Thursday, August 12, 2010
जन्नत को दोजख बना दिया
नेशनल कांफ्रेंस, हुर्रियत और केंद्र सरकार और इनके बीच में फंसा कश्मीर और आम कश्मीरी। विवाद पुराना है, कश्मीर को लेकर चूहे-बिल्ली का खेल आजादी के बाद से निरंतर चल रहा है। पहले एक मोर्चे पर फारूख अब्दुल्ला के अब्बा जान शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्ला थे और दूसरे छोर पर पं. नेहरू और इंदिरा थीं। कांग्रेस लाख कोशिशों के बावजूद कश्मीर में अपने पैर नहीं जमा पाई। इसके बाद जनता पार्टी से जनसंघ और फिर भाजपा ने भी कई प्रयास किए लेकिन अपनी जमीन नहीं तलाश पाई। बीच में कुछ समय के लिए ऐसा लगा था कि सब कुछ ठीक हो गया है, लेकिन सियासी स्वार्थ ने कश्मीर को जन्नत से दोजख बना दिया।बंटवारे के बाद आम कश्मीरी मुसलमान भारत के साथ अपनी मर्जी से जुड़े थे। क्योंकि पाकिस्तानी कबाइलियों के हमलों से उन्हें ऐतवार हो गया था कि उनकी कश्मीरियत पाकिस्तान में महफूज नहीं है। कश्मीर के राजा हरि सिंह जिन्होंने संकट के समय में भारत में मदद से मांगी थी, उनकी इच्छा के विपरीत मरहूम शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा को स्वीकार किया था। कुछ समय बाद विद्रोह हुआ और जम्मू दो धाराओं में बंट गया। एक धारा का नेतृत्व प्रजा परिषद ने किया, जिसका मानना था कि कश्मीर को दिल्ली के हवाले कर दिया जाए और दूसरी धारा में वे लोग थे जो इसमें जम्मू को भी शामिल करना चाहते थे। पंडित नेहरू भी इस विचारधारा के लोगों से सहमत थे। लेकिन तत्कालीन जनसंघ अध्यक्ष स्वर्गीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी चाहते थे कि कश्मीर को स्वायत्ता दे दी जाए और जम्मू को अलग कर लिया जाए। इसके लिए मुखर्जी ने पंडितजी को एक पत्र भी लिखा था, जिसके जबाव में नेहरू ने लिखा था कि ऐसा करने से पाकिस्तान को लाभ होगा और हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं वह औचित्यहीन हो जाएगी। मुखर्जी जी को यह बात जंची, लेकिन इसी दौरान उनकी अकाल मृत्यु से मामला ठंडे वस्ते में चला गया। इसके बाद शेरे कश्मीर की महत्वाकांक्षा ने कश्मीर का कबाड़ा कर दिया। कुछ विद्वानों का मत है वे पाकिस्तान से अधिक घुल-मिल गए थे और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोने लगे थे, इसलिए अक्सर ऐसी बयानबाजी करते रहते थे जिससे कश्मीरी जनता में दिल्ली के प्रति मलाल बना रहे। इस दौरान शेख का पाकिस्तान जाना, गिरफ्तार होना और नेहरू की सिफारिश पर छूटना इस बात की तस्दीक भी करता है, लेकिन सियासी रंजिश के बावजूद शेख-नेहरू मित्रता के कारण यह बातें आम नहीं हो सकीं।खैर! इन सारी स्थितियों के बावजूद कश्मीर में शांति थी। 71 के युद्ध के बाद शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ और अब्दुल्ला की सरकार बनी। शेरे कश्मीर का विरोध करने वाला कोई नहीं था। 1977 में पहली मर्तबा कश्मीर में विरोधी पार्टी के रूप में जनता पार्टी ने चुनाव लड़ा और बुरी तरह पराजित हुई। 1983 में कांग्रेस ने कोशिश की उसे भी मुंह की खानी पड़ी। कश्मीरी जनता पूरी तरह से नेशनल कांफ्रेंस के कब्जे में थी। इन चुनावों ने जन्नतवासियों को उनकी ताकत और देश पर उनके अधिकार से परिचित कराया। इस वक्त भी कश्मीर शांत था, लेकिन 1983 के बाद जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल बने और उन्होंने फारूख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर दिया। फारूख पर देश विरोधी पार्टी से सांठ-गांठ करने का आरोप लगा था। 86 में फिर चुनाव हुए और फारूख फिर मुख्यमंत्री बने। लेकिन फारूख के मन में बर्खास्तगी की कसक बाकी थी और अपनी दरकती जमीन का भय। उन्होंने ऐलान किया कि राज्य की सरकार बनाने में राज्य के लोगों की कोई भूमिका नहीं है, केंद्र की मर्जी के बगैर यहां कोई सरकार नहीं बना सकता। अब्दुल्ला का यही वो विष बुझा तीर था जो कश्मीर के सीने में लगा और देश के लिए नासूर बन गया। राज्य में उथल-पुथल शुरू हुई और यहीं से घाटी में आतंकवाद का भी दौर शुरू हुआ। जो राज्य से असंतुष्ट थे वे कांग्रेस में शामिल हो गए, जो कांग्रेस से असंतुष्ट थे वे नेशनल कांफ्रेंस में शामिल हो गए और जो दोनों से नाराज थे उन्हें पाकिस्तान ने बरगला कर दहशतगर्द बना दिया। पाकिस्तान के लिए यह भारत विरोधी गतिविधियां चलाने का उम्दा समय साबित हुआ जिसका फायदा उसने सिद्दत से उठाया। इधर 87 के चुनावों में जमकर धांधली हुई, जीतों को हारा घोषित किया गया और हारों को विजयी। मतदान केंद्रों पर एजेंटों की पिटाई हुई, पाकिस्तान से हथियार और फिजा बिगाडऩे वाले लोगों का निर्यात किया गया।