचान विश्व में विश्व गुरू के रूप में थी, सरकारी नीतियों, अधिकार संपन्नों की नीयत और काम, क्रोध, लोभ की प्रधानता के कारण, आज सर्वाधिक हत्यारों, व्यभिचारियों, भ्रष्टïाचारियों के रूप में बन रही है। हम जानते हैं कि निश्चित रूप से सरकार विश्व मंच पर यही चाहेगी, इल्$जाम किसी और के सिर आए तो अच्छा, लेकिन अपनी आत्मा की आवाज से पीछा कैसे छुड़ा पाओगे।यह कैसे नकार पाओगे कि इन सबके पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से केवल और केवल एक ही लॉबी का हाथ है, जिनसे अपने अधिकारों का अनुचित प्रयोग किया। केवल अपने स्वार्थ के लिए अपराधियों को पनाह दी, धन्नासेठों की चरण पूजा की, और भूखों को सर्वधा नजरअंदाज किया। जिसने भी इनके विरुद्ध आवाज बुलंद की वे कालांतर में तमाम हिंसा फैलाने वाले संगठन कहलाये, जबकि स्वयं हिंसा करने के बाद भी राजनीतिक और सामाजिक दल। अभी कल ही महाराष्टï्र में किसी शिवसंग्राम सेना के कार्यकर्ताओं ने एक पत्रकार के घर हमला बोल दिया। कुसूर सिर्फ इतना कि उसने इनके विरोध में बोलने का दु:साहस किया था।आदमी को जानवर बनाने का मठ हर राजधानी में खुला है, जहां से मंत्र फूके जाते हैं, और सुदूर क्षेत्र में आदमी जानवर बन जाता है। कुछ लोगों के लिए अकूत संपदा, सुविधा का मंत्र फूका, उन्होंने कानून को अपनी चौखट की बांदी समझ लिया, किसी को भी मार-काट देना, घर से बेघर कर देना बीड़ी पीने जैसा मामूली है उनके लिए। इनकी निगाह में गरीब, अपना हक मांगने वाला, और इनका विरोध करने वाला इंसान नहीं है, उसे मार देना चाहिए। इनकी औलादों ने पश्चिम का ऐसा लबादा ओढ़ा जिसे भेदने में हमारे पुरातन संस्कार सक्षम साबित नहीं हुए, और जिनको भेदन की कोशिश की उन्होंने उन्हें ऐसा विकृत किया कि संस्कार कुसंस्कार में बदल गया। कुछ मानसिक रूप से जानवरों को मंत्र मारकर इंसान साबित कर दिया। वे विशेष समय में इनके लिए अपनी प्रवृत्ति को पुर्नजीवित करते हैं, मारकाट करते हैं, और बाद में सब ठीक हो जाता है। गरीबों को भूख का ऐसा मंत्र दिया कि बुंदेलखंड के कनकुआं गांव में भूख से व्याकुल लोग पड़ोसी की रोटी लूट लेते हैं। यह स्थिति तभी पैदा होती है, जब मुट्ठी भर दाने भूख मिटाने को दुर्लभ हो जाएं!स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था जब तक हमारे देश का एक भी कुत्ता भूखा है, उसे रोटी देना हमारा सबसे बड़ा धर्म है। ऐसा लगता है कि इनमठाधीशों ने स्वामी जी के वाक्य को अक्षरश: अपनाया है। तभी तो इंसान को खाना भले ही नसीब न हो, इनके कुत्तों को रोजाना लजीज भोजन दिया जाता है, वे कार से गोदी और बिस्तर तक पहुंच गये, और आदमी रोटी लूट कर झपट कर खाने को विवश हुआ। धन्य हो देश के भाग्य विधाता, आपने महात्माओं के देश को हत्यारों के देश में तब्दील करने में जो महती योगदान किया है, उसे कयामत तक याद रखा जाएगा। फिर भी हम कोशिश करेंगे इसका इल्जाम किसी और के सिर आए तो अच्छा।

Wednesday, February 3, 2010

मुंबई मतलब की

