Sunday, August 29, 2010

पाक की मदद से बेहतर है कुत्ते को रोटी खिला दो

पाकिस्तान ऐसी वेश्या है जो पैसे के लिए किसी के साथ भी हमबिस्तर हो सकती है, लेकिन प्यार करने वाले को गले नहीं लगा सकती। हालांकि वफा वह पैसा देने वालों से भी नहीं करती, बस वफा का नाटक करती है। इन शब्दों से संभव है कई लोगों को ऐतराज हो, लेकिन पाकिस्तान की हालिया हरकत के जबाव में मेरे पास इससे बेहतर उदाहरण नहीं है।भारत बाढ़ पीडि़तों की नि:स्वार्थ मदद करना चाहता है, स्वयं सबसे पहले पेशकश की, पहले पाकिस्तान ने ना-नुकुर किया, फिर सहायता स्वीकार कर ली राहत कर्मियों को वीजा नहीं दिया और अब कहता है कि अपनी सहायता संयुक्त राष्ट्र संघ के जरिए भेजिए। दूसरी ओर चीन हथियार दे रहा है, परमाणु सामग्री दे रहा है, अमेरिका भरपूर पैसा दे रहा है, इसलिए पाकिस्तान उनके सामने दुम हिलाता रहता है। चीन के लिए अमेरिका को और अमेरिका के लिए चीन को चूतिया बनाकर अपना हित साधता रहता है। इसलिए कहता हूं कि पाकिस्तान की मदद करने बेहतर है कि किसी कुत्ते को रोटी खिला दो। क्योंकि रोटी खाने के बाद कुत्ता वफादारी निभाता और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इससे राहू नियंत्रित होता है।बाढ़ से कराह रही जनता के परिप्रक्ष्य में यह दूसरी आपत्तिजनक बात हो सकती है। क्योंकि आपत्तिकाल में फंसे व्यक्ति की सहायता करना किसी का भी परमकर्तव्य है। किंतु जो भारत विरोधी नारे लगाने में शामिल हों और जिनका मुस्तकबिल न केवल हरामखोर बल्कि गद्दार और एहसानफरामोश हो उनके प्रति न तो मेरे मन में कोई संवेदना है ना ही प्रेम। मुंबई हमलों के गुनहगार हाफिज सईद की रैली में लाखों पाकिस्तानियों ने भारत के खिलाफ जहर उगला, राष्ट्रीय ध्वज को आग लगाई। हम उन्हें चंद सईद समर्थक कहकर क्षमा नहीं कर सकते, दूसरी बात पाकिस्तान के किसी भी कौने से कभी भी भारत के खिलाफ चलाए जा रहे नापाक अभियानों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती। दूसरी ओर भारत में पाकिस्तान विरोधी बातों पर आलोचनाएं शुरू हो जाती हैं। बेशक राहत शिविरों में कई अच्छे लोग होंगे लेकिन जिस तरह सैकड़ों कुचक्रों को जानने और सहने के बाद भारत का एक बड़ा वर्ग पाकिस्तानियों के पक्ष में खड़ा हो जाता है, सरकार हमेशा दोस्ती और मदद के लिए तैयार रहती है, पाकिस्तान का कोई बंदा ऐसा करने से परेहज करता है और हुक्मरानों का कमीनापन तो दुनिया वर्षों से देख रही है। इस मुसीबत के समय में भी पाकिस्तानी हुक्मरान सिर्फ इसलिए मदद स्वीकार करने में आनाकानी कर रहे हैं, ताकि अपनी जनता से कह सकें कि हमने विपत्ती के समय में भी पड़ोसी मुल्क से मदद नहीं ली। कालांतर में यही काम जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी किया था। उन्होंने अपनी जनता को आश्वस्त किया था कि हम हजार वर्षों तक घास की रोटी खा लेंगे लेकिन भारत के सामने नहीं झुकेंगे। हालांकि भारत ने कभी पाकिस्तान को झुकाने की नीयत से न तो मदद की न लड़ाई। फिर भी पाकिस्तान का रवैया सदैव उकसाने और पीठ में छुरा घोंपने वाला रहा। बहरहाल जुल्फिकार अली को फांसी पर लटका दिया और पाकिस्तानी सेना को भारतीय फौजों ने कुत्तों की तरह मारकर भगा दिया।एक और महत्वपूर्ण मसला। पाकिस्तान को आज तक जिन देशों ने मदद की है उनकी मदद का दुरुपयोग भारत के खिलाफ हुआ। इसके अलावा अहसान फरामोश भी है। अमेरिका लाखों डालर की मदद आतंकियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों और आम जनता की बेहतरी के लिए करता है, लेकिन पाकिस्तन इसका इस्तेमाल आतंकियों को पालने-पोसने और भारत के खिलाफ फौजों की तैयारी में खर्च करता है। इस वक्त चीन की जांघ पर बैठकर उसे सहला रहा है, पीओके का मालिकाना हक उसे सौंपने जा रहा है, क्योंकि चीन ने अमेरिकी विरोध के बावजूद पाकिस्तान से परमाणु करार कर लिया है और हथियार तो देता ही रहता है। पाक दोनों को बेवकूफ बना रहा है, कभी चीन को सहलाता है और जिस दिन अमेरिका आंख दिखाता है उसके सामने 90 अंश पर झुक जाता है।हालांकि चीन और अमेरिका भी स्वार्थी हैं, वे अपने-अपने स्वार्थों के लिए ही उसकी मदद करते हैं उन्हें पाकिस्तान की आबादी से कोई मतलब नहीं है, फिर भी पाकिस्तान हंसकर उनकी हर मदद स्वीकार करता है, लेकिन भारत नि:स्वार्थ मदद करता है, उसके उज्जवल भविष्य की कामना करता है, इसलिए किसी अय्याश वेश्या की तरह पाकिस्तान उसके सामने अकड़ता रहा है। बहरहाल हमारी संस्कृति सांपों को दूध पिलाने और बिच्छू को पानी से बाहर निकालने की रही है, इसलिए हमारी सरकार संयुक्त राष्ट्र के जरिए ही दुखी-पीडि़त जनता को मदद करने की तैयारी कर रही है।

