क्या बेशर्मी है, पहले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी एफडीआई को जटिल बता रहे थे और आज सबसे के लिए फायदेमंद बता रहे हैं। पहले भाजपा एफडीआई के पक्ष में थी आज विरोध में देश सिर पर उठा रखा है। धन्य हो हिन्दुस्तान के सियासतखोरो धन्य हो...और जनता के लिए कुछ कहना बेमानी है...लोकतंत्र है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है...और हमारा अधिकांश सच दूसरे लोग तय करते हैं...जैसे फिलहाल कालेधन पर बाबा रामदेव औा आडवाणीजी तय कर रहे हैं...भ्रष्टाचार का सच अन्ना हजारे और उनकी टीम तय कर रही है...रिटेल में विदेशी निवेश सरकार और विपक्ष तय कर रही है...इसमें हमारा रोल केवल जिंदाबाद और मुर्दाबाद तक ही सीमति है, और नारे लगवाने वाला बड़े गर्व से कहता है, यह देश की आवाज है। कोई नहीं पूछना चाहता कि आखिर सच क्या है, कोई बताना भी नहीं चाहता कि आखिर सच क्या है क्योंकि सबके हित खादी से जुड़े हैं, और जिनके हित खादी से नहीं जुड़े हैं, जिन्हें नेता बनने का शौक नहीं है, जनता उन्हें बेवकूफ समझती है।
Wednesday, November 30, 2011
Wednesday, August 17, 2011
अन्ना और देश षड्यंत्र का शिकार तो नहीं
अन्ना १६ अगस्त से अनशन शुरु करने की धमकी दे रहे हैं । मात्र दो दिन बाद । अन्ना को स्वंय नही पता कि लोकपाल बिल क्या है । अन्ना मात्र एक चेहरा हैं , दो अति महत्वकांक्षी व्यक्तियों की देन है यह जनलोकपाल नाक का ड्रामा।एक है अरविंद केजरीवाल , दुसरा मनीष सिसोदिया । अरविंद केजरीवाल आईआरएस में था एलायड सर्विस है यह । मनीष सिसोदिया पत्रकार है , इसकी एक संस्था है कबीर । इनलोगों की संस्थायें सामाजिक काम के लिये नही बनी है बल्कि सरकार के अनुदान और विदेशों से मिले दान को भी हासिल करने की नियत से बनाई गई है । मनीष की एक संस्था है कबीर जो संस्था निबंधित है । समाजसेवा के लिये संस्था का निबंधित होना जरुरी नही है ।
निबंधन की जरुरत तभी पडती है , जब सरकार से अनुदान या दान लेना हो । कबीर आयकर से भी निबंधित है यानी अगर कोई व्यक्ति कबीर को दान देता है तो दान दाता को उस राशी पर आयकर नही देना पडेगा । मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर को विदेशो से भी अच्छा –खासा दान मिलता है । संस्थाओं का खेल बहुत पेचीदा है ।संस्था के माध्यम से आयकर की चोरी सबसे आसान है । अगर किसी व्यक्ति को आयकर बचाना है तो वह संस्था को एक करोड रुपया अपनी आय मे से देगा , उस एक करोड पर दान देने वाले को आयकर नही देना पडेगा । जिस संस्था को दान दिया है , वह संस्था आयकर की जो बचत हुई है , उसमें से आधी रकम ले लेगी , बाकी पैसा को विभिन्न माध्यम से खर्च दिखला दिया जायेगा और उसे दान दाता को वापस कर दिया जायेगा ।
विदेश से भी विभिन्न कार्यो के लिये धन प्राप्त होता है मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर को दो लाख डालर का दान फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन नाम की अमेरिकी संस्था ने दिया है । अमेरिका की एक कुख्यात संस्था है सीआईए । सभी को पता है सीआईए अमेरिकी हितों की रक्षा के लिये विदेशो में काम करती है । इसके काम का तरीका सबसे अलग होता है । मुख्य रुप से सीआईए किसी भी देश की सरकार को अमेरिका का पक्षधर बनाये रखने का कार्य करती है । यह संस्था मंत्रियों से लेकर सांसद , सामाजसेवी, अधिकारी और विपक्षी दलों को अप्रत्यक्ष तरीके से मदद पहुचाती है ताकी वक्त पर अमेरिकी हितो की रक्षा हो सके ।
