Sunday, July 25, 2010
मजबूर प्रधानमंत्री, कमजोर सरकार
महंगाई के सामने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी यूपीए सरकार ने घुटने टेक दिए। प्रधानमंत्री ने बिना किसी लाग लपेट के कह दिया कि यदि पानी बरसा तो दिसंबर तक महंगाई घटेगी वरना मुश्किल है। यह पहली बार नहीं है जब मनमोहन सिंह जी ने ऐसी हताशा भरी बातें की हैं। इससे पहले भी गरीबों को बचाने की एक सीमा होने का बयान दे चुके हैं। पीएम की इस शर्मनाक बयानी को जनता अपनी नियति मानकर ओढ़ भी लेगी लेकिन आंकड़ेबाज प्रधानमंत्री अपने कलेजे पर हाथ रखकर बताएं कि धन्नासेठों की तरक्की की सीमा क्या मानते हैं? क्यों नहीं तेल कंपनियों की लाभ-हानि को भगवान भरोसे छोड़ दिया, जिस प्रकार महंगाई पर लगाम भगवान के भरोसे छोड़ दी।शास्त्र कहते हैं ऐसे राजा के विषय में दुख करना चाहिए जो नीति न जानता हो और जिसे अपनी प्रजा प्राणों के समान प्रिय न हो। और ऐसा राजा नरक का अधिकारी होता है। शास्त्र कहते हैं जो राजा प्रजापालन में सक्षम न हो उसे राज करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन धन्य हो आधुनिक राजाओ, तुम्हें तो लज्जा भी नहीं आती। यह कितनी शर्मनाक स्वीकारोक्ति है कि हमने गरीबों को बचाने का भरसक प्रयास किया लेकिन इसकी भी कोई सीमा होती है। और कितना बड़ा धोखा है, जनता को महंगाई की आग में झोंककर उसे भगवान भरोसे छोडऩे का। क्या किसी भी देश के मुखिया के ऐसे बचन कभी सुनने को मिले हैं? लानत है ऐसे प्रजापालक पर जो अपने देशवासियों को भगवान भरोसे छोड़कर चैन की सांस लेने का विचार मन में लाता है। क्यों इन्हें शर्म नहीं आती कि देश की तरक्की के नाम पर करों का बोझ जनता पर लादने से, कंपनियों को घाटे के नाम पर आवश्यक वस्तुएं महंगी करने से एक ओर गरीब आदमी की पीठ और पेट के बीच अंतर खत्म होता जा रहा है, दूसरी ओर तमाम रियायतें पाकर धन्नासेठों की तोंद फूल रही है, उनकी तिजोरियां निरंतर बड़ी होती जा रही हैं। तमाम रईस पोषित योजनाओं में धन खपाने और ऐसे रईसों को रियाततें बंद करने के बजाये मनमोहन सरकार गरीबों को भगवान भरोसे छोड़ रही है। क्या सिर्फ इसलिए कि योजनाएं बंद होंगी तो कमीशन बंद हो जायेगा? धन्ना सेठों को रियायतें नहीं मिलेंगीं तो चुनावी फंड बंद हो जायेगा? मशीनें बंद हो जायेंगीं, कारखाने बंद हो जायेंगे? विद्वान अर्थशास्त्री जी वैसे भी यह तभी तक गतिमान रहेगा, इन सबका तभी तक कोई मतलब रहेगा जब तक गरीब जिंदा है, जिस दिन गरीब खत्म हो जायेगा, उस दिन सब कुछ खत्म हो जायेगा। सारे विकल्पों को नजरअंदाज करके ईंधन में मूल्यवृद्धि की आग लगाकर आपने नीयत साफ कर दी है तो भविष्य में नतीजे के लिए भी तैयार रहिए। हर आदमी की जुबां पर बस यही बात है कि कांग्रेस का हाथ, महंगाई के साथ...।
Saturday, July 24, 2010
खादी, खाकी और खरदूषण