Friday, August 27, 2010

समझो ड्रेगन की चाल

विवादित कश्मीर में नत्थी वीजा, वरिष्ठ सैन्य अफसर को वीजा नहीं देना, ब्रह्मपुत्र पर बांध, सीमा पर सड़क, सीमा पर मिसाइल, परमाणु पनडुब्बियों को छिपा कर रखने के लिए सुरंगें, पाकिस्तान के साथ परमाणु करार और हर कदम पर भारत के विरोध में मदद, नेपाल को भारत के खिलाफ भड़काना, एवरेस्ट पर सड़क, 40 अरब डालर के व्यापार की चकाचौंध में चौंधियाये देश के कर्णधारों को चीन की ये गतिविधियां दिखाई नहीं दे रहीं हैं, जिनके चलते उसने भारत पर पूरी तरह शिकंजा कसने की तैयारी कर रखी है। और आगामी तैयारियों के तहत वह भारत को पूरी तरह विवश करने का प्रयास करेगा। इसके लिए उसने पाकिस्तान, बांगलादेश और ताजा-ताजा गणतंत्र देशों में शामिल हुए नेपाल को हथियार बना रहा है।पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में अपना जाल बिछाकर चीन लगातार भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता कर चुका है। बांग्लादेश के रूपपुर में भी चीन परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने में सहयोग की पेशकश कर चुका है। नेपाल में जबसे माओवादियों का राजनीतिक वर्चस्व बढ़ा है लगातार नेपाल चीन की ओर झुकता जा रहा है। वैश्विक एजेंसियां लगातार इस बात की शंका जाहिर कर रही हैं कि पाक परमाणु हथियार कहीं आतंकवादियों के हाथ न लग जाएं। लेकिन चीन को इसकी चिंता नहीं है। उसका लक्ष्य मात्र भारत को घेरना है। इसलिए वे आतंक के निर्यातक ही सही चीन उनकी मदद करेगा। लेकिन भारत सरकार को यह दिखाई नहीं दे रहा है, सब उलझे हुए हैं देशी जनता को वोटों के लिए आपस में लड़ाने में धर्म, आरक्षण और जातिवाद की भट्टïी झोंकने में। किसी की जुर्ररत नहीं कि पड़ोसी की ओर आंखें तरेर कर कह सके, फलां जगह आपकी स्वतंत्रता और सत्ता समाप्त होती है और इसीलिए चीन छाती पर चढ़ता आ रहा है। हालिया वीजा विवाद में हालांकि विदेश मंत्रालय ने सख्ती दिखाई है, लेकिन रक्षा मंत्री अब भी दो टूक बोलने से परहेज कर रहे हैं, न जाने क्यों उन्हें एक धोखेबाज से द्विपक्षीय संबंधों में लाल लगे दिख रहे हैं।

Sunday, August 22, 2010

कब होंगे इतने उदार, हमारे अमीर

अमीरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नई अर्थव्यवस्था में यह आश्चर्यजनक नहीं है। भारत में अगर चीन और जापान से अधिक अमीर हैं तो यह नई व्यवस्था का कमाल है जो हरहाल में मशीनरी विकसित कर रही है जिससे पैसे वालों को और पैसे वाले बनें और उनकी भूख कभी शांत न हो। इस कमाल की व्यवस्था की एक और विशेषता यह है कि इससे अमीरों और गरीबों के बीच फैसले की खाई दुर्निवार होती जा रही है।अमीरों की दुनिया देखकर जिस कारण सबसे अधिक कोफ्त होती है वह है उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों से बढ़ती दूरी। न तो उन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब है न उसके बारे में सोचने की फुर्सत और जिज्ञासा। गांधीजी कहते थे अमीर एक तरह से ट्रस्टी हैं। अमीरों की अनिवार्यत: यह कोशिश होनी चाहिए कि उनके पैसे से गरीबों का भला हो। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में सबकुछ उल्टा हो रहा है। अमीरों द्वारा पैसा खर्च करना तो दूर उल्टे गरीबों का खून चूस रहे हैं। मुकेश अंबानी जैसे देश के उद्योगपति सम्राट की नजर में भारत की आबादी बाजार है, इंसान नहीं।पश्चिम को लगातार उसके रहन-सहन और संस्कृति के नाम पर कोसने वालों को वहां रहने वाल अमीरों के उदार हृदय दिखाई ही नहीं देते। वे इस विषय में कुछ सोचना ही नहीं चाहते कि क्यों अमेरिका के अमीरों ने अपनी आधी संपत्ति सामाजिक सरोकारों के लिए दान कर दी। क्या हमारे उद्योगपति वैश्विक कामयाबी के साथ दबे-कुचले लोगों भला करने का विचार करते हैं या कभी कर पाएंगे। मेरी व्यक्तिगत राय है कि इसकी उम्मीद न के बराबर है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब अमीर बन रहे हैं शातिर और चालाक व्यक्ति जो उल्टे-सीधे काम करने, कर चोरी करने और सरकारी नीतियों को अपने हक में बनवाने का महारथ हासिल है। आज अमीरों खासकर नए अमीरों में रईसाना जीवन जीना और देश व समाज की हर फिक्र को धुंए में उड़ाना ही जीवन मूल्य है। अगर वे गरीबों के लिए कुछ करते भी हैं तो उसमें कोई न कोई स्वाथ छिपा होता है। अन्यथा उनकी संस्थाओं, जहां हर आदमी हाड़तोड़ श्रम दे रहा है, में पैदा हो रहा रोजगार ही उनके सामाजिक सरोकारों का चरम है।गांधी और बिनोबा के समय में जमशेद जी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला, जे डालमियां जैसे उद्योगपतियों ने सामाजिक विकास के लिए कई काम किए। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च,टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, टाटा मेमोरियल सेंटर और बिड़ला इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाएं सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखकर ही स्थापित की गर्ईं थीं। इसके विपरीत यदि आज कोई इस तरह की बड़ी संस्था स्थापित करता है तो उसका मूल उद्देश्य लाभ कमाना होता है।भारतीय और विदेशी अमीरों के दृष्टिकोण में भी बड़ा फर्क है। इसके लए अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर का उदाहरण देखा जा सकता है। अलगोर जब डेमोक्रेटिव पार्टी के उम्मीदवार बने तो उनके खिलाफ इसलिए विरोध का माहौल तैयार होने लगा कि उन्होंने तब तक चैरिटी पर केवल 10 हजार डालर ही खर्च किए थे। इसके अलावा वहां ऐसे कई रईस हैं जिन्होंने आदर्श स्थापित कर कई संस्थाओं की मदद की। वहां हावर्ड जैसी ख्यात संस्थाएं भी अनुदान पर चलती हैं, हमारे यहां कोई एकाध आनंद जैसा साधारण व्यक्ति तो सुपर-30 खोल लेता है, लेकिन उद्योगपतियों को एक स्कूल चलाना भी बोझ लगता है। यदि पश्चिमी अमीर इस तरह की सोच से ग्रसित होते तो बिल गेट्स अपनी संपत्ति का 95 प्रतिशत हिस्सा दान नहीं कर पाते। यह राशि शिक्षा और एड्स पर खर्च की जाती है। कुछ वर्षों पूर्व दुनिया के दूसरे अमीर रहे वारेन वुफेट तो और भी आदर्श भूमिका में थे, उन्होंने अपने नाम से कोई फाउंडेशन नहीं बनाया और अपनी 90 प्रतिशत संपत्ति गेट्स के फाउंडेशन को दान कर दी। उस समय यह राशि करीब दो लाख करोड़ थी। अभी हाल ही में अमेरिका के अमीरों ने अपनी आधी संपत्ति दान करने की घोषणा की है, उनमें से किसी एक ने भारतीय अमीरों को भी ऐसा करने की सलाह दी है, लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आई।

Friday, August 20, 2010

12 साल सोनिया के या...