मदद का तरीका भी अलग – अलग होता है विभिन्न दलों के राज्यों के मुख्यमंत्रियों को समारोहों में निमंत्रित करना , विपक्षी दलों के कद्दावर नेता तथा सांसदो को किसी न किसी बहाने से विदेश भ्रमण कराना । सामाजिक कार्यकर्ताओं की संस्था को अमेरिकी संस्थाओं द्वारा दान दिलवाना । सीआईए नेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता तथा अधिकारी तक की कमजोर नस को पकडती है अगर किसी की कमजोर नस लडकी है तो उसकी भी व्यवस्था की जाती है। बच्चों के लिये स्कालरशिप से लेकर नौकरी तक की भी व्यवस्था यह सीआईए करती है . फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन का कार्य हमेशा संदिग्ध रहा है ।
उसी फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन से मदद मिलती है मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर को और अन्ना के आंदोलन के संचालन का सारा खर्च मनीष सिसोदिया तथा अरविंद केजरीवाल वहन कर रहे हैं। वस्तुत: इन दोनो अति महत्वकांक्षियों ने हीं, जनलोकपाल नाम के एक कानून की स्थापना के लिये आंदोलन की रुपरेखा तय की । इन दोनो को पता था कि अगर सिर्फ़ ये दोनो इस आंदोलन की शुरुआत करेंगे तो यह टायं-टायं फ़िस्स हो जायेगा । हो सकता था कि रामदेव की तर्ज पर इनकी संस्थाओं की जांच भी होने लगे , वैसी स्थिति में इनका क्या हश्र होगा इनको पता था।
इन्हें कुछ नामी –गिरामी चेहरों की तलाश थी । शुरुआत में किरन बेदी, शांतिभुषण , रामदेव और रविशंकर को जोडने का प्रयास इन दोनो ने किया । बात नही जमी। किरन बेदी खुद आरोपो से घिरी थीं। भुषण बाप-बेटे पर इलाहाबाद के एक परिवार को ७० साल तक मुकदमे में फ़साकर अपनी संपति इन्हें बेचने के लिये बाध्य करने का आरोप लगा था। भुषण पिता-पुत्र की कहानी भी किसी जमीन कब्जा करने वाले गुंडे से कम रोचक नही है । अपने नामी वकील होने का सबसे गलत फ़ायदा दोनो पिता – पुत्र ने उठाया है । लेकिन उसकी चर्चा बाद में करेंगे।
एक मोहरे की खोज जारी रही । अन्ना के रुप में इन्हें संभावना नजर आई । महाराष्ट्र में अपने गांव में कुछ सामाजिक काम अन्ना ने किये थें। वह भी एक संस्था चलाते थें। अन्ना के भूत के बारे में बहुत कम लोगों को पता था । राष्ट्रीय स्तर पर भी अन्ना को बहुत कम लोग जानते थें। लेकिन वर्तमान तकनीक के इस दौर यह कोई समस्या नहि थी । अन्ना सबसे उम्दा बकरा थें इनदोनों के लिये । नाम के भुखे थें। शिक्षा मात्र सातवीं पास हिंदी – अंग्रेजी का ग्यान नही था। गांधी टोपी पहनते थें संप्रदायिक कहलाने का भी भय नही था। बहुत आराम से गांधीवादी कहकर अन्ना ब्रांड को लांच किया जा सकता था।
आज भी अन्ना की पिछली जिंदगी को छुपाया जाता है । अभीतक जो सूचना अन्ना के बारे में उपलब्ध है , उसके अनुसार अन्ना का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के भिंगर नामक गांव में हुआ था । इनके पिता का नाम बाबूराव हजारे तथा माता का नाम लक्षमी बाई था। पांच एकड जमीन के मालिक अन्ना के पिता एक मजदूर या कर्षक थें। परिवारिक कारणो से १९५२ में इनका परिवार रालेगांव सिद्धि नामक जगह पर जा बसा ।
अन्ना का बचपन इनकी एक संतानहीन चाची जो बंबई में रहती थी वहां बीता । अन्ना ने सातवीं तक शिक्षा ग्रहण की । इसके बाद के कुछ सालों को अन्ना के जिंदगी की कहानी से हटा दिया गया है और इन्हें सेना की नौकरी में दिखलाने का प्रयास सभी जगह किया गया है । अन्ना जब बंबई में थें तो ये फ़ूल बेचने का धंधा बचपन में करते थें । कुछ पैसे आ जाने के बाद अन्ना ने फ़ूलों की दुकान खोल ली ।