मुंबई न तेरी है न मेरी है, न उत्तर भारतीयों की है न दक्षिण भारतीयों की और यकीनन मुंबई उनकी भी नहीं है जो उसे अपनी बापौती समझ रहे हैं। मुंबई केवल मतलब है। सियासी मतलब की, स्वार्थ के मतलब की, धंधे के मतलब की। ये जितने भी मुंबई पर मर्दानगी दिखा रहे हैं, वास्तव में स्वार्थी, कपटी और कमजोर लोग हैं। क्या लाभ इनकी पहुंच का, इनके परिचय का और इनकी लोकप्रियता का, यदि चंद छिछोरों के सामने इन्होंने घुटने टेक दिए।
राज ठाकरे ने सबसे पहले सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को चुनौती दी थी, क्या किया अमिताभ ने? क्या राज ठाकरे अमिताभ से ज्यादा लोकप्रिय है, उसकी अपील बिग बी से अधिक व्यापक है। माफी मांग ली शहंशाह ने और पिटते रहे उत्तर भारतीय। क्योंकि वे किसी पचड़े में नहीं पडऩा चाहते, मुंबई और उत्तर भारतीय भाड़ में जाएं। मुकेश अंबानी, सचिन तेंदुलकर, शाहरुख खान, बेशक इन्होंने दुनिया भर में देश का नाम रोशन किया, लेकिन देश में अलगाव की आग लगाने वालों के सामने घुटने टेक दिए। इनकी एक आवाज पर पूरा मुल्क खड़ा हो सकता था और सरकार नपुंशक सरकार को झक मारकर मर्दानगी दिखानी पड़ती। लेकिन यह सब शरीफ, इज्जतदार लोग हैं किसी झमेले में नहीं पडऩा चाहते, चूल्हे में जाए मुंबई। इनके बयान देख लीजिए, कहीं मुंबई या महाराष्ट्र की चिंता झलकती है। बड़े ठाकरे बता रहे हैं कि राहुल गांधी की शादी नहीं हुई इसलिए बौखला गएं हैं, कांग्रेस पूछ रही है आपकी बहू क्यों भागी, छोटे ठाकरे को राहुल स्व. राजीव गांधी के नहीं रोम पुत्र नजर आते हैं और मुकेश अंबानी लुटेरे नजर आते हैं। इन बयानों में मुंबई का कितना हित है और कितना छिछोरापन इसका आकलन बहुत जटिल नहीं है।
अब जरा राजनीतिक नौटंकी देखें। कल तक सब चुपचाप तमाशा देख रहे थे, लेकिन अचानक बाढ़ आ गई। मर्दानगी वह निकली, चिदम्बरम भी बोले, राहुल भी बोले और अपनी पैदाईश से एक निशान एक विधान का नारा बुलंद करने वाली भगवा पार्टी भी बोली। क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पैंतरे से इन सबको उत्तर प्रदेश और बिहार में अपना स्वार्थ डूबता दिखा। आरएसएस इस मुद्दे को न भुना ले इसलिए चिदम्बरम भी धोती उठाकर मुंबई की तरफ दौड़ पड़े। पर मजेदार बात यह कि वे आष्ट्रेलियाई और पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को सुरक्षा तो देने को तैयार हैं, लेकिन उन पर लगाम लगाने का अब भी कोई इरादा नहीं है जो महाराष्ट्र को अपनी जेब में डालने पर आमादा हैं। उनके विषय में एक शब्द भी हमारे गृह मंत्री के मुंह से नहीं निकला। राहुल गांधी ने भी इसी बहाने देश का सामान्य ज्ञान बढ़ाते हुए रोचक जानकारी उपलब्ध कराई कि मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के दौरान आतंकियों को मार गिराने वाले उत्तरप्रदेशी, बिहारी और देश के अन्य हिस्सों से थे। लेकिन वे केंद्र सरकार को उसके कर्तव्यों की याद दिला कर उसका ज्ञान नहीं बढ़ा सके। और इन सबसे बड़ी नौटंकी बाज है भाजपा। इस भाजपा ने समुद्र पर बने एक ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले पुल के लिए सारे देश को सिर पर उठा लिया था, जिसका उपयोगिता मात्र इतनी है कि वह भगवान राम ने बनाया था। हालांकि पहले उसे तोडऩे की अनुमति भी इसी भाजपा ने अपने शासनकाल में दी थी। लेकिन देश को तोडऩे वालों के गले में हाथ डालकर 25 साल से घूम रही है। इसका स्वार्थ सधता रहे इसलिए यह ऐसे गोल-मोल बयान देती रही जिससे उत्तर भारतीय भी सधे रहें और मराठी भी सधे रहें। और आज भी यही कर रही है। मुंबई सबकी है, मुंबई सबकी है तो सभी बोल रहे हैं, लेकिन ठाकरे परिवार देशद्रोह कर रहा है, उस पर कार्रवाई होनी चाहिए, यह कहने का किसी में साहस नहीं है। यह उस रांड का स्यापा है जो अपनी ही ओलाद को जलकर मर जाने देती है फिर उसकी लाश पर आंसू बहाती है।

