Tuesday, August 17, 2010
कर्ज का कहर, कहीं कर्णधारों का
देश की विपरीत छवि प्रस्तुत करना देश के किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे दुखद स्थिति हो सकती है, किंतु देश के एक-एक कौने पर कब्जा जमाये बैठी क्षेत्रीय दलों की सरकारों और राष्टï्रीय दलों की सरकारों ने हालात ऐसे पैदा कर दिये हैं कि चुप रहना मुनासिब नहीं लगता। स्वार्थ में अंधे मसीहाओं ने मनहूसियत की ऐसी बस्ती बसा दीं जहां केवल एक ही सड़क आंगन से समसान तक सदैव चलती रहती है।यूँ तो इस देश को शर्मशार कर देने वाली अनेक घटनाएं हैं, लेकिन इनमें सर्वाधिक दुखद और विश्वभर के लिए विस्मयकारी घटना है किसानों द्वारा लगातार आत्महत्या करना और विकास के नाम पर सरकारों द्वारा उनका उत्पीडऩ। सारी दुनिया जानती है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कृषि आधारित है, जहां की आज भी 65 से 70 फीसदी आबादी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, ऐसे देश में किसानों द्वारा मौत को गले लगाना किसी के गले नहीं उतर रहा। लेकिन दुर्भाग्य कि देश के मसीहा बने बैठे लोगों को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। इसका सबसे सटीक उदाहरण है स्पेशल एकॉनामिक जोन यानि (सेज)। कहीं किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर रहा है, कहीं सरकारें मनमानी से परेशान है। किसानों का दुख और निराशा कितनी गहरी है और सरकार को अपने किसानों की कितनी चिंता है यह कहानी आंकड़े बताते हैं। पिछले वर्ष देश में प्रतिमाह औसतन 100 किसानों ने आत्महत्या की। राज्य सरकारों से यह कौन पूछेगा कि जब इतनी अधिक संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे थे तब सरकार ने कौन से उपाय किये थे और यदि किए थे तो वे आत्महत्याओं को रोकने में कारगर क्यों नहीं हुए?महाराष्टï्र, केरल, उड़ीसा, आंध्रपदेश आज ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ किसानों की स्थिति आत्महत्या करने तक दयनीय नहीं हो गई। यहां तक कि हरितक्रांति के अग्रदूत पंजाब की भी। और मजे की बात यह है कि इनमें से कई राज्य सूचना एवं प्रौद्योगिकी में महारथ हासिल होने के कारण विश्व भर में जाने जाते हैं। ऐसे विकसित प्रदेशों में किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं निश्चिय ही विकास के मुख पर करारा तमाचा है।क्या इसी विकास के लिए गरीबी में तिलतिल मरते किसान की जमीन छीन कर उद्योगों को दी जा रही है और विकास के केनवास पर समृद्धि की तस्वीर उकेरी जा रही है? वह भी किसानों पर लाठियां भांजकर और गोली चलाकर। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल करीब-करीब प्रत्येक प्रांत में किसानों ने अपनी भूमि नहीं देने के एवज में लाठियां खाईं। उत्तरप्रदेश में तो पिछले तीन दिनों से यही सब चल रहा है। न तो लाठियां चलवाने वाली सरकार को लज्जा आई और न ही लाठियां भांजने वाले खाकी बर्दी धारियों को, यद्यपि तमाम जनता के साथ यह भी इसी किसान की उगाई फसल से पेट भरकर रोटी खाते हैं।आज परमाणु करार को देशहित में नहीं बताने वाले गरीब मजदूर और किसानों के मसीहाओं ने भी अपने राज्य में अन्नदाता का भरपूर दमन किया। बल्कि यूं कहें कि सर्वाधिक तो अतिश्योक्ति न होगी। उत्तरप्रदेश में जो चल रहा है वह किसी भी सूरत में सही नहीं है। यमुना एक्सप्रेस वे के लिए भूमि संभव है बेहद जरूरी हो, लेकिन जिन किसानों की रोजी-रोटी छीनी जा रही है उसकी भला कोई कीमत लगाई जा सकती है। जो उपजाऊ खेत विकास के लिए बंजर किए जा रहे हैं वे केवल भू-स्वामी का पेट नहीं भरते बल्कि यहां उगी फसल लाखों लोगों का पेट भरती है। विकास विरोधी कोई नहीं हो सकता, लेकिन इसी तरह से उपजाऊ भूमि खत्म होती गई तो जिस अर्थव्यवस्था पर हम इतना इतराते हैं उसका क्या होगा। खैर! देश के लिए इससे बड़ा अहित और क्या हो सकता है कि उसका पालनहार आत्महत्या के लिए विवश हो जाये या फिर उसको गोलियों से भून दिया जाये।
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सराहनीय अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteपढ़ें सत्य को उद्घाटित करने वाली पत्रकार आाशा शुक्ला को वसुन्धरा सम्मान