अन्ना का एक अपना ग्रुप था आवारा लडकों का जो खुद को अपने क्षेत्र का दादा समझते थें। अन्ना का ग्रुप मारपीट करने में आगे रहता था । अन्ना की इन्हीं हरकतों के कारण परिवार का दबाव उनके उपर पडा और उन्हें सेना की नौकरी में जाना पडा । अन्ना खुद भी अपनी जिंदगी के बहुत सारे पहलू को उजागर नही करना चाहते हैं।
वर्तमान में मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल के इशारे पर अन्ना काम कर रहे हैं । अमेरिकी संस्था अप्रत्यक्ष रुप से अन्ना के आंदोलन को आर्थिक मदद दे रहा है । फ़ोर्ड फ़ाऊंडेशन ने मदद का नाम दिया है पारदर्शी , जिम्मेवार और प्रभावशाली सरकार के लिये प्रयास करना यानी सरकार के खिलाफ़ विद्रोफ़ करना। अन्ना के आंदोलन देश के वैसे बिजनेसमैन जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं आर्थिक मदद पहुंचा रहे है । अराजकता फ़ैलाना उनका उद्देश्य है ताकि उनके खिलाफ़ जो जांच चल रही है वह बाधित हो जाय । अन्ना की टीम को अरुंधती राय तथा स्वामी अग्नीवेश जैसे लोग मदद कर रहे हैं।
अग्नीवेश नक्सल आंदोलन के समर्थक है । वस्त्र गेरुआ पहनते हैं। नक्सल आंदोलन का उद्देश्य सही हो सकता है लेकिन उद्देश्य प्राप्ति का रास्ता हिंसा है जो गलत है । भारत मिश्र या अफ़गानिस्तान नही बन सकता और न हीं किसी को इजाजत दी जा सकती है इसे वैसा बनाने की । अरुंधती और अग्नीवेश दोनो कश्मीर के अलगावादियों के समर्थक है । वैसे सारे लोग जोआज अन्ना का समर्थन कर रहे हैं देश के दुसरे विभाजन की पर्ष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।यहां हम फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की सूची दे रहे हैं और मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर के विषय में भी दे रहे हैं
Kabir is a society registered under Societies Registration Act. It was registered on January 7, 1999 with number S34169. It is also registered under section 10A and 80G of the Income Tax Act. We are also authorized under the Foreign Contribution Regulation Act to receive foreign funding for our organization.
।Manish Sisodia is a founding member of Kabir and is currently the Chief Functionary of Kabir. He is the chief executive responsible for general management of the organization, particularly its strategy and direction. He is also the public face of Kabir and is responsible for Kabir’s relationships with external groups and individuals. Prior to joining Kabir, Manish was a journalist and a Producer and News Reader with Zee News. Even during that time, Manish served as an active volunteer with Parivartan, the citizens’ initiative working on Right to Information in Delhi. He holds a BSc from Meerut University in Uttar Pradesh.
Kabir comprises of a team of young, dedicated social activists who have the zeal and passion and are working on spreading awareness about RTI and Swaraj. We envision a culture of transparency and accountability in government that allows for meaningful participation of citizens in their own governance. It is with this mission and vision that Kabir spun off of Parivartan (the activist group led by Arvind Kejriwal that was critical in raising public support for the passage of the RTI Act) and began operations on August 15th, 2005.