Sunday, January 31, 2010

अब जागना होगा जनता को


एक हंस-हंसनी का जोड़ा प्रवास पर था। एक रात वे विश्राम के लिए वे किसी गांव में बरगद के वृक्ष पर ठहर गए। जोड़ा इस गांव में पहले भी कभी ठहर चुका था, इसलिए गांव की आब-ओ-हवा से परिचित था। इस बार उन्हें गांव पहले जैसा नहीं लगा। यह बात हंसनी ने हंस पर जाहिर कर दी। इन्हीं विचारों में हंस भी खोया था कि उसे बरगद के वृक्ष पर एक उल्लू दिखाई दे गया। हंस ने मुस्कुरा कर हंसनी से कहा, अब इस गांव में उल्लू बसने लगे हैं, इसलिए यह गांव उजड़ गया है।


उल्लू हंस-हंसनी की बातें सुन रहा था, उसे उनकी यह बात नागवार गुजरी। सुबह जब जोड़ा उडऩे को तैयार हुआ तो उल्लू ने हंसनी को रोक लिया और हंस से बोला यह मेरी पत्नी है। हंस को उल्लू की मूर्खता पर हंसी आई, उसने उल्लू को लाख समझाया कि यह तुम्हारी पत्नी नहीं हो सकती, किंतु उल्लू नहीं माना और बोला आओ पंचायत बुला लेते हैं, पंच जो फैसला देंगे उसे मान लिया जाएगा। हंस तैयार हो गया। पंचायत बुलाई गई, दोनों ने पंचों के सामने अपनी-अपनी बात रखी। पंचों ने विचार-विमर्श किया और निष्कर्ष निकाला कि हंस साल में एक बार जब यहां से गुजरता है तो विश्राम के लिए यहां ठहरता है, इसे गांव से कोई मतलब नहीं है, यह झूठ भी बोल सकता है। लेकिन उल्लू हमारे बीच का प्राणी है, 24 घंटे बरगद पर बैठकर गांव की रखवाली करता है, हमसे झूठ नहीं बोल सकता। लिहाजा फैसला उल्लू के पक्ष में हो गया। हंस की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। शाम हो गई हंस-हंसनी आगे नहीं बढ़ सके और रात्रि को पुन: बरगद पर बैठ गए। उल्लू हंस के पास आया और बोला मैं जानता हूं कि हंसनी मेरी पत्नी नहीं हो सकती फिर भी तुम हार गए। क्योंकि जिन्होंने यह फैसला दिया है उनके पास अपना दिमाग नहीं है, वे सब मेरे कहने पर चलते हैं, मेरे प_े हैं, इसलिए तुम सही होकर भी जीत नहीं सके। यही सूरत-ए-हाल महाराष्ट्र का है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जानते हैं कि उन्होंने जो प_े पाल रखे हैं, वे उनकी एक आवाज पर पूरे प्रदेश को सिर पर उठा लेंगे और उठा रहे हैं, नेतृत्व नपुंसक है। इतिहास साक्षी है कि नपुंसक और स्वार्थी नेतृत्व किसी भी देश काल में अपने राज्य और प्रजा को सुरक्षा, संपन्नता प्रदान नहीं कर पाया। फिर वहां यह कल्पना कैसे की जा सकती जहां के नेतृत्व की ऊर्जा का श्रोत ही दुष्टता और धृष्टता हो। फिर हमें इन खबरों से कतई विचलित नहीं हो चाहिए कि बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे मुंबई को अपनी बापौती समझ रहे हैं। दुनिया भर में देश का मस्तक ऊंचा करने वाले उद्योगपति मुकेश अंबानी को हड़का रहे हैं, खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को आंखें दिखा रहे हैं और दुनिया के श्रेष्ठ कलाकार अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान को न केवल धमका रहे हैं, बल्कि उनके घरों पर हमले भी करवा रहे हैं।..