बिहार विधानसभा में जूते-चप्पल चल रहे हैं, गुजरात में दो माननीय सरेआम मंच पर गाली गलौच कर रहे हैं। गुजरात के ही गृह राज्यमंत्री फर्जी मुठभेड़ कांड में फंसे हैं। संस्कारों और सुचिता का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टी के सर्वेसर्वा दूसरी पार्टी के नेताओं को कुत्ते की दुम बताते हैं तो कभी औरंगजेब की औलाद। जनता के नुमाइंदे हत्या करवा रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं, गुंडागर्दी कर रहे हैं। जब इनका आचरण ऐसा है तो फिर इसमें कैसा आश्चर्य कि आने वाली राजनीतिक नस्ल संस्कारहीन और खून से सने हाथों वाली होगी।बिहार में जब विधायक बेहयाई से लोकतंत्र की लाज तार-तार कर रहे थे, उसी वक्त गुजरात में राहुल गांधी के चुने हुए छात्र नेता भारतीय संस्कारों की धज्जियां उड़ा रहे थे। बिहार में सड़कछाप छिछोरों की तरह गालियां दी जा रहीं थीं और गुजरात में एनएसयूआई के नेता एक पिता की उम्र के बुजुर्ग को न केवल पीट रहे थे बल्कि सड़क पर गिराकर उन्हें लातों से मार रहे थे। उन बुजुर्ग की किस बात पर इन यवुाओं का पौरुष आंदोलित हो उठा पता नहीं, लेकिन इन्होंने उज्जैन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्र नेताओं की गुंडागर्दी की स्मृति ताजा कर दी जिसमें प्रोफेसर सबरबाल की मौत हो गई थी। दरअसल संख्याबल से मिलने वाली सत्ता और उस पर जनता की बेवसी की मुहर ने राजनीति को प्रदूषित कर दिया है। तमाम राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने खेमे में धनबलियों और बाहुबलियों का जमघट लगा रखा है, जिन पर हत्या, बलात्कार, रंगदारी जैसे संगीन अपराधों के मामले दर्ज हैं। गवाह सबूत भले ही चीख-चीखकर इनके गुनाहों की कहानी सुनाएं लेकिन सियासी जोड़तोड़ और खाकी बर्दी की मदद, कानून की किताबों में लिखी धाराओं के बीच की जगह से इन्हें बचा ले जाती है। खादी, खाकी और खरदूषणों का ऐसा खलनायक तंत्र लोकतंत्र के मंदिर अपनी जड़ें जमा चुका है जिसने समाजसेवा की उर्वरा भूमि को बंजर कर दिया। अब यहां या तो अपराध के नागफनी पनपते हैं या फिर वे अमरबेलें हैं जो अपने बाप-दादाओं के कंधों पर सवार होकर फलफूल रही हैं। जिनका न तो राजनीति से कोई लेना-देना है और न ही समाजसेवा से कोई सरोकार। इसलिए बिहार जैसे वाकये सामने आते हैं।सवाल यह है कि क्या दृश्य कभी बदलेगा? अगर ईमानदार प्रयास हों तो जरूर बदल सकता है, क्योंकि राजनीति और अपराध के गठजोड़ के लिए जितनी जिम्मेदार सियासी पार्टियां हैं, उतने ही जिम्मेदार हम हैं। हमारे ही एक-एक वोट से अपराधी और गुंडा किस्म के लोग संसद तक पहुंचे हैं। हमारा मानस हमेशा इनके विरोध में रहा है, लेकिन विकल्पहीनता की स्थिति में हमने उस अधिकार का प्रयोग नहीं किया जिसमें अपना वोट किसी भी पक्ष में नहीं डाला जाता। हालांकि इसका एक कारण हर आदमी का कानूनी पेचेदगियों से परिचित न होना भी है, लेकिन यह सत्य है कि हमने गलत का कभी मुखर विरोध नहीं किया। जब मैं कह रहा हूं कि हमने, तो यहां मतलब एक-एक व्यक्ति से नहीं है, बल्कि उन लोगों से है जो विरोध करने में समर्थ हैं, जिनकी देश में व्यापक अपील है, जनता जिनका अनुशरण कर सकती थी।मैं बहुत पीछे नहीं जाऊंगा, अभी हाल ही की कुछ घटनाएं उदाहरण स्वरूप सबके सामने हैं। ठाकरे खानदान में मुंबई पर अपनी बापौती जमाई और उत्तरप्रदेश, बिहार की जनता तथा तमाम नेताओं का अपमान किया। पूरे देश में इसका व्यापक विरोध होना चाहिए था, लेकिन सियासी कारणों से किसी का मुंह नहीं खुला। इसमें तीन नाम ऐसे हैं, जो न केवल शक्ति संपन्न थे बल्कि इनके इशारे मात्र पर देश की जनता, ठाकरे परिवार की गुंडागर्दी को जमींदोज कर देती। सरकार को मजबूरन ठाकरों पर कार्रवाई करनी पड़ती। लेकिन विवादों से परे रहने के आदि हमारे इन सम्मानितों ने मनसे और शिवसेना की विघटनकारी और देशद्रोही गतिविधियों से खुद को दूर रखा।