बिहार मीडिया से ज्यों का त्यों
यह पोस्ट बिहार मीडिया से उठाया गया है, अन्ना के विषय में इनके क्या ख्यालात हैं उनका छिदरायान्वेशन नहीं करना चाहिए बल्कि इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यदि इनकी जानकारी में एक प्रतिशत भी सत्यता है तो देश के खिलाफ यह बहुत बड़ा षड्यंत्र हो रहा है और इसका अगुवा अनजाने में एक ईमानदार व्यक्ति बन रहा है। इसलिए इसका विरोध होना चाहिए।
Tuesday, August 16, 2011
दुष्ट सरकार दोगला विपक्ष
आखिरकार सरकार दुष्टता पर उतर आई, अनशन से पहले अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया गया। सारा देश अन्ना के साथ है इसने सरकार के हाथ-पैर फुला दिए हैं, जबकि विपक्ष इस जनसमर्थन को लॉलीपॉप की तरह देख रहा है। भगवान किसी देश में ऐसा विपक्ष पैदा न करे। आज अन्ना को जो मुश्किलें झेलनी पड़ रही हैं, जिस तरह देश में माहौल बन रहा है इसके लिए जितनी जिम्मेदार सरकार है उतना ही जिम्मेदार विपक्ष है। विपक्ष यदि सरकार पर पहले दबाव बनाता तो लोकपाल बिल में वे शर्तें जोड़ी जा सकती थीं जिनको लेकर अन्ना को आज सड़कों पर उतरना पड़ा। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य कि सरकार दुष्ट है और विपक्ष दोगला है। सरकार किसी भी सूरत में नहीं चाहती कि उस पर किसी तरह का अंकुश लगे, इसलिए वह अन्ना की मांगें मानने को तैयार नहीं है, और भाजपा जनहित की बजाए इस आंदोलन से अपने करीब आती कुर्सी देख रही है। बहरहाल ये ऐसे खर-दूषण हैं जिनका वध जरूरी है पर दूसरा कोई विकल्प न होने से इन्हें जिंदा रखना पड़ता है।
Sunday, July 3, 2011
लोकपाल फंस गया गुंडों में
लोकपाल बिल पूरी तरह से सियासी गुंडों में फंस गया है, उसे बचाना मुश्किल है, अन्ना चाहे 10 सिर के हो जाएं। विपक्ष ने संसदीय समिति में भेजने का सुझाव देकर एक तरह से लोकपाल की भू्रण हत्या की व्यवस्था बना दी है। यदि सरकार ऐसा करती है तो लोकपाल पहले तो संसद की वीथियों में फिरकी बना रहेगा दूसरा अन्ना यदि उतावलापन दिखाते हैं तो उसे संसद की अवमानना समझा जाएगा।
रंग बदलने में उस्ताद नेता यदि गिरगिट के सामने आ जाएं तो गिरगिट इन्हें अपना गुरू बना लेगा। आज हुई सर्वदलीय बैठक में नेताओं ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी उससे साफ हो गया कि राजनीतिक दलों को लोकपाल की चिंता नहीं बल्कि इस बात का अपमानबोध है कि मसौदा समिति बनाते वक्त सरकार ने उनसे मश्विरा क्यों नहीं किया। हालांकि जब अन्ना अनशन पर बैठे थे तब यही दल सरकार को कोसने में लगे थे।
मसौदा समिति बनाते वक्त सरकार की ओर से जितनी राजनीतिक नीतियों को तोड़ा, नेता उतना ही कमीनापन दिखा रहे हैं। जब कोई राय जाहिर करनी ही नहीं थी तो सर्वदलीय बैठक में क्यों शामिल हुए समझ में नहीं आया। पहले ही कहा जा सकता था कि इस बैठक का कोई मतलब नहीं हम सीधे संसद में बात करेंगे।
जब चाहते थे कि सरकार लोकपाल बिल के लिए राजनीतिक दलों से रायसुमारी करे तो पहले अन्ना का समर्थन करके समिति की अधिसूचना जारी करने का सरकार पर दबाव क्यों बनाया गया था। इससे साफ हो गया कि लोकपाल को लेकर विपक्षी दलों का इरादा और नीयत उतनी ही घटिया है, जितनी सरकार की।
मेरे पास यदि कोई जिन्न होता और पूछता कि आका क्या चाहिए तो मैं उससे कहता कि इन सारे नेताओं को उठाकर प्रशांत महासागर में फेंक दे।