भई दुष्ट अगर दुष्टता नहीं करेगा तो क्या भजन करेगा।...फिर तब जब उन्हें पता हो कि 1969 की तरह कोई इंदिरा गांधी इस देश में नहीं है, जो दक्षिण भारतीयों को परेशान करने के जुर्म में ऐसी की तैसी कर देगी।
लिहाजा इन दो कोड़ी की मानसिकता वालों पर माथा खपाने की बजाए उन लोगों को आईना दिखाएं, जिनका समर्थन पाकर यह गुंडे उत्पाद मचा रहे हैं। उन मुंबईवासियों को यह समझना होगा कि उनके हित, उनकी अस्मिता और उनकी संपन्नता के नाम पर उनके महाराष्ट्र और उनके देश के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। जिन उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से बाहर निकालने की बात पर मराठी फूल जाते हैं यदि उन्हें एक कौने में समेट दिया जाये तो शेष सारे राष्टï्र को लेने के देने पड़ जायेंगे। जिस अस्मिता, सम्मान, संस्कृति, परंपराओं, विकास, कला और सृजन की बात करते हैं, वास्तव में उसके वाहक हिन्दी भाषी यानि उत्तर भारतीय ही हैं। देश हो या परदेश अपने गीता अथवा रामायण के गुटके के सहारे इन्हीं हिन्दी भाषियों ने तमाम दु:ख तकलीफें सहकर उस संस्कृति को जिंदा रखा है जिसकी पूजा और सम्मान आज भी दुनिया करती है।
बात केवल एक बाल ठाकरे या राज ठाकरे की नहीं है, ठाकरे और उनकी तरह की मानसिकता रखने वाले कितने बुद्धिमान हैं जो अपना परिचय समय-समय अपनी छिछोरी हरकतों से देते रहते हैं। समझना मुंबई और महाराष्ट्रवासियों को है। उन्हें जिस मुंबई, मुंबई के जिस विकास और ग्लैमर पर नाज है उनकी कोई गिनती नहीं है। बड़े व्यवसायियों में पारसियों की संख्या सर्वाधिक है। शेयर बाजार पर गुजरातियों का कब्जा है। कस्टम, सेंट्रल, एक्साईज और इनकम टैक्स विभाग के 70 प्रतिशत अधिकारी बिहार के हैं। बॉलीबुड में पंजाबियों का प्रभुत्व है। तकनीशियनों में 25 प्रतिशत उत्तर भारतीय हैं। निर्माण उद्योगों में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों का हिस्सा 30 प्रतिशत से अधिक है। सुरक्षा गार्ड की भूमिका में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग 40 प्रतिशत से अधिक है। निजी स्कूलों के अधिकांश संचालक उत्तर प्रदेश के हैं। दूध व्यवसाय में 75 प्रतिशत से अधिक उत्तर प्रदेशी हैं। खोमचा लगाने वालों में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगों का हिस्सा 50 प्रतिशत है। अपने-आप को पढ़े लिखों की राजधानी और आई.टी का आका समझने वाले मुंबई, बैंगलूर, कर्नाटकियों को यह पता ही नहीं है उनकी यह हैसियत भी हिन्दी भाषियों के कारण है। यहां हजारों की संख्या में पढ़े लिखे नौजवान अपनी सेवाएं दे रहे हैं। हां इन हिन्दी भाषियों का दुर्भाग्य है कि देश को 6-6 प्रधानमंत्री देने के बाद यह पिछड़े क्षेत्र के कहे जाते हैं। लेकिन यह क्षेत्र पिछड़ इसलिए है क्योंकि यहां रहने वालों की मेहनत, हुनर और इनकी जीवटता का उपयोग पूरे देश ने किया। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य प्रांतों ने इस देश के लिए कुछ किया नहीं, बहुत कुछ किया, लेकिन जितना और जिस प्रकार से उत्तर भारतीयों ने किया उतना किसी और ने नहीं किया।