सबसे पहला नाम सदी के महानायक शहंशाह अमिताभ बच्चन। राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों बनाम मुंबईकरों की जंग की शुरूआत यहीं से की थी। उन्होंने अमिताभ को भला-बुरा कहा, जया बच्चन को जरूर बुरा लगा, लेकिन पूरी दुनिया जिस आवाज का लोहा मानती है वह जुबान राज ठाकरे के सामने झुक गई।फिर शिवसेना के निशाने पर आए भारत के सबसे बड़े उद्योपति मुकेश अंबानी। मुकेश अंबानी यदि कड़ा रुख अपनाते तो सरकार के हाथपांव फूल जाते लेकिन वे भी विवादों से परे रहे। फिर इन चचा-भतीजे के निशाने पर आया ऐसा सख्श जिसकी एक आवाज पर जनता ठाकरे परिवार तो क्या देश के किसी भी कौने में किसी भी सरकार या संगठन की ईंट से ईंट बजा देती। लेकिन हरदिल अजीज यह इंसान भी किसी विवाद में नहीं पडऩा चाहता था। इसलिए इसने ठाकरे की घुड़की चुपचाप बर्दाश्त कर ली। यह व्यक्ति था क्रिकेट का भगवान सचिन तेंदुलकर। मीडिया ने सचिन पर ठाकरे की टिप्पणी को जमकर उठाया था और ठाकरे की आलोचना की थी, लेकिन सादगी पसंद सचिन ने एक शब्द नहीं बोला।इन विभूतियों के उदाहरणों का मतलब यह नहीं कि यह उठें और जनता के साथ मशाल लेकर कोई विरोध जुलूस निकालें। तात्पर्य यह है कि इस हैसियत का आदमी यदि किसी बात का विरोध करता है तो टुकड़ों में बंटी जनता एकजुट होकर उसका अनुशरण करती है। ये देश के वास्तवकि नायक हैं। जब यही लोग गलत बात को चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे तो आम आदमी जिसकी कोई सुनने वाला नहीं, विरोध करके क्या उखाड़ लेगा। उसे पांच साल में एक बार वोट देना है, अपराधी डराकर ले लेते हैं, कुटिल झूठ बोलकर संसद पहुंच जाते हैं, फिर कोई सुपारी देता है, कोई गाली देता है और लोकतंत्र शर्मशार होता है।
Sunday, July 18, 2010
कुत्ते की पूछ और पाकिस्तान
कुत्ते की पूछ और पाकिस्तान एक समान है, न पूंछ कभी सीधी होती है और न ही पाकिस्तान कभी अपनी ओछी हरकतों से बाज आता है। कुत्ते की पूछ की कुछ खासियतें होती हैं, मालिक के सामने होगा तो हिलाता रहेगा, ताकतवर के सामने होगा तो दिखेगी भी नहीं कि कहां घुस गई और जब अपने साथियों के साथ होगा तो पूछ एकदम तनी होती है। अमेरिका और चीन के सामने पाकिस्तान की पूछ हमेशा हिलती रहती है। इस अदा के कारण उसे रोटी का टुकड़ा भी मिल जाता है और कभी-कभी मालिक को फुसला भी लेता है। मसलन यदि अमेरिका ने कहा कि अब यहां हमले हुए तो पाकिस्तान भुगतेगा, पाक ने कहा जी हुजूर, उसने कहा फलां आदमी हमारे यहां अपराध करके गया है, पाक ने पकड़कर दे दिया, लेकिन जब अमेरिका कहता है लादेन पाकिस्तान में है तो कह देता है हुजूर मैं तो आपका गुलाम हूं कसम खाता हूं लादेन यहां नहीं है। चीन के सामने भी उसके यही हाल हैं। चीन और अमेरिका दोनों को पूछ हिला-हिला कर बेवकूफ बना रहा है। अमेरिका से पैसा ले रहा है और चीन से हथियार। अमेरिका को चीन पर नजर रखने के लिए एक कुत्ता चाहिए और चीन को भारत के खिलाफ एक मोहरा चाहिए। पाकिस्तान दोनों में राजी है। रोटी तो मिल रही है, मालिक कहे छू तो केवल गुर्राना ही तो है।