Monday, August 2, 2010

कहां मर गया मानव अधिकार....

नक्सलियों को खरोंच आ जाती है तो मानव अधिकार आयोग के पेट में दर्द होने लगता है...सोपेरा में उपद्रवी मारे जाते हैं तो इसके सीने पर छुरियां चल जाती हैं...यहां तक कि मुठभेड़ में मारे गिराए गए आतंकियों के मानव अधिकारों के लिए यह आयोग दौड़ पड़ता है, लेकिन देश में हर साल सैकड़ों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और मानव अधिकार आयोग के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। क्या किसानों के कोई मानव अधिकार नहीं है? भ्रष्टाचार, उपेक्षा, भेदभाव और तिरिस्कार के घोर तिमिर में सदियों से घिरा किसान 21वीं सदी में भी अपनी आर्थिक और समाजिक उन्नति की कल्पना भी नहीं कर पा रहा है, क्या मानव अधिकार आयोग को यह दिखाई नहीं देता। डेढ़ सेर अनाज के बदले में अपनी और बाल-बच्चों की जिंदगी पंडित की चाकरी में गुजार देने वाला किसान आज भी बैंकों और सहकारी सोसायटियों के मामूली से कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहा है। महाराष्ट्र जैसे राय में साहूकार मामूली सा कर्ज देकर किसानों से उनकी बहू-बेटियों की मांग करते हैं, इन घटनाओं पर क्यों मानव अधिकार आयोग की जुबान सिल जाती है। किसानों के मामले में केवल मानव अधिकार आयोग ही नहीं समाज, सरकार और मीडिया का रवैया भी दोगला है। जिस दिन लोकसभा में कृषि मंत्री शरद पवार बड़ी बेशर्मी से यह स्वीकार कर रहे थे कि महाराष्ट्र में में 2010 के पहले सात महीनों में ही 131, कर्नाटक में 81, आंध्र प्रदेश में 7, पंजाब में 5 और उड़ीसा से आठ किसानों द्वारा आत्महत्या की हैं, उस पूरे दिन को देश का समूचा इलेक्ट्रानिक मीडिया डिंपी की पिटाई और राहुल महाजन की अय्याशी की तस्वीरें दिखा रहा था। महाजन परिवार की दो कोड़ी की हरकतों को मीडिया ने राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाकर पेश किया। कभी इतनी बड़ी कवरेज देश के अन्नदाता को किसी मीडिया समूह ने नहीं दी, जितनी राहुल के स्वयंवर और अब छिछोरेपन को दी। जनता भी यही देखना अधिक पसंद करती है। जेठ मास की गर्मी, सावन-भादौं की वर्षा और पूस की सर्दी में किसान की खुल देह आम आदमी के मन में उतनी संवेदना उत्पन्न नहीं करती, जितना डिंपी की जांघ के नीचे बना निशान। बहरहाल अन्नदाता की उपेक्षा और तिरिस्कार का सदियों से चला आ रहा यह सिलसिला कब थमेगा यह तो पता नहीं लेकिन सब्र का बांध जिस दिन टूटेगा उस दिन चित्र भयावह होगा।

3 comments:

  1. आपने मानव अधिकार आयोग को धिक्कारा है ! आपका गुस्सा जायज है मानव अधिकारों का मुद्दा शुद्ध रूप से आम नागरिक का मुद्दा था जिसे सरकारों ने हड़प लिया है. मानव अधिकार आयोग वही करते है जो सरकारें चाहती हैं.

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  2. यहाँ सब अपनी अपनी रोटी सेंक रहे हैं...किसी को देश की परवाह नही है.....आपका गुस्सा जायज है...

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  3. सच मुच शर्मनाक है |जब तक किसान की हाय इस देश पर रहेगी इस महंगाई को कोइ भी नहीं रोक पायेगा |

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