सोनिया गांधी के पुन: कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की कवायद शुरू हो चुकी है और वे ही अध्यक्ष होंगी इसमें किसी को लेश मात्र संदेह नहीं है। इतने लंबे समय तक कांग्रेस पर लगाम कसने वाली वे पहली कांग्रेस नेता हैं।लंबे नानुकुर के बाद 1998 में श्रीमती सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी। उस समय कांग्रेस की हालत ऐतिहासिक रूप से बद्तर थी। स्व. नरसिंह राव घोटालों में फंसे थे। वरिष्ठï कांग्रेसी इधर-उधर बिना राजा की फौज की तरह भाग रहे थे। आजीवन कांग्रेस को दान करने वाले सीताराम केसरी यद्यपि अध्यक्ष पद संभाल रहे थे लेकिन वे कहीं से अध्यक्ष का दायित्व नहीं निभा पा रहे थे। कुछ कांग्रेसी थे जो पार्टी के बिखराव की इस नस को जानते थे और आखिरकार केसरी जी को बिदा करके उन्होंने सोनिया गांधी को कांग्रेस की कमान सौंप दी। केसरी जी को जिस प्रकार जल्दबाजी में अध्यक्ष पद से हटाया गया इसकी तीखी आलोचना हुई थी, उनके स्वर्गवास को लोगों ने पद से हटाने का सदमा तक करार दिया। बहरहाल सोनिया गांधी ने न केवल कांगे्रस की कमान संभाली बल्कि पार्टी को एकजुट किया, लगातार दो पराजयों का दंस झेलने वाली राष्टï्रीय पार्टी को लगातार दो चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के रूप उभारा और सत्ता पर काबिज कराया। आज उनकी पार्टी और सत्ता पर ऐसी पकड़ है कि उनकी मर्जी के बिना सत्ता और संगठन पत्ता भी नहीं हिलता।सोनिया गांधी की कई मामलों में आलोचना की जा सकती है, लोग करते भी हैं। लेकिन उन्होंने भारतीय राजनीति में जो मिशाल कायम की वह सुनियोजित ही सही, कोई ओर नेता नहीं कर सका। कहा जाता है कि उन्होंने पूरी सोची समझी रणनीति के तहत प्रधानमंत्री का पद त्याग दिया, लाभ के पद के आरोपों के चलते इस्तीफा दिया, विदेशी मूल के मुद्दे पर पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया। सोनिया के राजनीतिक विरोधी कहते हैं कि उन्होंने ऐसा केवल सत्ता लोभ के कारण किया। हालांकि यह सर्वविदित है कि 1980 में संजय गांधी की मौत के इंदिरा गांधी अपने बड़े पुत्र राजीव गांधी को राजनीति में लाना चाहती थीं, तब सोनिया ने इसका विरोध किया था। वह अपने पति की मृत्यु के एकदम बाद राजनीति में नहीं आईं। पहले उन्होंने अपने बच्चों की जिम्मेदारी का निर्वाह किया और फिर राजनीति में आईं। ऐसा करने में उन्हें सात साल लग गए। देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी सात साल में एक सर्वमान्य नेता पैदा नहीं कर सकी तो इसमें गलती किसकी है? हमारे देश के ही अनेकों नेता देशवासी होने जैसा स्वांग भी नहीं रच सके, जबकि सोनिया गांधी ने आडंवर ही सही भारतीय संस्कृति की छाप, जितनी उन्हें बताई गई या उन्होंने देखी हर जगह छोड़ी। यहां तक कि विदेशी मूल का धुर विरोधी भारतीय राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ को भी समय-समय पर सोनिया की तारीफ करने को विवश होना पड़ा।शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने पार्टी इसीलिए छोड़ी थी क्योंकि उन्हें विदेशी मूल का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। आज वही पवार साहब ऐसी सरकार में मंत्री हैं जो सोनिया जी के इशारे से चलती है। प्रमुख विपक्षी दल ने कई तरह से सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की, कहीं-कहीं सफल होते दिखे, लेकिन अंतत: उन्हें मुंह की ही खानी पड़ी। कांग्रेस की अमरवेल बिना नेहरू-गांधी परिवार से लिपटे फलफूल नहीं सकती यह भी साबित हो गया। आज वह लगातार 12 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने वाली नेहरू-गांधी परिवार की अकेली सदस्य हैं। उनसे पहले हालांकि मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी अलग-अलग समय पर कांग्रेस का नेतृत्व संभाल चुके हैं, लेकिन इतने लंबे समय तक कोई नहीं रहा। इन 12 वर्षों में कांग्रेस को सत्ता के द्वार तक पहुंचाकर वह उसकी खोई हुई गरिमा को वापस लाईं और एक बार फिर से वंशवाद की स्थापना हुई। कल तक सोनिया गांधी को पार्टी में लाने के लिए उतावले नेता आज राहुल को अपना मुखिया चुनने के लिए बेताब हैं।