मुंबई हमलों में घिरने के बाद यही पूछ टांगों के बीच छिप गई थी। तब न तो चीन कुछ बोल रहा था न अमेरिका। सभी ने मिलकर मुंबई हमले की निंदा की और पाकिस्तान से दोषियों पर कार्रवाई करने को कहा था। अकेला पड़ गया था, कूं-कूं करने लगा, वार्ता से समस्या का हल निकलेगा, इस तरह आतंकियों को मौका मिलेगा। समय बीतता गया और साथियों का दबाव कम हुआ, चीन के साथ परमाणु करार हो गया और अमेरिका ने फिर से टुकड़े फेंक दिए तो स्थिति क्या है, हमें वार्ता की जल्दबाजी नहीं है, जब वे पूरी तरह तैयार होंगे हम बात कर लेंगे। यह गुर्राहट शाह महमूद कुरैशी की नहीं है, आकाओं की ओर से मिली छूट और हरदम जूते मारने को तैयार रहने वाली पाकिस्तानी फौज और आईएसआई का भय है। इसका नमूना देख लीजिए सेना प्रमुख कियानी और आईएसआई चीफ शूजा पासा के कहने पर पहले कुरैशी ने अकड़ दिखाई, दूसरे दिन कहा कि हम भारत तभी जाएंगे जब वार्ता का सकरात्मक हल निकलेगा। इसी बीच अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पाकिस्तान पहुंच गईं, उन्होंने कान में मंतर फूंका होगा ज्यादा गुर्राओ मत औकात में रहो, तब बयान आया कि हमने कभी नहीं कहा कि भारतीय विदेश मंत्री ने वार्ता के दौरान दिल्ली फोन पर बात की। उनके अफसर कर रहे थे। यशवंत सिन्हा ने ठीक कहा, इस आदमी में विदेश मंत्री होने के गुण नहीं है। जिस आदमी को यह पता न हो कि प्रतिनिधिमंडल निरंतर अपनी सरकार के संपर्क में रहता ही है, यह एक सामान्य प्रक्रिया है उसे विदेश मंत्री बना किसने बना दिया।
Wednesday, July 14, 2010
खंड-खंड पाखंड
भाजपा में जितनी खलबली उमा भारती के पार्टी में रहते थी, उतनी ही हलचल उनके पार्टी से बाहर रहने पर है। आधे नेता चाहते हैं कि उनकी घर वापसी होनी चाहिए और आधे कहते हैं उमा बाहर ही बेहतर हैं। पार्टी के इन अंतर्विरोधों के कारण उमा भारती भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए परेशानी का सबब बन गई हैं।कौन पक्ष में है और कौन विपक्ष में इस पर मत जाइए, पाखंड को खंड-खंड होते देखिए। जिनका दीदी से स्वार्थ सधता है, जो उमा का आर्शीवाद चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उमा भारती वापस घर आ जाएं और जिन्हें लगता है कि साध्वी का साथ उनके लिए सन्यास का मार्ग प्रशस्त कर देगा वे चाहते हैं उमा बाहर ही रहें तो बेहतर होगा।कैलाश विजयवर्गीय की देखरेख में सिंहस्थ के लिए सड़कें बनीं थीं। पता चला था कि इन सड़कों पर डामर की जगह टायर जलाकर बिछा दिए गए थे जो पहली ही बारिश में पूरी तरह बह गए। इस समय उमा भारती मप्र की मुख्यमंत्री थीं, हल्ला तो हुआ था पर कार्रवाई क्या हुई आज तक पता नहीं। आज सिंहस्थ घोटाले को लोग भूल चुके हैं, लेकिन विजयवर्गीय को अहसान याद है, वे चाहते हैं कि उमा भारती वापस आ जाएं। दीदी ने इतने बड़े घोटाले पर पर्दा डाल दिया और शिवराज इंदौर की मामूली सी हरकत को दबाने में नाकाम साबित हो रहे हैं।