Friday, August 13, 2010
कश्मीर को स्वायत्तता क्यों!
पिछली पोस्ट में हमने आजादी के बाद कश्मीर को अब्दुल्ला परिवार और केंद्र सरकार की खींचतान ने किस तरह जन्नत को देश के माथे का नासूर बना दिया पर चर्चा की। अब चूंकि एक बार पुन: कश्मीर को स्वायत्तता देने की बात चल रही है इसलिए यह सवाल मौजूं है कश्मीर को स्वायत्तता क्यों।गहराई से देखें तो राजनीतिक स्वार्थों के साथ कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा होना भी उसका दूसरा बड़ा दुर्भाग्य रहा है। कहा जाता है कि आजादी के बाद देश के तमाम राजे-रजवाड़े और रियासतों का भारत में विलय हुआ था जबकि कश्मीर भारत में शामिल हुआ था। कश्मीर के साथ कालांतर में यह उदारता क्यों और किन विशेष परिस्थितियों में बरती गई यह बीती बात हो गई है, अब असल सवाल है कि जब कश्मीर के लिए केंद्र से तमाम प्रकार की सहायताएं और सुविधाएं झोली फैला कर मांगी जाती हैं तो फिर उसके कानूनों को लागू करने से क्या परहेज है। क्या केंद्र ने उन पाकिस्तान परस्तों का ठेका ले रखा है जो जिस थाली में खा रहे हैं उसी थाली में छेद कर रहे हैं। जब देशवासियों की गाढ़ी कमाई का अरबों रुपए कश्मीर पर लुटाया जा रहा है तो उन कमीनों को लात मारकर बाहर क्यों नहीं करते जो पाकिस्तनी झंडे फहरा कर देशवासियों की भावनाओं और देश का अपमान कर रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कश्मीर नक्शे में हिंदुस्तान का हिस्सा रहे इन नागों को स्वायत्तता देकर दूध पिलाने से क्या लाभ है। दूसरी बात यदि कश्मीर को स्वायत्तता देने के बाद ऐसी ही मांग अन्य सीमावर्ती राज्यों में उठी तो स्थिति कितनी भयंकर होगी।सिर्फ इसलिए कि सुंदरता को दाग न लग जाए और पं. नेहरू के शेख को दिए वचन के कारण कश्मीर को सारे देश से अलग रखना, उसे विशेष सुविधाएं देना और मुसीबतें मोल लेना समझदारी या उदारता नहीं मूर्खता है। नेहरू काल में परिस्थितियां और थीं, घाटी में आतंकवाद का अजगर नहीं था और हुर्रियत के विषैले नाग भी इतने जहरीले नहीं थे। और सबसे महत्वपूर्ण है कि यदि पूर्व में गलती हो गई तो इसे जिंदगी भर ढोने का क्या मतलब है। अतीत से सबक लेना अच्छी बात है, बंधा रहना तो मूर्खता ही है। नेहरू काल में जो गलती हुई उसे सर्वसम्मति से दुरुस्त किया जाए न कि सर्वसम्मति से कश्मीर को स्वायत्तता दी जाए।कश्मीर अभी भी देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा संघीय व्यवस्था में भारी है, चाहे वह कर वसूली हो या फिर विभिन्न कानूनों का समान रूप से लागू करना। बावजूद इसके विकास के लिए विशेष पैकेजों की बाढ़ लगातार उफान पर रहती है, यदि आम कश्मीरी को इसका लाभ नहीं मिला तो इसके लिए जिम्मेदार है अब्दुल्ला परिवार है, फिर भी उन्हीं को गले लगाए रखने वालों और उनकी बातों पर कान देने वालों पर तो तरस आता है या फिर उनकी नीयत पर शक होता है।फारूख की निष्ठा सदैव शंकास्पद रही है और अब भी है। वे कश्मीर को कोई हिन्दुस्तान से अलग नहीं कर सकता जैसे बयान देकर अपनी नीयत पर पर्दा नहीं डाल सकते। क्या फारूख को नहीं मालूम की कई हिस्सों में ऐसे लोग मौजूद हैं जो पाकिस्तान परस्त हैं और इन पर कभी भी फारूख की मीरी-पीरी अंकुश नहीं लगा सकी। फारूख की बात मानकर या वर्तमान परिस्थितियों को देखकर कश्मीर को स्वायत्तता के नाम पर और अधिकार देना घोर मूर्खता होगी।मैंने जैसा कि कहा फारूख की देश के प्रति निष्ठा सदैव संदेहास्पद रही है उसका नमूना उन्होंने दस साल पहले पेश किया था। तब फारूख साहब का कहना था कि वे केवल कश्मीर की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि तमाम राज्यों के हित रक्षण में यह बहस छेड़ी है। क्या फारूख की इस नीयत से सहमत हुआ जा सकता है।बहरहाल अब फारूख की नीयत को गोली मारें और उन सांपों के फन कुचलें जो देश में दुश्मनों के झंडाबरदार बने हैं। कश्मीर के भारत में शामिल होने की जो भी कानूनी पेचीदगी, बारीकी रही हो, आज किताबी हो चुकी है, तब से अब तक झेलम में बहुत पानी बह चुका है। कश्मीर को खुशहाल बनाने के सपने में हिन्दुस्तानियों ने साझेदारी ही नहीं की है इसे अपने खून पसीने से सींचा है। जिन लोगों को कश्मीरी मुसलमानों के हितों की चिंता हो रही है उन्होंने कभी उन कश्मीरी पंडितों के विषय में नहीं सोचा जो पलायन कर चुके हैं। इसलिए कश्मीर में हो रहे उपद्रव को देखकर उसे स्वायत्तता देने की बजाए सेना को देशद्रोहियों के सफाए में लगाया जाए। कश्मीर का यही एक मात्र हल है, लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
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