Tuesday, August 17, 2010

कर्ज का कहर, कहीं कर्णधारों का

देश की विपरीत छवि प्रस्तुत करना देश के किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे दुखद स्थिति हो सकती है, किंतु देश के एक-एक कौने पर कब्जा जमाये बैठी क्षेत्रीय दलों की सरकारों और राष्टï्रीय दलों की सरकारों ने हालात ऐसे पैदा कर दिये हैं कि चुप रहना मुनासिब नहीं लगता। स्वार्थ में अंधे मसीहाओं ने मनहूसियत की ऐसी बस्ती बसा दीं जहां केवल एक ही सड़क आंगन से समसान तक सदैव चलती रहती है।यूँ तो इस देश को शर्मशार कर देने वाली अनेक घटनाएं हैं, लेकिन इनमें सर्वाधिक दुखद और विश्वभर के लिए विस्मयकारी घटना है किसानों द्वारा लगातार आत्महत्या करना और विकास के नाम पर सरकारों द्वारा उनका उत्पीडऩ। सारी दुनिया जानती है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कृषि आधारित है, जहां की आज भी 65 से 70 फीसदी आबादी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, ऐसे देश में किसानों द्वारा मौत को गले लगाना किसी के गले नहीं उतर रहा। लेकिन दुर्भाग्य कि देश के मसीहा बने बैठे लोगों को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। इसका सबसे सटीक उदाहरण है स्पेशल एकॉनामिक जोन यानि (सेज)। कहीं किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर रहा है, कहीं सरकारें मनमानी से परेशान है। किसानों का दुख और निराशा कितनी गहरी है और सरकार को अपने किसानों की कितनी चिंता है यह कहानी आंकड़े बताते हैं। पिछले वर्ष देश में प्रतिमाह औसतन 100 किसानों ने आत्महत्या की। राज्य सरकारों से यह कौन पूछेगा कि जब इतनी अधिक संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे थे तब सरकार ने कौन से उपाय किये थे और यदि किए थे तो वे आत्महत्याओं को रोकने में कारगर क्यों नहीं हुए?महाराष्टï्र, केरल, उड़ीसा, आंध्रपदेश आज ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ किसानों की स्थिति आत्महत्या करने तक दयनीय नहीं हो गई। यहां तक कि हरितक्रांति के अग्रदूत पंजाब की भी। और मजे की बात यह है कि इनमें से कई राज्य सूचना एवं प्रौद्योगिकी में महारथ हासिल होने के कारण विश्व भर में जाने जाते हैं। ऐसे विकसित प्रदेशों में किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं निश्चिय ही विकास के मुख पर करारा तमाचा है।क्या इसी विकास के लिए गरीबी में तिलतिल मरते किसान की जमीन छीन कर उद्योगों को दी जा रही है और विकास के केनवास पर समृद्धि की तस्वीर उकेरी जा रही है? वह भी किसानों पर लाठियां भांजकर और गोली चलाकर। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल करीब-करीब प्रत्येक प्रांत में किसानों ने अपनी भूमि नहीं देने के एवज में लाठियां खाईं। उत्तरप्रदेश में तो पिछले तीन दिनों से यही सब चल रहा है। न तो लाठियां चलवाने वाली सरकार को लज्जा आई और न ही लाठियां भांजने वाले खाकी बर्दी धारियों को, यद्यपि तमाम जनता के साथ यह भी इसी किसान की उगाई फसल से पेट भरकर रोटी खाते हैं।आज परमाणु करार को देशहित में नहीं बताने वाले गरीब मजदूर और किसानों के मसीहाओं ने भी अपने राज्य में अन्नदाता का भरपूर दमन किया। बल्कि यूं कहें कि सर्वाधिक तो अतिश्योक्ति न होगी। उत्तरप्रदेश में जो चल रहा है वह किसी भी सूरत में सही नहीं है। यमुना एक्सप्रेस वे के लिए भूमि संभव है बेहद जरूरी हो, लेकिन जिन किसानों की रोजी-रोटी छीनी जा रही है उसकी भला कोई कीमत लगाई जा सकती है। जो उपजाऊ खेत विकास के लिए बंजर किए जा रहे हैं वे केवल भू-स्वामी का पेट नहीं भरते बल्कि यहां उगी फसल लाखों लोगों का पेट भरती है। विकास विरोधी कोई नहीं हो सकता, लेकिन इसी तरह से उपजाऊ भूमि खत्म होती गई तो जिस अर्थव्यवस्था पर हम इतना इतराते हैं उसका क्या होगा। खैर! देश के लिए इससे बड़ा अहित और क्या हो सकता है कि उसका पालनहार आत्महत्या के लिए विवश हो जाये या फिर उसको गोलियों से भून दिया जाये।

Monday, August 16, 2010

धर्म चूल्हे पर स्वार्थ की हांडी

कालांतर में एक अजामिल नाम का डाकूथा जिसने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा। अंत समय में उसने अपने पुत्र को आवाज लगाई। सोचा बता दूं लड़के को कहां किससे कितनी उगाही करनी है, चोरी और लूट का धन कहां छिपा रखा है। लेकिन कमला हो गया अंतिम समय में नारायण-नारायण सुनकर स्वयं नारायण चले आये और डाकू का जीवन धन्य हो गया। ऐसा हुआ या नहीं यह तो पता नहीं लेकिन यह कहानी कदाचित उन लोगों ने गढ़ी है जो अपने कुकर्मों को इस कहानी की आड़ यह तर्क दिया जा सके कि जब हत्या, चोरी, डकैती जैसे पाप करने के बाद एक डाकू को अंत समय में भगवान मिल सकते हैं तो फिर हम तो थोड़ी सी रिश्वत लेते हैं उसके ऐबज में सामने वाले का काम करते हैं, धर्म के नाम पर थोड़ा सा बेवकूफ बनाते हैं, पेट पालने के लिए। इसमें कौन सा बढ़ा पाप करते हैं।यही इंसान की विशेषता है, और इसी तरह से वह कुछ भी करके समाज में सम्मानित स्थान पर बैठा रहता है। बस जरूरत होती है उसे एक ऐसे मंच की जहां खड़े होकर वह अपने आपको धर्म और संस्कृति का ठेकेदार घोषित कर सके, जहां उसके हाथ छोटी-बड़ी कैसी भी हो ताकत हो। यह प्रवृत्ति किसी एक धर्म के ठेकेदार में नहीं बल्कि तमाम धार्मिक ठेकदारों में पल रही है।अभी चंद रोज पहले भारतीय संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदारों ने फ्रेंडशिप डे पर कुछ लड़के-लड़कियों को अनावश्यक परेशान किया और वह पाप भी किया जो छिछोरों का आभूषण है। करीब-करीब इसी समय फतवों की फैक्ट्री से एक फतवा जारी हुआ कि महिलाएं पेशेवर होने से बचें, उन्हें नौकरी नहीं करनी चाहिए, मंगेतर से बात नहीं करने, इससे पहले बीमा नहीं करवाने, फोटो नहीं खिंचवाना चाहिए जैसे वाहियाद फतवे जारी किए गए। लेकिन मुसीबत यह है कि धर्म के आधार पर कही गई इन बातों का विरोध करने वाला कोई नहीं है। सत्ता चौराहे पर तमाशबीन की तरह खड़े हो कर तमाशा देखती है और चार मुर्दे चौपाल पर बैठकर लोगों को जिंदगी का अर्थ समझाने लगते हैं। धर्म की आग में स्वार्थ की हांडी चढ़ाकर इंसान की भावानाओं पकाने और खाने तकके पतन में जा पहुंचे लोगों की दुकानदारी चह रही है।हिन्दू हो या मुसलमान या फिर कोई अन्य अपनी और अपनी संतति, संपत्ति की सुरक्षा का उसको प्राकृतिक अधिकार उसके जन्म के साथ ही मिला हुआ है। अपने भविष्य के प्रति सावधान होना, हंसना-बोलना उसके जन्मजात अधिकार हैं। कोई यह नहीं सकता किउसे यह अधिकार हिन्दुस्तान में है और अन्य जगह नहीं है। वयं रक्षाम हर काल में हर स्थान पर लागू है। वो नपुंसक और कायर होते हैं जो अपनी रक्षा करने के लिए दूसरों को आवाज देते हैं और वे मनहूस होते हैं जो हंसने-बोलने से परहेज करते हैं। हिन्दुस्तान की हर कौम ने इसे अपनाया है। लेकिन कुछ धर्म के ठेकेदारों ने अपनी दुकान चमकाने के लिए ऐसे अनाप-शनाप पाखंड फैला रखे हैं जिसमें आदमी की आस्था तकजला कर भस्म कर देते हैं। हिन्दुओं में हों या मुसलमानों में यह ऐसे घातक जीव हैं जो अपने स्वार्थ के लिए न केवल राष्टï्र की प्रगति में बाधकबनते हैं बल्कि एक-एक घर में परस्पर आग लगाने की सीख देते हैं। धर्म व्यक्तिगत होता है, कोई धर्म किसी पर थोपा नहीं जा सकता, इसलिए आधुनिक युग में इन महानुभावों को चलता कर दिया जाये यही बेहतर होगा, कहीं ऐसा न हो कभी कोई रोटी खाना भी जायज और नाजायज की श्रेणी में ला दे।