हुबली में तिरंगा फहराने के विवाद पर कुर्सी छोड़ते वक्त उमाजी ने बाबूलाल गौर पर भरोसा जताया था। लेकिन जब वे वापस आईं तो गौर साहब कुर्सी छोडऩे को तैयार नहीं थे। इस खींचतान का नतीजा शिवराज सिंह चौहान के पक्ष में गया। केंद्रीय नेताओं के बीच पैठ रखने वाले कुछ साथियों ने उमा का पत्ता साफ करा दिया। गौर साहब अब चाहते हैं कि उमाजी की वापसी यदि होती भी है तो कम से कम उनके साथ धोखेबाज जैसा व्यवहार न हो, इसलिए वे उंगली कटाकर शहीद होना चाहते हैं।शिवराज सिंह चौहान, अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। यदि उमा भारती पार्टी में वापस आईं और उन्होंने मध्यप्रदेश की मांग की तो सबसे पहली गाज शिवराज सिंह चौहान पर गिरनी है। स्वभाव के अनुरूप वे किसी और का दखल अपने काम में बर्दाश्त नहीं करेंगीं, लिहाजा अनंत कुमार को मप्र से जाना होगा। सुषमा स्वराज के मुकाबले की पार्टी में कोई दूसरी महिला नेत्री नहीं है, उमा के आने से सुषमा का वजन कम होना तय है और अरुण जेटली की रणनीति में उमा का आक्रमण शामिल करना पार्टी की मजबूरी होगी। लिहाजा यह नेता कतई नहीं चाहते कि उमा की वापसी हो।अब इतने सारे और बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद पार्टी उमा प्रकरण को जिंदा क्यों रखे है। भाजपा और संघ की यह शाश्वत विवशता है कि पार्टी में हमेशा ऐसे नेताओं की कमी रही है, जिसकी देश में व्यापक अपील हो और आम आदमी में जिसके प्रति सहज आकर्षण हो। अटल-आडवाणी युग में अटल भाजपा और संघ की मजबूरी रहे। कई ऐसे मौके आए जब अटल ने संघ और भाजपा को आइना दिखाया। आडवाणी से उनके मतभेद भी उभरते रहे, लेकिन पार्टी के वे एक मात्र ऐसे नेता थे जिनकी जनता के बीच व्यापक पहुंच थी। अब वह स्थान रिक्त हो गया है। आडवाणी का प्रयास पिछले आम चुनाव में विफल हो चुका है। पार्टी को ऐसा कोई और चेहरा नजर नहीं आता जिसे जनता के बीच भेजा जा सके। हालांकि नरेंद्र मोदी पार्टी के देशव्यापी चर्चित नेता हैं, लेकिन उनकी छवि सर्वमान्य नहीं है। सुषमा, जेटली, नायडू, कुमार यह सब क्षेत्र विशेष तक सीमित हैं। लिहाजा पार्टी को एक ऐसे चेहरे की जरूरत है जो भले ही वोट न कमा सके पर कम से कम जनता उसे सुने तो। उमा भारती में यह कौशल है और पार्टी इसे भुनाना चाहती है। लेकिन उमा अकेले ही भाड़ नहीं फोड़ सकतीं इसलिए उन्हें भी साधना जरूरी है जो क्षेत्र विशेष में वर्चस्व रखते हैं। और इसी स्वार्थ में पार्टी का सत्यानाश हुआ जा रहा है।
Monday, July 12, 2010
बदलनी होगी सफलता की परिभाषा
हत्या, लूट, बलात्कार, चोरी, डकैती, ब्लैक मेलिंग हर तरह के अपराध का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और इस पर लगाम लगने की कोई सूरत फिलहाल तो नजर नहीं आती। निश्चित रूप से यह चिंताजनक है, लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक है अपराध के दलदल में ऐसे लोगों का धंसना जो न तो पेशेवर अपराधी हैं और न ही अपराध करना उनके लिए कोई मजबूरी है, केवल अपने अहंकार की तुष्टि के लिए वे संगीन अपराध कर जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो उच्च वर्ग से प्रभावित होकर, उनके जैसा दिखने, रहने और करने के लिए अपराध की दुनिया को अंगीकार कर लेते हैं। प्रेम संबंधों में विफलता, अति उत्साह में तेज वाहन चलाना, सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन, मस्ती में छेड़छाड़ और प्रतिरोध करने पर आवेश अथवा अपमान बोध से इनके हाथों गंभीर अपराध अंजाम पा जाता है। इनकी एक लंबी फेहरिस्त है, जिसमें लगातार इजाफा हो रहा है।