Sunday, October 17, 2010
सामंती इतिहास का अक्स वंशवादी राजनीति
राजनीति और समाजसेवा यह दो ही ऐसे आधार हैं जिससे खुलेतौर आम आदमी के हित की आवाज उठाई जा सकती है। चूँकि समाजसेवा कई स्थानों पर व्यक्तिगत भी होती है और इसमें कोई खास लोकप्रियता अथवा लाभ के अवसर कम होते हैं, हमेशा सरकार के आगे गिड़गिड़ाना जैसी जिल्लत भी होती है। इसके विपरीत राजनीति एक सशक्त माध्यम है, अपनी आवाज उठाने का, जनता को सीधे सरकार से जोडऩे का। इसलिए कोई भी व्यक्ति वजाये किसी समाजसेवी संस्था से जुडऩे से बेहतर समझता है राजनीति में जाना। कालांतर में बहुत से परिवार राजनीति से जुड़े थे। इसके अलावा कुछ गरम दल के क्रांतिकारी भी थे उनका भी पूरा का पूरा परिवार स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहा था।महात्मा गांधी का परिवार इसका उदाहरण है। गांधी जी ने अपने पूरे परिवार को दक्षिण अफ्रीका से बुलवाया और उन्हें सत्याग्रह और दूसरे आंदोलनों में शामिल कराया। एक तरह से वह हिस्सेदारी संघर्षों में साझेदारी हुआ करती थी। इसी तरह नेहरू परिवार, जिसमें मोतीलाल नेहरू, स्वरूप रानी नेहरू ,जवाहर लाल नेहरू, कमला नेहरू और इंदिरा नेहरू गांधी एक साथ आंदोलनों में अपनी-अपनी भूमिका निभाती थीं। सुभाषचंद्र बोस, उनके दोनों भाई, उनके भतीजे, कृपलानी और उनकी पत्नी सीता कृपलानी, जयप्रकाश नारायण और उनकी पत्नी प्रभावती, राममनोहर लोहिया और उनके पिता हीरालाल लोहिया, भगत सिंह और उनके चाचा सरदार अजीत सिंह ये सब वंशवाद के उदाहरण हैं। लेकिन तब यह पूरा कुनबा देश और जनसेवा के लिए समर्पित था। स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे परिवार का संघर्ष एक मिसाल कायम कर रहा था, ताकि अन्य देशवासी भी इसे देखें और स्वतंत्रता आंदोलन का विस्तार जितना हो सके उतना हो। यह समय था जब पूरा का पूरा परिवार राजनीति में था किंतु वर्तमान परिवेश में इन्हीं पवित्र विचारों और उद्देश्य की आढ़ में राजनीति ही वंशों में सिमटती जा रही है। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाला पूरा नेहरू गांधी खानदान आज इतना बड़ा हो गया है कि कांग्रेसी राजनीति उसी के इर्द-गिर्द घूमती है। राजनीति का क ख ग सीखने से पहले ही उसके आने वाली पीढ़ी सुर्खियों में आ जाती है। जैसे इस वक्त राहुल गांधी सुर्खियों में हैं। वे खुद उसको आगे बढ़ा रहे हैं फिर भी कहते हैं कि वंशवाद नहीं चलेगा। बहरहाल यह तो महज एक बड़ा उदाहरण है। असल में पूरे देश की राजनीति वंश आधारित हो गई है। सामंतवाद की मुखालिफत करने वाले यह जनप्रतिनिधि और इनके समर्थक आधुनिक सामंतवाद के धुर समर्थक बनकर उभरे हैं। इन्हें अपनी पार्टी समर्थकों में वर्षों से दरियां बिछा रहा और जिंदाबाद मुर्दाबाद का नारा लगा रहा कोई छोटा समर्थक नहीं दिखता जैसा कि कभी हुआ करता था, आज यदि सुनील दत्त जी का स्वर्गवास होता है तो प्रिया दत्त, स्वर्गीय राजेश पायलट का स्थान केवल सचिन पायलट, माधवराव सिंधिया जी का स्थान ज्योतिदारित्य सिंधिया ही भर सकते हैं। घर के मराठी शेर बाला साहब ठाकरे की विरासत को उनका ही कोई परिजन आगे बढ़ायेगा, पहले उद्धव और अब आदित्य ठाकरे तो मराठा छत्रप शरद पवार की पुत्री ही इसके योग्य हैं, ऐसे तमाम उदाहरणों से भारतीय राजनीति भरी पड़ी है। इसमें इन युवा नेताओं की महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं है, यह परिणाम है राजनीति की उस विधा का जहां समाजसेवा गौड़ और सीटों की संख्या महत्वपूर्ण हो गई है। यह परिणाम है समर्थकों के उस समर्पित स्वार्थ का जहां कोई समाजसेवा नहीं करना चाहता बल्कि किसी बड़े नेता के हाथ के नीचे रहकर केवल अपने काम होते रहें कि मानसिकता रखता है।वस्तुत: वंशवादी राजनीति उन परिस्थितियों में आगे बढ़ती है, जहां पर दलों की व्यवस्था और उनका आतंरिक जनतंत्र कमजोर होता है। मानी हुई बात है कि अगर कोई दल नेता के नाम पर खड़ा है, तो उस नेता का परिवार उनके व्यक्तित्व का एक निश्चित अंश माना जाता है। हमारा समाज आज भी परिवारों का समाज है। परिवार के आगे जातियां, जातियों के आगे उपजातियां, उपजातियों के आगे भाषा और उसके बाद धर्म। ये सभी हमारे संबंधों की सघनता के आधार हैं। होना यह चाहिए था कि समाज में समानता और समाजवाद की बात करने वाले लोग इसके प्रति लोगों को सजग करते, किंतु बजाये इसके खद्दरधारियों ने लोगों की इसी मानसिकता का लाभ उठाया। ऐसा नहीं है कि खालिस नेताओं का वंश ही राजनीति में प्रवेश पा रहा हो, ऐसे लोग भी हैं जिनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन इनके पास दौलत और रसूख इस कदर है कि इन्हें सघर्ष और राजनीति समझने की जरूरत ही नहीं होती। राजनीति में फिल्मी कलाकारों, उद्योगपतियों और धन्ना सेठों के प्रवेश का यही आधार है। पहले लगता था कि यह बीमारी कांग्रेस में ही है, पर अब दिखाई पड़ता है कि सभी पार्टियां वंशवादी राजनीति के दलदल में धंसती चली जा रही हैं, जो कि चिंता का विषय है। वंशवाद और जनतंत्र साथ-साथ नहीं चलते। इसलिए जहां वंशवाद बढ़ेगा, वहां जनतंत्र और विचारधारा कमजोर होगी, साथ ही, व्यक्ति के बजाय वंश सामंती इतिहास को दोहराने का आधार बन जाएगा।
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