रंग बदलने में उस्ताद नेता यदि गिरगिट के सामने आ जाएं तो गिरगिट इन्हें अपना गुरू बना लेगा। आज हुई सर्वदलीय बैठक में नेताओं ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी उससे साफ हो गया कि राजनीतिक दलों को लोकपाल की चिंता नहीं बल्कि इस बात का अपमानबोध है कि मसौदा समिति बनाते वक्त सरकार ने उनसे मश्विरा क्यों नहीं किया। हालांकि जब अन्ना अनशन पर बैठे थे तब यही दल सरकार को कोसने में लगे थे।
मसौदा समिति बनाते वक्त सरकार की ओर से जितनी राजनीतिक नीतियों को तोड़ा, नेता उतना ही कमीनापन दिखा रहे हैं। जब कोई राय जाहिर करनी ही नहीं थी तो सर्वदलीय बैठक में क्यों शामिल हुए समझ में नहीं आया। पहले ही कहा जा सकता था कि इस बैठक का कोई मतलब नहीं हम सीधे संसद में बात करेंगे।
जब चाहते थे कि सरकार लोकपाल बिल के लिए राजनीतिक दलों से रायसुमारी करे तो पहले अन्ना का समर्थन करके समिति की अधिसूचना जारी करने का सरकार पर दबाव क्यों बनाया गया था। इससे साफ हो गया कि लोकपाल को लेकर विपक्षी दलों का इरादा और नीयत उतनी ही घटिया है, जितनी सरकार की।
मेरे पास यदि कोई जिन्न होता और पूछता कि आका क्या चाहिए तो मैं उससे कहता कि इन सारे नेताओं को उठाकर प्रशांत महासागर में फेंक दे।
Thursday, June 30, 2011
बड़े चालू निकले मनमोहन

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संपादकों के साथ बातचीत में जो कहा वह निश्चित तौर पर उनके शब्द नहीं थे, और यदि हैं तो कहना पड़ेगा मनमोहन बड़े चालू निकले। अपनी आई किस तरह दूसरों पर डाली जाती है इसका नायाब नमूना है मनमोहन की संपादकों से बातचीत। लोकपाल बिल के दायरे में प्रधानमंत्री पद को लाने की सिविल सोसायटी की मांग को मनमोहन ने बड़ी मासूमियत से सहयोगी और विपक्षी राजनीतिक दलों पर डाल दिया। और अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के मुद्दों का समर्थन करके उनके आक्रमण की धार कमजोर कर दी। अन्ना दर-दर पर समर्थन मांगते फिर रहे हैं।
मनमोहन सिंह ने कहा मैं स्वयं लोकपाल बिल के दायरे में आने को तैयार हूं लेकिन इसका अंतिम फैसला मंत्रिमंडल और विपक्षी दलों की राय के बाद होगा। पंजाब और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को लोकपाल दायरे में लाने का विरोध कर चुकी हैं। यह बड़ा ही सटीक निशाना है। मंत्रिमंडल में केवल कांग्रेसी नहीं हैं समर्थक दलों के भी मंत्री हैं, पीएम को लोकपाल दायरे से बाहर रखने के इनके फैसले को कांग्रेस का फैसला नहीं माना जाएगा। दूसरी ओर जय ललिता और प्रकाश सिंह बादल पहले ही विरोध कर चुके हैं। लालू प्रसाद ने भी स्पष्ट कर दिया कि बाबा साहब अंबेडकर के संविधान से छेड़छाड़ नहीं करने देंगे। भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने बेशक पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन वे भी कमोबेश इस मामले में सिविल सोयायटी के खिलाफ ही रहेंगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अन्ना के सुझावों पर आधारित लोकायुक्त तो गठन करना चाहते हैं पर लोकपाल पर वे कोई विचार पार्टी से बातचीत करके ही व्यक्त करेंगे। भाजपा को भी देखिए सर्वदलीय बैठक से एक दिन पहले उसने बैठक बुलाई है। खुलकर समर्थन या विरोध नहीं कर रहे हैं बैठक में बीच का रास्ता निकालेंगे कि कैसे अन्ना को खुश करके सरकार को घेरा जाए और लोकपाल से भी बचा जाए। यानि यह तय है कि लोकपाल पर सर्वदलीय समिति में एकराय नहीं बनेगी। बावजूद इसके यदि सरकार ने बिल पेश किया तो उसका हस्र महिला आरक्षण विधेयक की तरह होना तय है। यानि पीएम को लोकपाल से मुक्त रखने का फैसला कांग्रेस का नहीं पूरी सियासी जमात का है। अब अन्ना यदि किसी प्रकार का आंदोलन इसके बाद करते हैं तो यह कांग्रेस का नहीं बल्कि समूची राजनीतिक बिरादरी के खिलाफ होगा।