Monday, July 12, 2010

बदलनी होगी सफलता की परिभाषा

हत्या, लूट, बलात्कार, चोरी, डकैती, ब्लैक मेलिंग हर तरह के अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और इस पर लगाम लगने की कोई सूरत फिलहाल तो नजर नहीं आती। निश्चित रूप से यह चिंताजनक है, लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक है अपराध के दलदल में ऐसे लोगों का धंसना जो न तो पेशेवर अपराधी हैं और न ही अपराध करना उनके लिए कोई मजबूरी है, केवल अपने अहंकार की तुष्टि के लिए वे संगीन अपराध कर जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो उच्च वर्ग से प्रभावित होकर, उनके जैसा दिखने, रहने और करने के लिए अपराध की दुनिया को अंगीकार कर लेते हैं। प्रेम संबंधों में विफलता, अति उत्साह में तेज वाहन चलाना, सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन, मस्ती में छेड़छाड़ और प्रतिरोध करने पर आवेश अथवा अपमान बोध से इनके हाथों गंभीर अपराध अंजाम पा जाता है। इनकी एक लंबी फेहरिस्त है, जिसमें लगातार इजाफा हो रहा है।सवाल उठता है क्यों...इनके पास पर्याप्त आर्थिक समृद्धि है और सामाजिक सम्मान भी, यह अपराध करने के लिए मजबूर नहीं हैं, फिर भी शहरी क्षेत्र में घटने वाले अधिकांश अपराधों में इनका हाथ क्यों। गहराई से देखें तो इसके पीछे संस्कारहीनता और अहंकार है, जो इन्हें अपनी मर्जी के खिलाफ कुछ भी बर्दास्त नहीं करने देता। ये अपनी मर्जी से संचालित होते हैं, कोई क्या कर लेगा का गुमान हमेशा उनके चेहरे और व्यवहार में झलकता है, आम तौर पर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इसमें इनका दोष नहीं है, समाज ने ही इस तरह के व्यवहार, समृद्धि, ताकत, जोड़तोड़ की राजनीति और चालाकी को सफलता का पैमाना स्वीकार कर लिया है। और कोई असफलता का दाग अपने दामन पर लगना बर्दाश्त नहीं करता। हमारे बीच कुसंस्कारों को कामयाबी मानने वाला भी एक समाज है, जिसने अपना अलग संसार बसा रखा है, हम उसे इस रूप में स्वीकार नहीं करते बल्कि इस रूप में देखते हैं कि वे समाज से अलग हैं, कुछ विशेष हैं। यही सोच उनके अहंकार को पोषित करती है और उनकी औलादें निरंकुश हो जाती हैं।इसमें इनका कोई दोष नहीं है जब वे अपने आसपास के माहौल को, अपने मां-बाप को किसी आदर्श से संचालित नहीं देखते, उन्हें किसी नैतिकता का पालन करते नहीं देखते, उन्हें मर्यादित आचरण करता हुआ नहीं पाते तो फिर वे और क्या करें। जो लोग अपनी तिकड़म से, रुतबे से, अपराधियों का सहारा लेकर बढ़ाए गए बाहुबल से अपना धन संसार रचते हैं, उनके बच्चों के इर्द-गिर्द भी एक भौतिक हवस का संसार अपने आप बस जाता है। फिर लड़के आलीशान मकान चाहते हैं, एक लग्जरी कार, उसमें उसमें उनके साथ बैठने के लिए एक लड़की चाहते हैं और महफिल में उनके सामने जीहुजूरी करने वाले चार शोहदे भी चाहते हैं। लड़कियों का हाल भी इससे जुदा नहीं होता उन्हें शॉपिंग की आजादी चाहिए, जागरूकता और आधुनिकता के नाम पर समय-असमय घूमने की आजादी चाहिए, कम से कम एक ब्वाय फ्रेंड तो होना ही चाहिए जिसके साथ वे डिस्को पार्टी में जाकर थिरक सकें। जब उनके सामने सफलता के मायने ज्यादा से ज्यादा धन और ज्यादा से ज्यादा रोब-रुतबे के रूप में प्रस्तुत किए जाएंगे तो फिर वे और क्या करेंगे। जब उन्हें पता होगा कि उनके आसपास के माहौल में सही को गलत और गलत को सही कैसे बनाया जाता है, कानून को अपने पक्ष में कैसे किया जाता है, पुलिस और न्याय को कैसे खरीदा जाता है, बड़े से बड़े अपराध करके कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है तो फिर वे किस बात से डरेंगे।इसका मतलब यह नहीं कि अच्छे लोग नहीं हैं आज भी बहुत से तबकों के लोग ईमानदार हैं लेकिन इनकी बात कोई नहीं सुनता, कोई इनकी तारीफ नहीं करता। इनकी तुलना में उनकी बात को अधिक महत्व दिया जाता है जिनके पास सत्ता और शक्ति है। अगर इन परिस्थितियों से निपटना है तो सबसे पहले सफलता की परिभाषा बदलनी होगी। जो रौब-रुतबे, शक्ति और समृद्धि की नहीं, उच्च विचारों, संस्कारों और उच्च आदर्शों की होगी। बिगड़ेल औलादों और स्वयं के बेलगाम और बेशर्म विचारों पर तहजीब का अंकुश लगाना होगा।

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