Friday, August 13, 2010

कश्मीर को स्वायत्तता क्यों!

पिछली पोस्ट में हमने आजादी के बाद कश्मीर को अब्दुल्ला परिवार और केंद्र सरकार की खींचतान ने किस तरह जन्नत को देश के माथे का नासूर बना दिया पर चर्चा की। अब चूंकि एक बार पुन: कश्मीर को स्वायत्तता देने की बात चल रही है इसलिए यह सवाल मौजूं है कश्मीर को स्वायत्तता क्यों।गहराई से देखें तो राजनीतिक स्वार्थों के साथ कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा होना भी उसका दूसरा बड़ा दुर्भाग्य रहा है। कहा जाता है कि आजादी के बाद देश के तमाम राजे-रजवाड़े और रियासतों का भारत में विलय हुआ था जबकि कश्मीर भारत में शामिल हुआ था। कश्मीर के साथ कालांतर में यह उदारता क्यों और किन विशेष परिस्थितियों में बरती गई यह बीती बात हो गई है, अब असल सवाल है कि जब कश्मीर के लिए केंद्र से तमाम प्रकार की सहायताएं और सुविधाएं झोली फैला कर मांगी जाती हैं तो फिर उसके कानूनों को लागू करने से क्या परहेज है। क्या केंद्र ने उन पाकिस्तान परस्तों का ठेका ले रखा है जो जिस थाली में खा रहे हैं उसी थाली में छेद कर रहे हैं। जब देशवासियों की गाढ़ी कमाई का अरबों रुपए कश्मीर पर लुटाया जा रहा है तो उन कमीनों को लात मारकर बाहर क्यों नहीं करते जो पाकिस्तनी झंडे फहरा कर देशवासियों की भावनाओं और देश का अपमान कर रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कश्मीर नक्शे में हिंदुस्तान का हिस्सा रहे इन नागों को स्वायत्तता देकर दूध पिलाने से क्या लाभ है। दूसरी बात यदि कश्मीर को स्वायत्तता देने के बाद ऐसी ही मांग अन्य सीमावर्ती राज्यों में उठी तो स्थिति कितनी भयंकर होगी।सिर्फ इसलिए कि सुंदरता को दाग न लग जाए और पं. नेहरू के शेख को दिए वचन के कारण कश्मीर को सारे देश से अलग रखना, उसे विशेष सुविधाएं देना और मुसीबतें मोल लेना समझदारी या उदारता नहीं मूर्खता है। नेहरू काल में परिस्थितियां और थीं, घाटी में आतंकवाद का अजगर नहीं था और हुर्रियत के विषैले नाग भी इतने जहरीले नहीं थे। और सबसे महत्वपूर्ण है कि यदि पूर्व में गलती हो गई तो इसे जिंदगी भर ढोने का क्या मतलब है। अतीत से सबक लेना अच्छी बात है, बंधा रहना तो मूर्खता ही है। नेहरू काल में जो गलती हुई उसे सर्वसम्मति से दुरुस्त किया जाए न कि सर्वसम्मति से कश्मीर को स्वायत्तता दी जाए।कश्मीर अभी भी देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा संघीय व्यवस्था में भारी है, चाहे वह कर वसूली हो या फिर विभिन्न कानूनों का समान रूप से लागू करना। बावजूद इसके विकास के लिए विशेष पैकेजों की बाढ़ लगातार उफान पर रहती है, यदि आम कश्मीरी को इसका लाभ नहीं मिला तो इसके लिए जिम्मेदार है अब्दुल्ला परिवार है, फिर भी उन्हीं को गले लगाए रखने वालों और उनकी बातों पर कान देने वालों पर तो तरस आता है या फिर उनकी नीयत पर शक होता है।फारूख की निष्ठा सदैव शंकास्पद रही है और अब भी है। वे कश्मीर को कोई हिन्दुस्तान से अलग नहीं कर सकता जैसे बयान देकर अपनी नीयत पर पर्दा नहीं डाल सकते। क्या फारूख को नहीं मालूम की कई हिस्सों में ऐसे लोग मौजूद हैं जो पाकिस्तान परस्त हैं और इन पर कभी भी फारूख की मीरी-पीरी अंकुश नहीं लगा सकी। फारूख की बात मानकर या वर्तमान परिस्थितियों को देखकर कश्मीर को स्वायत्तता के नाम पर और अधिकार देना घोर मूर्खता होगी।मैंने जैसा कि कहा फारूख की देश के प्रति निष्ठा सदैव संदेहास्पद रही है उसका नमूना उन्होंने दस साल पहले पेश किया था। तब फारूख साहब का कहना था कि वे केवल कश्मीर की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि तमाम राज्यों के हित रक्षण में यह बहस छेड़ी है। क्या फारूख की इस नीयत से सहमत हुआ जा सकता है।बहरहाल अब फारूख की नीयत को गोली मारें और उन सांपों के फन कुचलें जो देश में दुश्मनों के झंडाबरदार बने हैं। कश्मीर के भारत में शामिल होने की जो भी कानूनी पेचीदगी, बारीकी रही हो, आज किताबी हो चुकी है, तब से अब तक झेलम में बहुत पानी बह चुका है। कश्मीर को खुशहाल बनाने के सपने में हिन्दुस्तानियों ने साझेदारी ही नहीं की है इसे अपने खून पसीने से सींचा है। जिन लोगों को कश्मीरी मुसलमानों के हितों की चिंता हो रही है उन्होंने कभी उन कश्मीरी पंडितों के विषय में नहीं सोचा जो पलायन कर चुके हैं। इसलिए कश्मीर में हो रहे उपद्रव को देखकर उसे स्वायत्तता देने की बजाए सेना को देशद्रोहियों के सफाए में लगाया जाए। कश्मीर का यही एक मात्र हल है, लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