इतिहास साक्षी है जब भी भारत-भारतीयता पर किसी तरह का संकट आता है, देश अपने इस भू-भाग की तरफ देखता है। लेकिन जब सुफल चखने की बात आती है, तो उत्तर भारत को हाशिये में धकेल दिया जाता है। किनारों पर बैठे लोग अकसर लड़-झगड़ कर अपना हिस्सा ले लेते हैं, और हिंदी पट्टी के हिस्से आती है दीनता और गरीबी। बावजूद दुनिया के जिस भी कोने में उत्तर भारतीय पहुंचे, उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाए रखा। वे मॉरिशस गए, फिजी गए, ट्रिनिडाड-टुबैगो गए। लेकिन कभी अपनी जड़ों से कटे नहीं। तमाम अभावों और परेशानियों के बावजूद उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाए रखा। एक अकेले रामायण या गीता का गुटका उनके जीवन का संबल बना। आज यदि देश से बाहर भारतीय संस्कृति का कोई अस्तित्व है, तो उसे इस स्थिति तक पहुंचाने में उत्तर भारतीयों का सबसे बड़ा योगदान है।
ठाकरे परिवार उनके जैसी हरकत करने वाले नेता चाहे वो किसी भी प्रांत के हों यदि अखंड भारत को टुकड़ों में बांटने की चाल चलते हैं तो इसमें सारा दोष है कायर और स्वार्थी सत्ताधीशों का। देश की सुरक्षा और उसके निर्माण के लिए जिसे सत्ता सौंपी गई है उसका पहला और सर्वमान्य कर्तव्य है देश की एकता अखंडता और अस्मिता की रक्षा करना। लेकिन सत्ताधीशों को अपने इस कर्तव्य की कोई चिंता नहीं है। स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद ऐसे नेता तो बहुत हैं जो देश की चिंता करते हैं, लेकिन उसे अमल में लाने से कतराते हैं। आज ठाकरे जिस तरह की राजनीति करके अपने ही देश में लोगों को परदेशी बनाने पर आमादा हैं 1969 में भी इसी तरह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने का प्रयास किया था। तब मुंबई में दक्षिण भारतीयों के खिलाफ ऐसे ही हथकंडों का इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकानी चाही थी। लेकिन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें दिन में ही तारे दिखा दिये थे और इन्हीं बाल ठाकरे ने इमरजैंसी लगने के बावजूद श्रीमती इंदिरा गांधी की चरण वंदना में कोई कसर नहीं रखी थी। आज भले ही लोग इमरजेंसी के बहाने लोग इंदिरा को पाीन पी पी कर कोसें लेकिन हकीकत यही है कि इंदिरा के बाद कोई ऐसा नेता देश में नहीं हुआ जिसने किसी बाहुबली की बांह मरोडऩे की शक्ति जुटा पाई हो। आज कोई भी नेता अपनी मनमानी करता है और सीधे केंद्र को चुनौती देता है यदि ताकत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ। पिछले एक पखवाड़े से महाराष्टï्र में राजनीति और मराठी अस्मिता के नाम पर देश की अस्मिता और संविधान की मूल भावना जिसे एक मराठी के ही संरक्षण में अंतिम रूप दिया गया, की अस्मिता की तार-तार किया जा रहा है, और आप उसका समर्थन कर रहे हैं।
क्या है मुंबई
1995 से पहले इस शहर का नाम बंबई या बाम्बे था। मुंबई मराठी उच्चारण का नाम है, जो देवी मुंबा के नाम पर रखा गया था। मराठा क्षेत्र में इस देवी की पूजा सदियों से होती चली आ रही है।
