कुछ लोग होते हैं जिन्हें उनकी हैसियत सरेआम भी बता दी जाए तो बेशमरी से उसे अपनी खूबी साबित करने में लग जाते हैं। हमारे देश के नेता भी कुछ ऐसे ही हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंड पीठ का फैसला आने के बाद भी कुछ लोगों को चैन नहीं है, वे मामले को आगे ले जाना चाहता है। विज्ञापन जगत ने गा-गा इनको समझा दिया, सबका ठंडा एक, लेकिन सदियों से पूर्वजों का मंत्र सबका मालिक एक इनको समझ में नहीं आता। ये शांति नहीं शमसान की आग ठंडी न हो इसकी व्यवस्था में लगे रहते हैं। बहरहाल हाईकोर्ट के फैसले के वक्त जनता ने इन्हें आईना दिखा दिया है, लेकिन खुद को खुदा और राम का अलंबरदार बनने की ख्वाहिश जोर मार रही है, जैसे खिसयानी बिल्ली...
कुछ लोगों को लगता है कि फैसले की तारीख को जनता डर के मारे घरों में बैठी रही। लेकिन मुझे लगता है कि ये उनकी नासमझी है। पिछले 18 साल में सरयू में बहुत पानी बह चुका है, लोग शांति के साथ विकास की परिक्रमा पूरी करने की ओर अग्रसर हैं। आखिर क्या मिला उन हिन्दुओं को जो 6 दिसंबर 1992 को एक नया इतिहास लिखने की ठाने थे और उन मुसलमानों को जिन्होंने ईंट का जबाव पत्थर देने की कोशिश की थी। क्या हिन्दुओं ने जिस उद्देश्य को लेकर इतिहास बदलने का प्रयास किया था उसमें वे सफल हुए? या वे मुसलमान जिन्होंने सिर्फ खोखले स्वाभिमान के लिए हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म दिया था जिसमें बाद में सारा देश क्या हिन्दू क्या मुसलमान उजड़े, मरे, बर्बाद हो गये आज क्या वह सम्मान हासिल कर सके? निश्चित तौर पर कोई कुछ हासिल नहीं कर सका, उल्टे दोनों की नादानियों का नतीजा यह है कि पिछले 18 वर्षों में दोनों समुदायों के बीच की दरार इतनी चौड़ी हो गई जितनी फूट डालने के बाद अंग्रेज भी नहीं कर सके थे। सफल हुए तो केवल वे जिन्होंने इस आग में दूर से हाथ सेंके और वह हर व्यक्ति असफल हुआ जो इस आग में कूदा चाहे नेता हो या आम आदमी। भरोसा नहीं आता तो नजर घुमाईये और देखिए आडवानी जी की तरफ और फिर कल्याण सिंह, उमा भारती और ऋतंभरा की तरफ। एक व्यक्ति लाखों अपराध करने के बाद भी महारथी साबित हो रहा है और बाकी सब नेपथ्य में हैं।
जनता ने इस सच को समझा है, जाना है, इसी समझ का उदाहरण थी फैसले की वह तारीख जब अयोध्या पर हाईकोर्ट का ऐतिहासक फैसला आने के बाद शांति के समुद्र में विवाद की एक लहर नहीं उठी। हमने पिछले 18 साल में उन्हें उस स्थिति में ला खड़ा किया जहां से वे बिना वैशाखी के नहीं चल सकते। अब उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि यह समय शौर्य दिवस या काला दिवस मनाने का नहीं है बल्कि आत्मलोचन का समय है। मंदिर की नींव पर सत्ता की इमारत बार-बार खड़ी नहीं होगी और स्वार्थ के लिए खुदा के खुदमुख्तार बनकर जनता की नजरों के नूर नहीं हो सकते।
एक स्वस्थ समीक्षा .
ReplyDeleteअब जरूरत है सच का सामना करने की , उसे मानने की
ReplyDeleteसनातन है इस्लाम , एक परिभाषा एक है सिद्धांत
ईश्वर एक है तो धर्म भी दो नहीं हैं और न ही सनातन धर्म और इस्लाम में कोई विरोधाभास ही पाया जाता है । जब इनके मौलिक सिद्धांत पर हम नज़र डालते हैं तो यह बात असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो जाती है ।
ईश्वर को अजन्मा अविनाशी और कर्मानुसार आत्मा को फल देने वाला माना गया है । मृत्यु के बाद भी जीव का अस्तित्व माना गया है और यह भी माना गया है कि मनुष्य पुरूषार्थ के बिना कल्याण नहीं पा सकता और पुरूषार्थ है ईश्वर द्वारा दिए गए ज्ञान के अनुसार भक्ति और कर्म को संपन्न करना जो ऐसा न करे वह पुरूषार्थी नहीं बल्कि अपनी वासनापूर्ति की ख़ातिर भागदौड़ करने वाला एक कुकर्मी और पापी है जो ईश्वर और मानवता का अपराधी है, दण्डनीय है ।
यही मान्यता है सनातन धर्म की और बिल्कुल यही है इस्लाम की ।
अल्लामा इक़बाल जैसे ब्राह्मण ने इस हक़ीक़त का इज़्हार करते हुए कहा है कि
अमल से बनती है जन्नत भी जहन्नम भी
ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है