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि देश को मजबूत लोकपाल की जरूरत है लेकिन यह रामबाण नहीं है। प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में है और संसद उन्हें पद से हटा सकती है। कोई भी समूह अपनी हर बात को अंतिम बताकर थोप नहीं सकता। यानि छिपे शब्दों में लोकपाल को गैर जरूरी करार दिया। साथ ही अन्ना हजारे को चेतावनी दे दी कि अपनी मांग को सरकार के ऊपर थोपने की कोशिश न करें। इसी बहाने बाबा रामदेव को भी भाजपा और आरएसएस से दूर रहने का इशारा भी कर दिया। दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर की गई पुलिस कार्रवाई को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। क्योंकि उनके पीछे सांप्रदायिक तत्व थे। लेकिन मैं उनके उठाए मुद्दों का समर्थन करता हूं। यानि प्रधानमंत्री या सरकार बाबा रामदेव की सभी बातें मानने को तैयार हैं या मान लेंगे बशर्ते वे भाजपा या आरएसएस से दूरी बनाए रखें। और वे ऐसा कर सकते हैं शायद यही इशारा उन्होंने यह कहते हुए दिया कि वे सोनिया गांधी से हर मुद्दे पर चर्चा करते हैं और उन्हें उनका भरपूर समर्थन मिलता है।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि देश को मजबूत लोकपाल की जरूरत है लेकिन यह रामबाण नहीं है। प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में है और संसद उन्हें पद से हटा सकती है। कोई भी समूह अपनी हर बात को अंतिम बताकर थोप नहीं सकता। यानि छिपे शब्दों में लोकपाल को गैर जरूरी करार दिया। साथ ही अन्ना हजारे को चेतावनी दे दी कि अपनी मांग को सरकार के ऊपर थोपने की कोशिश न करें। इसी बहाने बाबा रामदेव को भी भाजपा और आरएसएस से दूर रहने का इशारा भी कर दिया। दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर की गई पुलिस कार्रवाई को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। क्योंकि उनके पीछे सांप्रदायिक तत्व थे। लेकिन मैं उनके उठाए मुद्दों का समर्थन करता हूं। यानि प्रधानमंत्री या सरकार बाबा रामदेव की सभी बातें मानने को तैयार हैं या मान लेंगे बशर्ते वे भाजपा या आरएसएस से दूरी बनाए रखें। और वे ऐसा कर सकते हैं शायद यही इशारा उन्होंने यह कहते हुए दिया कि वे सोनिया गांधी से हर मुद्दे पर चर्चा करते हैं और उन्हें उनका भरपूर समर्थन मिलता है।
और सबसे बड़ा सच
इसके इतर भी एक सच है जो मनमोहन की छवि का है। मनमोहन सिंह देश के बुद्धिमान और ईमानदार लोगों में गिने जाते हैं, अपनी अर्थशास्त्रीय क्षमता का उन्होंने दुनिया में लोहा मनवाया है, दुनिया के बड़े मुल्क उनके सुझावों और दूरदर्शिता के कायल हैं...लेकिन जबसे यूपीए सरकार के मुखिया की कमान संभाली है उनके गंभीर व्यक्तित्व पर गहरे-गहरे दाग लग गए हैं। अपनी ईमानदार छवि को बचाए रखने के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने कांग्रेस नेताओं से अलग विचार रखे हैं, इससे पहले 2जी मामले की जांच के लिए गठित एपीसी और जेपीसी के सामने भी पेश होने को तैयार हो गए थे। यूपीए के प्रधानमंत्री के भीतर बैठा एक सीधा, सरल और सज्जन व्यक्ति छटपटा रहा है अपनी बेदाग छवि को बचाए रखने के लिए। उनकी चुप्पी और बोलने, दोनों में यह बेचैनी साफ झलकती है।