250 ईसा पूर्व अशोक के दौर में यह मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था। बाद में इस द्वीप पर सातवाहन शासकों ने भी राज किया।
1343 में इस पर गुजरात के हिन्दू शासक का अधिकार हुआ।
1534 में पुर्तगाली शासक ने गुजरात के शासक राजा बहादुर शाह से मुंबई का अधिकार हासिल किया। पुर्तगालियों ने इसे बोम बहिया नाम दिया। बहिया का अर्थ बे अर्थात खाड़ी है।
1661 में मुंबई द्वीप समूह को पुर्तगाल के राजा ने अपनी बेटी कैथरीन द ब्रिगान्जा की विवाह के बाद उनके पति अंग्रेज राजकुमार चाज्र्स द्वितीय को उपहार में दे दिया।
1668 में चाल्र्स द्वितीय ने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को भाड़े पर दिया। भाड़ा एक साल के लिए 10 पाउंड सोना तय किया गया। कंपनी ने मुंबई को बंरगाह के रूप में विकसित किया। सर बारटले फेरेरी यहां के पहले गवर्नर नियुक्त किए गये।
1661 से 1675 के बीच के 14 सालों में मुंबई की आबादी 10 हजार से 60 हजार हो गई।
1687 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना मुख्यालय सूरत से बदल कर मुंबई कर दिया। इसके बाद वह बंबई प्रसीडेंसी का मुख्यालय बना।
1857 तक यह शहर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन रहा। इसके बाद यह ब्रिटिश सरकार की छत्रछाया में आ गया। सर जार्ज ऑक्सेंडेन गवर्नर जनरल बने।
1861 से 1865 के बीच अमेरिकन मंदी के दौरान यह शहर कपास व्यार के प्रमुख केंद्र के रूप में उभारा।
1869 में स्वेज नहर के निर्माण के बाद यह अरब सागर का सबसे प्रमुख बंदरगाह बन गया।
1947 में भारत की आजादी के बाद यह शहर बंबई राज्य की राजधानी बना।
1955 के बाद चले भाषाई आंदोलन के बाद बंबई को गुजरात व महाराष्टï्र राज्यों में बांट दिया गया। मुंबई महाराष्टï्र की राजधानी 1960 में बनी।
1961 में मुंबई की 34 प्रतिशत आबादी गैर मराठियों की थी। 2008 में यह प्रतिशत 57 हो गया है। इनमें उत्तर भारतीय 21 प्रतिशत, गुजराती 18 प्रतिशत, तमिल व सिंधी 3-3 प्रतिशत तथा अन्य लोग 12 प्रतिशत हैं।
मुंबई का मूल
परंपरागत रूप से बड़े व्यवसायियों में पारसियों की संख्या सर्वाधिक है। यह समुदाय 9वीं सदी में ईरान से यहां आया। मुंबई के आठ द्वीपों को जोडऩे की योजना में पारसी समुदाय ने काफी राशि खर्च की।1960 के दौरान यहां 31 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्रों में रोजगार पाते थे। यह प्रतिशत आज 65 हो गया है। असंगठित क्षेत्र से जुड़े रोजगार में 80 प्रतिशत से अधिक गैर मराठी लोग हैं।शेयर बाजार पर गुजरातियों का कब्जा है। बाजार के बड़े दलालों में 75 प्रतिशत से अधिक गुजराती हैं।कस्टम, सेंट्रल, एक्साईज और इनकम टैक्स विभाग के 70 प्रतिशत अधिकारी बिहार के हैं।बॉलीबुड में पंजाबियों का प्रभुत्व है। टॉप पर रहने वाले अमिताभ बच्चन उत्तर प्रदेशी हैं। तकनीशियनों में 25 प्रतिशत उत्तर भारतीय हैं।निर्माण उद्योगों में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों का हिस्सा 30 प्रतिशत से अधिक है।एक अनुमान के मुताबिक सिक्युरिटी गार्ड की भूमिका में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग 40 प्रतिशत से अधिक है।