Thursday, August 12, 2010

जन्नत को दोजख बना दिया

नेशनल कांफ्रेंस, हुर्रियत और केंद्र सरकार और इनके बीच में फंसा कश्मीर और आम कश्मीरी। विवाद पुराना है, कश्मीर को लेकर चूहे-बिल्ली का खेल आजादी के बाद से निरंतर चल रहा है। पहले एक मोर्चे पर फारूख अब्दुल्ला के अब्बा जान शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्ला थे और दूसरे छोर पर पं. नेहरू और इंदिरा थीं। कांग्रेस लाख कोशिशों के बावजूद कश्मीर में अपने पैर नहीं जमा पाई। इसके बाद जनता पार्टी से जनसंघ और फिर भाजपा ने भी कई प्रयास किए लेकिन अपनी जमीन नहीं तलाश पाई। बीच में कुछ समय के लिए ऐसा लगा था कि सब कुछ ठीक हो गया है, लेकिन सियासी स्वार्थ ने कश्मीर को जन्नत से दोजख बना दिया।बंटवारे के बाद आम कश्मीरी मुसलमान भारत के साथ अपनी मर्जी से जुड़े थे। क्योंकि पाकिस्तानी कबाइलियों के हमलों से उन्हें ऐतवार हो गया था कि उनकी कश्मीरियत पाकिस्तान में महफूज नहीं है। कश्मीर के राजा हरि सिंह जिन्होंने संकट के समय में भारत में मदद से मांगी थी, उनकी इच्छा के विपरीत मरहूम शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा को स्वीकार किया था। कुछ समय बाद विद्रोह हुआ और जम्मू दो धाराओं में बंट गया। एक धारा का नेतृत्व प्रजा परिषद ने किया, जिसका मानना था कि कश्मीर को दिल्ली के हवाले कर दिया जाए और दूसरी धारा में वे लोग थे जो इसमें जम्मू को भी शामिल करना चाहते थे। पंडित नेहरू भी इस विचारधारा के लोगों से सहमत थे। लेकिन तत्कालीन जनसंघ अध्यक्ष स्वर्गीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी चाहते थे कि कश्मीर को स्वायत्ता दे दी जाए और जम्मू को अलग कर लिया जाए। इसके लिए मुखर्जी ने पंडितजी को एक पत्र भी लिखा था, जिसके जबाव में नेहरू ने लिखा था कि ऐसा करने से पाकिस्तान को लाभ होगा और हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं वह औचित्यहीन हो जाएगी। मुखर्जी जी को यह बात जंची, लेकिन इसी दौरान उनकी अकाल मृत्यु से मामला ठंडे वस्ते में चला गया। इसके बाद शेरे कश्मीर की महत्वाकांक्षा ने कश्मीर का कबाड़ा कर दिया। कुछ विद्वानों का मत है वे पाकिस्तान से अधिक घुल-मिल गए थे और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोने लगे थे, इसलिए अक्सर ऐसी बयानबाजी करते रहते थे जिससे कश्मीरी जनता में दिल्ली के प्रति मलाल बना रहे। इस दौरान शेख का पाकिस्तान जाना, गिरफ्तार होना और नेहरू की सिफारिश पर छूटना इस बात की तस्दीक भी करता है, लेकिन सियासी रंजिश के बावजूद शेख-नेहरू मित्रता के कारण यह बातें आम नहीं हो सकीं।खैर! इन सारी स्थितियों के बावजूद कश्मीर में शांति थी। 71 के युद्ध के बाद शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ और अब्दुल्ला की सरकार बनी। शेरे कश्मीर का विरोध करने वाला कोई नहीं था। 1977 में पहली मर्तबा कश्मीर में विरोधी पार्टी के रूप में जनता पार्टी ने चुनाव लड़ा और बुरी तरह पराजित हुई। 1983 में कांग्रेस ने कोशिश की उसे भी मुंह की खानी पड़ी। कश्मीरी जनता पूरी तरह से नेशनल कांफ्रेंस के कब्जे में थी। इन चुनावों ने जन्नतवासियों को उनकी ताकत और देश पर उनके अधिकार से परिचित कराया। इस वक्त भी कश्मीर शांत था, लेकिन 1983 के बाद जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल बने और उन्होंने फारूख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर दिया। फारूख पर देश विरोधी पार्टी से सांठ-गांठ करने का आरोप लगा था। 86 में फिर चुनाव हुए और फारूख फिर मुख्यमंत्री बने। लेकिन फारूख के मन में बर्खास्तगी की कसक बाकी थी और अपनी दरकती जमीन का भय। उन्होंने ऐलान किया कि राज्य की सरकार बनाने में राज्य के लोगों की कोई भूमिका नहीं है, केंद्र की मर्जी के बगैर यहां कोई सरकार नहीं बना सकता। अब्दुल्ला का यही वो विष बुझा तीर था जो कश्मीर के सीने में लगा और देश के लिए नासूर बन गया। राज्य में उथल-पुथल शुरू हुई और यहीं से घाटी में आतंकवाद का भी दौर शुरू हुआ। जो राज्य से असंतुष्ट थे वे कांग्रेस में शामिल हो गए, जो कांग्रेस से असंतुष्ट थे वे नेशनल कांफ्रेंस में शामिल हो गए और जो दोनों से नाराज थे उन्हें पाकिस्तान ने बरगला कर दहशतगर्द बना दिया। पाकिस्तान के लिए यह भारत विरोधी गतिविधियां चलाने का उम्दा समय साबित हुआ जिसका फायदा उसने सिद्दत से उठाया। इधर 87 के चुनावों में जमकर धांधली हुई, जीतों को हारा घोषित किया गया और हारों को विजयी। मतदान केंद्रों पर एजेंटों की पिटाई हुई, पाकिस्तान से हथियार और फिजा बिगाडऩे वाले लोगों का निर्यात किया गया।