सवाल उठता है क्यों...इनके पास पर्याप्त आर्थिक समृद्धि है और सामाजिक सम्मान भी, यह अपराध करने के लिए मजबूर नहीं हैं, फिर भी शहरी क्षेत्र में घटने वाले अधिकांश अपराधों में इनका हाथ क्यों। गहराई से देखें तो इसके पीछे संस्कारहीनता और अहंकार है, जो इन्हें अपनी मर्जी के खिलाफ कुछ भी बर्दास्त नहीं करने देता। ये अपनी मर्जी से संचालित होते हैं, कोई क्या कर लेगा का गुमान हमेशा उनके चेहरे और व्यवहार में झलकता है, आम तौर पर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इसमें इनका दोष नहीं है, समाज ने ही इस तरह के व्यवहार, समृद्धि, ताकत, जोड़तोड़ की राजनीति और चालाकी को सफलता का पैमाना स्वीकार कर लिया है। और कोई असफलता का दाग अपने दामन पर लगना बर्दाश्त नहीं करता। हमारे बीच कुसंस्कारों को कामयाबी मानने वाला भी एक समाज है, जिसने अपना अलग संसार बसा रखा है, हम उसे इस रूप में स्वीकार नहीं करते बल्कि इस रूप में देखते हैं कि वे समाज से अलग हैं, कुछ विशेष हैं। यही सोच उनके अहंकार को पोषित करती है और उनकी औलादें निरंकुश हो जाती हैं।इसमें इनका कोई दोष नहीं है जब वे अपने आसपास के माहौल को, अपने मां-बाप को किसी आदर्श से संचालित नहीं देखते, उन्हें किसी नैतिकता का पालन करते नहीं देखते, उन्हें मर्यादित आचरण करता हुआ नहीं पाते तो फिर वे और क्या करें। जो लोग अपनी तिकड़म से, रुतबे से, अपराधियों का सहारा लेकर बढ़ाए गए बाहुबल से अपना धन संसार रचते हैं, उनके बच्चों के इर्द-गिर्द भी एक भौतिक हवस का संसार अपने आप बस जाता है। फिर लड़के आलीशान मकान चाहते हैं, एक लग्जरी कार, उसमें उसमें उनके साथ बैठने के लिए एक लड़की चाहते हैं और महफिल में उनके सामने जीहुजूरी करने वाले चार शोहदे भी चाहते हैं। लड़कियों का हाल भी इससे जुदा नहीं होता उन्हें शॉपिंग की आजादी चाहिए, जागरूकता और आधुनिकता के नाम पर समय-असमय घूमने की आजादी चाहिए, कम से कम एक ब्वाय फ्रेंड तो होना ही चाहिए जिसके साथ वे डिस्को पार्टी में जाकर थिरक सकें। जब उनके सामने सफलता के मायने ज्यादा से ज्यादा धन और ज्यादा से ज्यादा रोब-रुतबे के रूप में प्रस्तुत किए जाएंगे तो फिर वे और क्या करेंगे। जब उन्हें पता होगा कि उनके आसपास के माहौल में सही को गलत और गलत को सही कैसे बनाया जाता है, कानून को अपने पक्ष में कैसे किया जाता है, पुलिस और न्याय को कैसे खरीदा जाता है, बड़े से बड़े अपराध करके कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है तो फिर वे किस बात से डरेंगे।इसका मतलब यह नहीं कि अच्छे लोग नहीं हैं आज भी बहुत से तबकों के लोग ईमानदार हैं लेकिन इनकी बात कोई नहीं सुनता, कोई इनकी तारीफ नहीं करता। इनकी तुलना में उनकी बात को अधिक महत्व दिया जाता है जिनके पास सत्ता और शक्ति है। अगर इन परिस्थितियों से निपटना है तो सबसे पहले सफलता की परिभाषा बदलनी होगी। जो रौब-रुतबे, शक्ति और समृद्धि की नहीं, उच्च विचारों, संस्कारों और उच्च आदर्शों की होगी। बिगड़ेल औलादों और स्वयं के बेलगाम और बेशर्म विचारों पर तहजीब का अंकुश लगाना होगा।
