Sunday, August 22, 2010
कब होंगे इतने उदार, हमारे अमीर
अमीरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नई अर्थव्यवस्था में यह आश्चर्यजनक नहीं है। भारत में अगर चीन और जापान से अधिक अमीर हैं तो यह नई व्यवस्था का कमाल है जो हरहाल में मशीनरी विकसित कर रही है जिससे पैसे वालों को और पैसे वाले बनें और उनकी भूख कभी शांत न हो। इस कमाल की व्यवस्था की एक और विशेषता यह है कि इससे अमीरों और गरीबों के बीच फैसले की खाई दुर्निवार होती जा रही है।अमीरों की दुनिया देखकर जिस कारण सबसे अधिक कोफ्त होती है वह है उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों से बढ़ती दूरी। न तो उन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब है न उसके बारे में सोचने की फुर्सत और जिज्ञासा। गांधीजी कहते थे अमीर एक तरह से ट्रस्टी हैं। अमीरों की अनिवार्यत: यह कोशिश होनी चाहिए कि उनके पैसे से गरीबों का भला हो। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में सबकुछ उल्टा हो रहा है। अमीरों द्वारा पैसा खर्च करना तो दूर उल्टे गरीबों का खून चूस रहे हैं। मुकेश अंबानी जैसे देश के उद्योगपति सम्राट की नजर में भारत की आबादी बाजार है, इंसान नहीं।पश्चिम को लगातार उसके रहन-सहन और संस्कृति के नाम पर कोसने वालों को वहां रहने वाल अमीरों के उदार हृदय दिखाई ही नहीं देते। वे इस विषय में कुछ सोचना ही नहीं चाहते कि क्यों अमेरिका के अमीरों ने अपनी आधी संपत्ति सामाजिक सरोकारों के लिए दान कर दी। क्या हमारे उद्योगपति वैश्विक कामयाबी के साथ दबे-कुचले लोगों भला करने का विचार करते हैं या कभी कर पाएंगे। मेरी व्यक्तिगत राय है कि इसकी उम्मीद न के बराबर है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब अमीर बन रहे हैं शातिर और चालाक व्यक्ति जो उल्टे-सीधे काम करने, कर चोरी करने और सरकारी नीतियों को अपने हक में बनवाने का महारथ हासिल है। आज अमीरों खासकर नए अमीरों में रईसाना जीवन जीना और देश व समाज की हर फिक्र को धुंए में उड़ाना ही जीवन मूल्य है। अगर वे गरीबों के लिए कुछ करते भी हैं तो उसमें कोई न कोई स्वाथ छिपा होता है। अन्यथा उनकी संस्थाओं, जहां हर आदमी हाड़तोड़ श्रम दे रहा है, में पैदा हो रहा रोजगार ही उनके सामाजिक सरोकारों का चरम है।गांधी और बिनोबा के समय में जमशेद जी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला, जे डालमियां जैसे उद्योगपतियों ने सामाजिक विकास के लिए कई काम किए। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च,टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, टाटा मेमोरियल सेंटर और बिड़ला इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाएं सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखकर ही स्थापित की गर्ईं थीं। इसके विपरीत यदि आज कोई इस तरह की बड़ी संस्था स्थापित करता है तो उसका मूल उद्देश्य लाभ कमाना होता है।भारतीय और विदेशी अमीरों के दृष्टिकोण में भी बड़ा फर्क है। इसके लए अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर का उदाहरण देखा जा सकता है। अलगोर जब डेमोक्रेटिव पार्टी के उम्मीदवार बने तो उनके खिलाफ इसलिए विरोध का माहौल तैयार होने लगा कि उन्होंने तब तक चैरिटी पर केवल 10 हजार डालर ही खर्च किए थे। इसके अलावा वहां ऐसे कई रईस हैं जिन्होंने आदर्श स्थापित कर कई संस्थाओं की मदद की। वहां हावर्ड जैसी ख्यात संस्थाएं भी अनुदान पर चलती हैं, हमारे यहां कोई एकाध आनंद जैसा साधारण व्यक्ति तो सुपर-30 खोल लेता है, लेकिन उद्योगपतियों को एक स्कूल चलाना भी बोझ लगता है। यदि पश्चिमी अमीर इस तरह की सोच से ग्रसित होते तो बिल गेट्स अपनी संपत्ति का 95 प्रतिशत हिस्सा दान नहीं कर पाते। यह राशि शिक्षा और एड्स पर खर्च की जाती है। कुछ वर्षों पूर्व दुनिया के दूसरे अमीर रहे वारेन वुफेट तो और भी आदर्श भूमिका में थे, उन्होंने अपने नाम से कोई फाउंडेशन नहीं बनाया और अपनी 90 प्रतिशत संपत्ति गेट्स के फाउंडेशन को दान कर दी। उस समय यह राशि करीब दो लाख करोड़ थी। अभी हाल ही में अमेरिका के अमीरों ने अपनी आधी संपत्ति दान करने की घोषणा की है, उनमें से किसी एक ने भारतीय अमीरों को भी ऐसा करने की सलाह दी है, लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आई।
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