हालात लगातार बदलते चले गए, कश्मीर में पाकिस्तानी फितरतें पसरती चलीं गईं और इस हद तक पसरी कि कभी जनमत संग्रह का विरोध करने वाला पाकिस्तान आज स्वयं जनमत संग्रह पर आमादा है, हालांकि अब वह पाक अधिकृत कश्मीर का जनमत संग्रह नहीं चाहता।कश्मीर की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है कश्मीर में जड़ें जमाने और जमाए रखने का द्वंद। कांग्रेस और भाजपा लाख प्रयासों के बावजूद यहां अपनी जमीन नहीं तलाश पाए उनके प्रयास लगातार जारी हैं और अब्दुल्ला परिवार को जब-जब लगता है कि उनके हिस्से में सेंध लगाई जा रही है वे स्वायत्ता का जिन्न जगा देते हैं। पिछली बार करीब 10 साल पहले इन्हीं दिनों फारूख अब्दुल्ला तब मुख्यमंत्री थे, स्वायत्ता का तूफान उठा था। 1998 में फारूख अब्दुल्ला सत्ता का स्वाद चखने के लिए उस भाजपा के साथ मिल गए थे जो सदा से धारा 370 और कश्मीर की सवायत्ता का विरोधी रही है। लेकिन यह ऐसा वक्त था जब कश्मीर को लेकर भाजपा की प्रतिबद्धता डिग रही थी। भाजपा के कुछ लोग विरोध में थे, लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री स्वायत्ता पर हुर्रियत से बातचीत को तैयार थे। दूसरी मजेदार बात यह कि स्वायत्ता संबंधी प्रस्ताव की रिपोर्ट 1999 में सौंपी गई थी जिसे 26 जून 2000 में पारित किया गया। तब कई राजनीतिक विश्लेषकों और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने शंका व्यक्त की थी कि यह सब भाजपा सरकार के अप्रत्यक्ष इशारों पर किया जा रहा है। हालांकि यह कारण भी संदेह के घेरे में था कि केंद्र सरकार द्वारा हुर्रियत नेताओं से बातचीत की और उनके लोगों की रिहाई की नीतियों से फारूख चौकन्ने हुए और उन्होंने यह दांव खेला है। आज पुन: दस साल पहले के हालात बने हैं। सरकार हुर्रियत से बात करना चाहती है और संविधान के अंदर कश्मीर को स्वायत्ता देना चाहती है, लेकिन फारूख अब्दुल्ला पूर्ण स्वायत्ता चाहते हैं। पूर्ण स्वायत्ता का अर्थ है कि कश्मीर में देश के संविधानसम्मत किसी भी कानून का लागू न होना, कश्मीर एक अलग तरह का राज्य अर्थात 1953 वाली स्थिति में पहुंच जाना। अपने स्वार्थ के लिए सियासतदां जन्नत को जहर पीने के लिए विवश कर रहे हैं। इसके पीछे गहरे षड्यंत्र हैं, खासतौर पर अब्दुल्ला परिवार के और कश्मीर के महाराज हरि सिंह के बंशजों के। हरि सिंह के पौत्र अजातशुत्रु सिंह अपने बाप-दादाओं की रियासत पर कभी राज नहीं कर सके। उनकी हार्दिक इच्छा है कि वे कश्मीर के मुख्यमंत्री बनें। इधर फारूख साहब के मन में कहीं न कहीं यह इच्छा दबी है कि वे कश्मीर को पाकिस्तान की गोद में डालकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। और अपने इस स्वार्थ के लिए वे कश्मीरियों को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचक रहे हैं। कश्मीर को यदि स्वायत्ता प्रदान कर दी जाती है तो सबसे पहला काम यही होगा कि पाकिस्तान में बैठे आतंकी अजगर कश्मीर को निगल जाएंगे। दुनिया का सबसे छोटा और कमजोर राज्य होगा जहां न तो आजीविका का कोई स्थाई साधन है और न ही सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त संसाधन।बेहतर हो कि सरकार प्रतिबद्धता दिखाए और बजाए इसके कि 370 व समान नागरिक संहित विपक्ष के मुद्दे हैं, कश्मीर को देश के अन्य राज्यों जैसा दर्जा दे। कश्मीर का आज 370 लागू होने के बाद कोई भला नहीं हुआ है, लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि पूरे देश के लोगों के लिए कश्मीर सुलभ कराने पर स्थिति में कुछ सुधार आए।