Friday, July 9, 2010
निर्लज्जता का नायाब नमूना
बयानों की चिंगारी से समय-समय पर महंगाई की आग भड़काने वाले खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री शरद पवार ने शक्कर को नियंत्रण मुक्त करने की वकालत करके यह सिद्ध कर दिया कि उनके रहते यदि महंगाई खुद भी घटना चाहे तो घट नहीं सकती। निर्लज्जता का इससे नायाब नमूना भारत के अलावा कहीं और नहीं मिलेगा। पहले पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे की चिंता हुई थी, उन्होंने लगातार प्रयास करके पेट्रोल, डीजल, गैस, केरोसिन के दाम बढ़वा दिए और अब शरद पवार को चीनी मिलों की चिंता हो रही है। पवार को लगता है कि पैट्रोल की तरह शक्कर को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर देना चाहिए ताकि बाजार में कितनी शक्कर आनी है यह चीनी मिलें तय कर सकें। ऐसा करने से चीनी मिलों को नुकसान से बचाया जा सकेगा। इस तरह का प्रस्ताव उनका मंत्रालय जल्द ही कैबिनेट को भेजने वाला और उनकी सलाह मानी गई तो इसका फैसला अगस्त तक आ जाएगा। यदि फैसला पवार की मंशा के अनुरूप होता है तो शक्कर का महंगा होना तय है। जनता को इससे बेशक तकलीफ होगी पर शरद पवार को फायदा होगा। सीधे शब्दों में कहें तो शक्कर पर शरद का एक हिसाब से कब्जा हो जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो शक्कर सोना हो जाएगी।दरअसल महाराष्ट्र की सुगर लॉबी पर शरद पवार का कब्जा है। पवार की इच्छा के बिना यहां पत्ता भी नहीं हिलता। तीन साल पहले का बाकया याद करें महाराष्ट्र को छोड़कर सारे देश में शक्कर के दाम बढ़ रहे थे। क्योंकि यहां की सुगर मिलों ने गन्ना कम मिलने का बहाना बनाकर शक्कर कम जारी की थी, इधर पवार के बयानों से संकेत मिलने के बाद बड़े-बड़े व्यापारियों ने शक्कर की जमाखोरी शुरू कर दी और 20 रुपए किलो मिलने वाली शक्कर अचानक 40 रुपए किलो जा पहुंची थी। अब चूंकि शक्कर 30 रुपए के आसपास है पवार को यह बात बर्दाश्त नहीं हो रही है, इसलिए उन्हें कंपनियों के घाटे की चिंता सताने लगी।पवार साहब आप वर्षों से किसानों के मंत्री हैं, क्या उनकी कभी ऐसी चिंता की है। क्या कभी विचार किया कि क्यों न फसल के मूल्य निर्धारण का अधिकार किसानों को दे दिया जाए, जिन गन्ना किसानों की मेहनत से सुगर मिलों के पहिए घूमते हैं, वे भी घाटे में हैं। खेत जोतने-बखरने से लेकर फसल को खलिहान तक लाने में किसान का जो श्रम और लागत लगती है, कभी उसका हिसाब लगाया है। कितने किसानों के गन्ने का पैसा सुगर मिलों में अब तक अटका पड़ा है, कभी दिलाने का प्रयास किया है, नहीं किया है। बावजूद इसके किसान सबसे अधिक रिस्क उठाकर फसल तैयार करता है और बाद में घाटे का सौदा करता है। शर्म से ढूब मरना चाहिए सरकार को और कंपनियों को। शुक्र है कि देश का किसान कंपनियों की तरह चालाक नहीं है, कंपनी कर्मचारियों की तरह हड़ताल नहीं करता वरना मात्र एक साल की हड़ताल से सरकार, कंपनियों और किसानों चूसने वाले धन्नासेठों की अकल ठिकाने पर आ जाए।
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