इसके इतर भी एक सच है जो मनमोहन की छवि का है। मनमोहन सिंह देश के बुद्धिमान और ईमानदार लोगों में गिने जाते हैं, अपनी अर्थशास्त्रीय क्षमता का उन्होंने दुनिया में लोहा मनवाया है, दुनिया के बड़े मुल्क उनके सुझावों और दूरदर्शिता के कायल हैं...लेकिन जबसे यूपीए सरकार के मुखिया की कमान संभाली है उनके गंभीर व्यक्तित्व पर गहरे-गहरे दाग लग गए हैं। अपनी ईमानदार छवि को बचाए रखने के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने कांग्रेस नेताओं से अलग विचार रखे हैं, इससे पहले 2जी मामले की जांच के लिए गठित एपीसी और जेपीसी के सामने भी पेश होने को तैयार हो गए थे। यूपीए के प्रधानमंत्री के भीतर बैठा एक सीधा, सरल और सज्जन व्यक्ति छटपटा रहा है अपनी बेदाग छवि को बचाए रखने के लिए। उनकी चुप्पी और बोलने, दोनों में यह बेचैनी साफ झलकती है।
Wednesday, June 15, 2011
योगी का प्रपंच

परमार्थ के ध्येय को जब स्वार्थ के आवरण में ढंककर आगे बढ़ाया जाता है तो उसका परिणाम बाबा रामदेव के अनशन की तरह होता है। कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन यह सत्य है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ और भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा कराए गए काले धन को वापस लाने जैसा पवित्र उद्देश्य बाबा रामदेव की नायक बनने की उद्दाम महात्वाकांक्षा से प्रेरित था, जो उनके मन में, जंतर-मंतर पर अनशन के दौरान अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन को देखकर, मचली थी।बाबा के मन पर दूसरी चोट तब लगी जब सिविल सोसायटी में उन्हें शामिल नहीं किया गया, जबकि वे उस समय भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जनजागरण अभियान के तहत देशभ्रमण कर रहे थे।
बाबा इस ईष्र्या को छिपा नहीं सके और उन्होंने लोकपाल समिति में प्रशांत भूषण और शांति भूषण के शामिल होने पर आपत्ति उठाई थी। लेकिन योग गुरू की छवि के चलते उस वक्त लोगों ने योगी के मन में मचल रही कामना को सहज प्रतिक्रिया माना। और बाबा रामदेव के अनशन को भी उनकी इसी छवि के चलते लोगों ने वैसा ही समर्थन दिया जैसा अन्ना हजारे को दिया था। लेकिन संन्यासी का स्वार्थ उसे ले डूबा, शुरू से ही उन्होंने ऐसी गलतियां कीं जिनके चलते वे जनता से दूर, सरकार के निशाने पर और विपक्ष का मोहरा बनते चले गए।
रामदेव की सबसे पहली और बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने लोगों को आंदोलन से जुडऩे के लिए जिस तरह रामलीला मैदान में जुटाया उससे समाज में यह संदेश गया कि बाबा जनहित में अनशन नहीं बल्कि सरकार के सामने शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं। यह बात किसी और ने नहीं हरिद्वार के ही एक संत ने कही। बाबा की दूसरी भूल अनशन की भव्यता...अनशन साधारण तरीके से होता है लेकिन बाबा का अनशन स्थल सर्वसुविधा संपन्न किसी पांच सितारा होटल की तरह था। गरीब जनता की बात करने के लिए बाबा ने करोड़ों रुपए फूंक दिएतीसरी गलती प्रशासन से झूठ...इस गलती ने बाबा को पहले कदम पर ही सरकार के निशाने पर लाकर बैठा दिया। बाबा ने रामलीला मैदान में 400 लोगों के लिए योग शिविर की अनुमति ली और 50 हजार लोगों के साथ अनशन पर बैठ गए। जाहिर है यह लोग योग शिविर में भाग लेने आए थे न कि अनशन में। चौथी गलती समर्थकों से धोखा...बाबा ने सरकार के साथ समझौते का जो पत्र लिखा उसके विषय में अनशन में शामिल लोगों को नहीं बताया।
