Saturday, July 24, 2010
खादी, खाकी और खरदूषण
बिहार विधानसभा में जूते-चप्पल चल रहे हैं, गुजरात में दो माननीय सरेआम मंच पर गाली गलौच कर रहे हैं। गुजरात के ही गृह राज्यमंत्री फर्जी मुठभेड़ कांड में फंसे हैं। संस्कारों और सुचिता का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टी के सर्वेसर्वा दूसरी पार्टी के नेताओं को कुत्ते की दुम बताते हैं तो कभी औरंगजेब की औलाद। जनता के नुमाइंदे हत्या करवा रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं, गुंडागर्दी कर रहे हैं। जब इनका आचरण ऐसा है तो फिर इसमें कैसा आश्चर्य कि आने वाली राजनीतिक नस्ल संस्कारहीन और खून से सने हाथों वाली होगी।बिहार में जब विधायक बेहयाई से लोकतंत्र की लाज तार-तार कर रहे थे, उसी वक्त गुजरात में राहुल गांधी के चुने हुए छात्र नेता भारतीय संस्कारों की धज्जियां उड़ा रहे थे। बिहार में सड़कछाप छिछोरों की तरह गालियां दी जा रहीं थीं और गुजरात में एनएसयूआई के नेता एक पिता की उम्र के बुजुर्ग को न केवल पीट रहे थे बल्कि सड़क पर गिराकर उन्हें लातों से मार रहे थे। उन बुजुर्ग की किस बात पर इन यवुाओं का पौरुष आंदोलित हो उठा पता नहीं, लेकिन इन्होंने उज्जैन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र नेताओं की गुंडागर्दी की स्मृति ताजा कर दी जिसमें प्रोफेसर सबरबाल की मौत हो गई थी। दरअसल संख्याबल से मिलने वाली सत्ता और उस पर जनता की बेवसी की मुहर ने राजनीति को प्रदूषित कर दिया है। तमाम राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने खेमे में धनबलियों और बाहुबलियों का जमघट लगा रखा है, जिन पर हत्या, बलात्कार, रंगदारी जैसे संगीन अपराधों के मामले दर्ज हैं। गवाह सबूत भले ही चीख-चीखकर इनके गुनाहों की कहानी सुनाएं लेकिन सियासी जोड़तोड़ और खाकी बर्दी की मदद, कानून की किताबों में लिखी धाराओं के बीच की जगह से इन्हें बचा ले जाती है। खादी, खाकी और खरदूषणों का ऐसा खलनायक तंत्र लोकतंत्र के मंदिर अपनी जड़ें जमा चुका है जिसने समाजसेवा की उर्वरा भूमि को बंजर कर दिया। अब यहां या तो अपराध के नागफनी पनपते हैं या फिर वे अमरबेलें हैं जो अपने बाप-दादाओं के कंधों पर सवार होकर फलफूल रही हैं। जिनका न तो राजनीति से कोई लेना-देना है और न ही समाजसेवा से कोई सरोकार। इसलिए बिहार जैसे वाकये सामने आते हैं।सवाल यह है कि क्या दृश्य कभी बदलेगा? अगर ईमानदार प्रयास हों तो जरूर बदल सकता है, क्योंकि राजनीति और अपराध के गठजोड़ के लिए जितनी जिम्मेदार सियासी पार्टियां हैं, उतने ही जिम्मेदार हम हैं। हमारे ही एक-एक वोट से अपराधी और गुंडा किस्म के लोग संसद तक पहुंचे हैं। हमारा मानस हमेशा इनके विरोध में रहा है, लेकिन विकल्पहीनता की स्थिति में हमने उस अधिकार का प्रयोग नहीं किया जिसमें अपना वोट किसी भी पक्ष में नहीं डाला जाता। हालांकि इसका एक कारण हर आदमी का कानूनी पेचेदगियों से परिचित न होना भी है, लेकिन यह सत्य है कि हमने गलत का कभी मुखर विरोध नहीं किया। जब मैं कह रहा हूं कि हमने, तो यहां मतलब एक-एक व्यक्ति से नहीं है, बल्कि उन लोगों से है जो विरोध करने में समर्थ हैं, जिनकी देश में व्यापक अपील है, जनता जिनका अनुशरण कर सकती थी।मैं बहुत पीछे नहीं जाऊंगा, अभी हाल ही की कुछ घटनाएं उदाहरण स्वरूप सबके सामने हैं। ठाकरे खानदान में मुंबई पर अपनी बापौती जमाई और उत्तरप्रदेश, बिहार की जनता तथा तमाम नेताओं का अपमान किया। पूरे देश में इसका व्यापक विरोध होना चाहिए था, लेकिन सियासी कारणों से किसी का मुंह नहीं खुला। इसमें तीन नाम ऐसे हैं, जो न केवल शक्ति संपन्न थे बल्कि इनके इशारे मात्र पर देश की जनता, ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी को जमींदोज कर देती। सरकार को मजबूरन ठाकरों पर कार्रवाई करनी पड़ती। लेकिन विवादों से परे रहने के आदि हमारे इन सम्मानितों ने मनसे और शिवसेना की विघटनकारी और देशद्रोही गतिविधियों से खुद को दूर रखा।सबसे पहला नाम सदी के महानायक शहंशाह अमिताभ बच्चन। राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों बनाम मुंबईकरों की जंग की शुरूआत यहीं से की थी। उन्होंने अमिताभ को भला-बुरा कहा, जया बच्चन को जरूर बुरा लगा, लेकिन पूरी दुनिया जिस आवाज का लोहा मानती है वह जुबान राज ठाकरे के सामने झुक गई।फिर शिवसेना के निशाने पर आए भारत के सबसे बड़े उद्योपति मुकेश अंबानी। मुकेश अंबानी यदि कड़ा रुख अपनाते तो सरकार के हाथपांव फूल जाते लेकिन वे भी विवादों से परे रहे। फिर इन चचा-भतीजे के निशाने पर आया ऐसा सख्श जिसकी एक आवाज पर जनता ठाकरे परिवार तो क्या देश के किसी भी कौने में किसी भी सरकार या संगठन की ईंट से ईंट बजा देती। लेकिन हरदिल अजीज यह इंसान भी किसी विवाद में नहीं पडऩा चाहता था। इसलिए इसने ठाकरे की घुड़की चुपचाप बर्दाश्त कर ली। यह व्यक्ति था क्रिकेट का भगवान सचिन तेंदुलकर। मीडिया ने सचिन पर ठाकरे की टिप्पणी को जमकर उठाया था और ठाकरे की आलोचना की थी, लेकिन सादगी पसंद सचिन ने एक शब्द नहीं बोला।इन विभूतियों के उदाहरणों का मतलब यह नहीं कि यह उठें और जनता के साथ मशाल लेकर कोई विरोध जुलूस निकालें। तात्पर्य यह है कि इस हैसियत का आदमी यदि किसी बात का विरोध करता है तो टुकड़ों में बंटी जनता एकजुट होकर उसका अनुशरण करती है। ये देश के वास्तवकि नायक हैं। जब यही लोग गलत बात को चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे तो आम आदमी जिसकी कोई सुनने वाला नहीं, विरोध करके क्या उखाड़ लेगा। उसे पांच साल में एक बार वोट देना है, अपराधी डराकर ले लेते हैं, कुटिल झूठ बोलकर संसद पहुंच जाते हैं, फिर कोई सुपारी देता है, कोई गाली देता है और लोकतंत्र शर्मशार होता है।
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