हालात लगातार बदलते चले गए, कश्मीर में पाकिस्तानी फितरतें पसरती चलीं गईं और इस हद तक पसरी कि कभी जनमत संग्रह का विरोध करने वाला पाकिस्तान आज स्वयं जनमत संग्रह पर आमादा है, हालांकि अब वह पाक अधिकृत कश्मीर का जनमत संग्रह नहीं चाहता।कश्मीर की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है कश्मीर में जड़ें जमाने और जमाए रखने का द्वंद। कांग्रेस और भाजपा लाख प्रयासों के बावजूद यहां अपनी जमीन नहीं तलाश पाए उनके प्रयास लगातार जारी हैं और अब्दुल्ला परिवार को जब-जब लगता है कि उनके हिस्से में सेंध लगाई जा रही है वे स्वायत्ता का जिन्न जगा देते हैं। पिछली बार करीब 10 साल पहले इन्हीं दिनों फारूख अब्दुल्ला तब मुख्यमंत्री थे, स्वायत्ता का तूफान उठा था। 1998 में फारूख अब्दुल्ला सत्ता का स्वाद चखने के लिए उस भाजपा के साथ मिल गए थे जो सदा से धारा 370 और कश्मीर की सवायत्ता का विरोधी रही है। लेकिन यह ऐसा वक्त था जब कश्मीर को लेकर भाजपा की प्रतिबद्धता डिग रही थी। भाजपा के कुछ लोग विरोध में थे, लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री स्वायत्ता पर हुर्रियत से बातचीत को तैयार थे। दूसरी मजेदार बात यह कि स्वायत्ता संबंधी प्रस्ताव की रिपोर्ट 1999 में सौंपी गई थी जिसे 26 जून 2000 में पारित किया गया। तब कई राजनीतिक विश्लेषकों और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने शंका व्यक्त की थी कि यह सब भाजपा सरकार के अप्रत्यक्ष इशारों पर किया जा रहा है। हालांकि यह कारण भी संदेह के घेरे में था कि केंद्र सरकार द्वारा हुर्रियत नेताओं से बातचीत की और उनके लोगों की रिहाई की नीतियों से फारूख चौकन्ने हुए और उन्होंने यह दांव खेला है। आज पुन: दस साल पहले के हालात बने हैं। सरकार हुर्रियत से बात करना चाहती है और संविधान के अंदर कश्मीर को स्वायत्ता देना चाहती है, लेकिन फारूख अब्दुल्ला पूर्ण स्वायत्ता चाहते हैं। पूर्ण स्वायत्ता का अर्थ है कि कश्मीर में देश के संविधानसम्मत किसी भी कानून का लागू न होना, कश्मीर एक अलग तरह का राज्य अर्थात 1953 वाली स्थिति में पहुंच जाना। अपने स्वार्थ के लिए सियासतदां जन्नत को जहर पीने के लिए विवश कर रहे हैं। इसके पीछे गहरे षड्यंत्र हैं, खासतौर पर अब्दुल्ला परिवार के और कश्मीर के महाराज हरि सिंह के बंशजों के। हरि सिंह के पौत्र अजातशुत्रु सिंह अपने बाप-दादाओं की रियासत पर कभी राज नहीं कर सके। उनकी हार्दिक इच्छा है कि वे कश्मीर के मुख्यमंत्री बनें। इधर फारूख साहब के मन में कहीं न कहीं यह इच्छा दबी है कि वे कश्मीर को पाकिस्तान की गोद में डालकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। और अपने इस स्वार्थ के लिए वे कश्मीरियों को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचक रहे हैं। कश्मीर को यदि स्वायत्ता प्रदान कर दी जाती है तो सबसे पहला काम यही होगा कि पाकिस्तान में बैठे आतंकी अजगर कश्मीर को निगल जाएंगे। दुनिया का सबसे छोटा और कमजोर राज्य होगा जहां न तो आजीविका का कोई स्थाई साधन है और न ही सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त संसाधन।बेहतर हो कि सरकार प्रतिबद्धता दिखाए और बजाए इसके कि 370 व समान नागरिक संहित विपक्ष के मुद्दे हैं, कश्मीर को देश के अन्य राज्यों जैसा दर्जा दे। कश्मीर का आज 370 लागू होने के बाद कोई भला नहीं हुआ है, लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि पूरे देश के लोगों के लिए कश्मीर सुलभ कराने पर स्थिति में कुछ सुधार आए।
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