Monday, August 9, 2010

आयोग या सफेद हाथी

मध्यप्रदेश में वर्ष 2003 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद विभिन्न घटनाओं को लेकर गठित किए गए सात न्यायिक जांच आयोग में से तीन आयोग अनेक बार कार्यकाल बढ़ाए जाने के बावजूद अपनी रिपोर्ट शासन को नहीं सौंप पाए हैं, जबकि इन तीन आयोगों पर सरकार का 1 करोड़ 40 लाख रुपए से अधिक धन व्यय हो चुका है। हालांकि सरकारी खर्चे के हिसाब से यह राशि बहुत बड़ी नहीं है लेकिन जहां लाखों लोगों को दो जून की रोटी ठीक से नसीब न हो रही हो वहीं बिना किसी काम के चंद निठल्ले लोग सिर्फ जांच के नाम पर कागज काले करते रहें और सरकारी पैसा हजम करते रहें, वहां यह राशि बहुत बड़ी हो जाती है।जिन आयोगों ने शासन को अपनी रिपोर्ट नहीं सौंपी है उनमें 22 सितंबर 07 को रीवा स्थित जेपी सीमेंट फैक्ट्री परिसर में गोली चालन की घटना की जांच करने वाला आयोग, सामाजिक सुरक्षा पेंशन तथा राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना में अनियमितताओं के लिए गठित जांच आयोग और सरदार सरोवर परियोजना में फर्जी विक्रय पत्र तथा पुनर्वास स्थल अनियमितता संबंधी जांच आयोग शामिल है। तीन आयोगों में से जेपी सीमेंट की घटना की जांच के लिए आयोग का गठन 31 अक्टूबर 07, सामाजिक सुरक्षा पेंशन के लिए जांच आयोग आठ फरवरी 08 तथा सरदार सरोवर परियोजना के लिए आयोग का गठन आठ अक्टूबर 2008 को किया गया था। सर्वाधिक 98.88 लाख की राशि सरदार सरोवर परियोजना के लिए गठित जांच आयोग पर, जबकि 41.90 लाख रुपए की राशि सामाजिक सुरक्षा पेंशन के जांच आयोग और 3.17 लाख रुपए जेपी सीमेंट फैक्ट्री गोली कांड पर व्यय हो चुकी है।31 अक्टूबर 07 को जेपी सीमेंट गोली कांड मामले की जांच के लिए गठित आयोग का कार्यकाल चार बार, सामाजिक सुरक्षा पेंशन आयोग का कार्यकाल चार बार और सरदार सरोवर परियोजना में फर्जी विक्रय पत्र मामले की जांच के लिए गठित आयोग का कार्यकाल दो बार बढ़ाया जा चुका है। इसके पहले राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2004 के बाद 31 जनवरी 2004 को श्योपुर में डकैत मुठभेड़ में सहायक पुलिस निरीक्षक दिवारीलाल रावत की संदेहास्पद मृत्यु के मामले की जांच के लिए 31 मई 04 को गठित आयोग ने 25 जनवरी 2006 को अपनी जांच पूर्ण कर शासन को सौंप दी थी। इस आयोग के कार्यकाल में चार बार वृद्धि की गई और इस पर लगभग 12.50 लाख रुपए व्यय हुए।14 जुलाई 04 को उपायुक्त वाणिज्यकर आरके जैन की विशेष पुलिस स्थापना की अभिरक्षा में संदेहजनक मौत के मामले के लिए छह अगस्त को गठित जांच आयोग ने 30 अप्रेल 2009 को अपना प्रतिवेदन शासन को सौंपा और इसके कार्यकाल में दस बार वृद्धि की गई जबकि इस पर लगभग 4.40 लाख रुपए व्यय हुए।मुरैना जिले के पोरसा में चार सितंबर 09 को एक व्यक्ति की हिंसक घटनाओं में मृत्यु के बाद भीड़ पर पुलिस द्वारा किए गए बल प्रयोग मामले की जांच के लिए सात अक्टूबर गठित जांच आयोग ने 29 मई 2005 को अपनी जांच रिपोर्ट शासन को सौंपी। इस आयोग पर शासन के मात्र 52 हजार रुपए व्यय हुए जबकि इसके कार्यकाल में आठ बार वृद्धि की गई। उन्होंने बताया कि इसी प्रकार दतिया जिले में एक अक्टूबर 2006 को दुर्गा नवमी पर्व के दौरान सिंध नदी में तीर्थ यात्रियों के डूबने और लापता हो जाने के संबंध में 13 अक्टूबर को गठित जांच आयोग ही एक मात्र ऐसा आयोग रहा जिसके कार्यकाल में वृद्धि नहीं की गई और और इस आयोग ने 21 मार्च को अपना प्रतिवेदन शासन को सौंपा जबकि इस आयोग पर शासन का 1.98 लाख रुपए खर्च हुए। फिलहाल तीन आयोग जांच कार्य पूर्ण नहीं होने के कारण अपनी रिपोर्ट नहीं दे पाए हैं और अब देखना यह है कि यह अपनी रिपोर्ट कब तक शासन को सौंप पाएंगे। या फिर जांच के नाम पर सफेद हाथी बनकर माल हजम करते रहेंगे।

Monday, August 2, 2010

कहां मर गया मानव अधिकार....

नक्सलियों को खरोंच आ जाती है तो मानव अधिकार आयोग के पेट में दर्द होने लगता है...सोपेरा में उपद्रवी मारे जाते हैं तो इसके सीने पर छुरियां चल जाती हैं...यहां तक कि मुठभेड़ में मारे गिराए गए आतंकियों के मानव अधिकारों के लिए यह आयोग दौड़ पड़ता है, लेकिन देश में हर साल सैकड़ों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और मानव अधिकार आयोग के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। क्या किसानों के कोई मानव अधिकार नहीं है? भ्रष्टाचार, उपेक्षा, भेदभाव और तिरिस्कार के घोर तिमिर में सदियों से घिरा किसान 21वीं सदी में भी अपनी आर्थिक और समाजिक उन्नति की कल्पना भी नहीं कर पा रहा है, क्या मानव अधिकार आयोग को यह दिखाई नहीं देता। डेढ़ सेर अनाज के बदले में अपनी और बाल-बच्चों की जिंदगी पंडित की चाकरी में गुजार देने वाला किसान आज भी बैंकों और सहकारी सोसायटियों के मामूली से कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहा है। महाराष्ट्र जैसे राय में साहूकार मामूली सा कर्ज देकर किसानों से उनकी बहू-बेटियों की मांग करते हैं, इन घटनाओं पर क्यों मानव अधिकार आयोग की जुबान सिल जाती है। किसानों के मामले में केवल मानव अधिकार आयोग ही नहीं समाज, सरकार और मीडिया का रवैया भी दोगला है। जिस दिन लोकसभा में कृषि मंत्री शरद पवार बड़ी बेशर्मी से यह स्वीकार कर रहे थे कि महाराष्ट्र में में 2010 के पहले सात महीनों में ही 131, कर्नाटक में 81, आंध्र प्रदेश में 7, पंजाब में 5 और उड़ीसा से आठ किसानों द्वारा आत्महत्या की हैं, उस पूरे दिन को देश का समूचा इलेक्ट्रानिक मीडिया डिंपी की पिटाई और राहुल महाजन की अय्याशी की तस्वीरें दिखा रहा था। महाजन परिवार की दो कोड़ी की हरकतों को मीडिया ने राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाकर पेश किया। कभी इतनी बड़ी कवरेज देश के अन्नदाता को किसी मीडिया समूह ने नहीं दी, जितनी राहुल के स्वयंवर और अब छिछोरेपन को दी। जनता भी यही देखना अधिक पसंद करती है। जेठ मास की गर्मी, सावन-भादौं की वर्षा और पूस की सर्दी में किसान की खुल देह आम आदमी के मन में उतनी संवेदना उत्पन्न नहीं करती, जितना डिंपी की जांघ के नीचे बना निशान। बहरहाल अन्नदाता की उपेक्षा और तिरिस्कार का सदियों से चला आ रहा यह सिलसिला कब थमेगा यह तो पता नहीं लेकिन सब्र का बांध जिस दिन टूटेगा उस दिन चित्र भयावह होगा।