Friday, July 9, 2010

निर्लज्जता का नायाब नमूना

बयानों की चिंगारी से समय-समय पर महंगाई की आग भड़काने वाले खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री शरद पवार ने शक्कर को नियंत्रण मुक्त करने की वकालत करके यह सिद्ध कर दिया कि उनके रहते यदि महंगाई खुद भी घटना चाहे तो घट नहीं सकती। निर्लज्जता का इससे नायाब नमूना भारत के अलावा कहीं और नहीं मिलेगा। पहले पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे की चिंता हुई थी, उन्होंने लगातार प्रयास करके पेट्रोल, डीजल, गैस, केरोसिन के दाम बढ़वा दिए और अब शरद पवार को चीनी मिलों की चिंता हो रही है। पवार को लगता है कि पैट्रोल की तरह शक्कर को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर देना चाहिए ताकि बाजार में कितनी शक्कर आनी है यह चीनी मिलें तय कर सकें। ऐसा करने से चीनी मिलों को नुकसान से बचाया जा सकेगा। इस तरह का प्रस्ताव उनका मंत्रालय जल्द ही कैबिनेट को भेजने वाला और उनकी सलाह मानी गई तो इसका फैसला अगस्त तक आ जाएगा। यदि फैसला पवार की मंशा के अनुरूप होता है तो शक्कर का महंगा होना तय है। जनता को इससे बेशक तकलीफ होगी पर शरद पवार को फायदा होगा। सीधे शब्दों में कहें तो शक्कर पर शरद का एक हिसाब से कब्जा हो जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो शक्कर सोना हो जाएगी।दरअसल महाराष्ट्र की सुगर लॉबी पर शरद पवार का कब्जा है। पवार की इच्छा के बिना यहां पत्ता भी नहीं हिलता। तीन साल पहले का बाकया याद करें महाराष्ट्र को छोड़कर सारे देश में शक्कर के दाम बढ़ रहे थे। क्योंकि यहां की सुगर मिलों ने गन्ना कम मिलने का बहाना बनाकर शक्कर कम जारी की थी, इधर पवार के बयानों से संकेत मिलने के बाद बड़े-बड़े व्यापारियों ने शक्कर की जमाखोरी शुरू कर दी और 20 रुपए किलो मिलने वाली शक्कर अचानक 40 रुपए किलो जा पहुंची थी। अब चूंकि शक्कर 30 रुपए के आसपास है पवार को यह बात बर्दाश्त नहीं हो रही है, इसलिए उन्हें कंपनियों के घाटे की चिंता सताने लगी।पवार साहब आप वर्षों से किसानों के मंत्री हैं, क्या उनकी कभी ऐसी चिंता की है। क्या कभी विचार किया कि क्यों न फसल के मूल्य निर्धारण का अधिकार किसानों को दे दिया जाए, जिन गन्ना किसानों की मेहनत से सुगर मिलों के पहिए घूमते हैं, वे भी घाटे में हैं। खेत जोतने-बखरने से लेकर फसल को खलिहान तक लाने में किसान का जो श्रम और लागत लगती है, कभी उसका हिसाब लगाया है। कितने किसानों के गन्ने का पैसा सुगर मिलों में अब तक अटका पड़ा है, कभी दिलाने का प्रयास किया है, नहीं किया है। बावजूद इसके किसान सबसे अधिक रिस्क उठाकर फसल तैयार करता है और बाद में घाटे का सौदा करता है। शर्म से ढूब मरना चाहिए सरकार को और कंपनियों को। शुक्र है कि देश का किसान कंपनियों की तरह चालाक नहीं है, कंपनी कर्मचारियों की तरह हड़ताल नहीं करता वरना मात्र एक साल की हड़ताल से सरकार, कंपनियों और किसानों चूसने वाले धन्नासेठों की अकल ठिकाने पर आ जाए।

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