उधर सरकार से जो समझौता किया था वह भी पूरा नहीं किया। विपक्ष की ओर मिल रही शह और मीडिया कवरेज से फूले बाबा तब भी अनशन पर अड़े रहे जबकि सरकार ने उनकी सारी मांगें बाकायदा लिखित में सिरोधार्य कर लीं। इस मौके पर यदि रामदेव सत्याग्रह छोड़ देते तो न केवल जनता की नजर में नायक बन जाते बल्कि सरकार भी उनको सिर आंखों पर बैठए रहती। लेकिन स्वयं को महानायक के तौर पर स्थापित करने की लालच ने बाबा को सरकार की नजर में खलनायक और जनता की नजर में संदग्धि बना दिया। रही सही कसर बाबा के उन पूर्व भक्तों ने पूरी कर दी जो पहले कभी बाबा के चक्कर में ठगे गए थे।
बाबा के साथ इस वक्त केवल वे ही लोग हैं जो उनसे या तो उनसे जुड़े हुए हैं या फिर वे लोग हैं जो बाबा के कंधे पर बंदूक रखकर सरकार का शिकार करना चाहते हैं। कुछ संतों ने ऐसे लोगों की रणनीतियों को भांपकर बाबा का अनशन तुड़वा कर अपनी महानता का परिचय दिया, लेकिन ध्वंश की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले बाबा को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे। भाजपा जनहित और लोकतंत्र के नाम पर इस मुद्दे को पूरी तरह भुनाने का प्रयास करेगी, इसके लिए वह देशव्यापी आंदोलन का ऐलान कर चुकी है। हालांकि सरकार को बेशर्म-बेहया और बेईमान कहने वाली यह पार्टी स्वयं कितनी बेशर्म और बेहया है इसका खुलासा भी दूसरे दिन हो गया।बाबा रामदेव जब अस्पताल में भर्ती हुए तो भाजपा ने भारी हायतौबा मचाई और केंद्र सरकार के बाबा से कोई बातचीत न करने के फैसले को न जाने क्या-क्या संज्ञाएं दीं। इस दौरान भाजपा की ओर से जनता को उद्दोलित करने की भी कोशिश की गई। लोगों को याद होगा जिस दिन डॉक्टरों ने बताया कि रामदेव की हालत में सुधार हो रहा है, उसी दिन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक कह रहे थे कि बाबा कोमा में जा सकते हैं। यह जनभावनाओं को भड़काने के लिए दिया गया सुनियोजित गैर जरूरी बयान था। बाबा की जिद की आड़ में भाजपा सरकार ने अपना स्वार्थ साधने के लिए जमकर प्रपोगंडा किया। निशंका को अच्छे खासे बाबा कोमा में जाते नजर आ रहे थे लेकिन गंगा बचाव आंदोलन से जुड़े स्वामी निगमानंद जो वाकई कोमा में थे उनको मरने के लिए छोड़ दिया गया। वह भी अनशन के चलते तबियत बिगडऩे पर अस्पताल में लाए गए थे पर निशंक ने न तो पहले उनकी मांगों पर ध्यान दिया और न भर्ती होने के बाद उनसे अनशन तोडऩे का आग्रह करने की जहमत उठाई। चार दिन के भूखे रामदेव के लिए जहां पूरी सरकार और प्रशासन पिल पड़ा वहीं 116 दिनों से भूखे प्यासे स्वामी निगमानंद को देखने की किसी को फुर्सत नहीं मिली। संत निगमानंद निशंक सरकार की बेहयाई के चलते खामोश मौत मर गए। निगमानंद की मौत बाबा के अनशन तोडऩे के एक दिन बाद हुई। संतों के प्रति भगवादल में कितना सम्मान है यह उसका भी प्रमाण है। बाबा रामदेव के तमाम खोट सामने आने के बाद भी पूरी भाजपा उनकी सेवा सुसुर्सा में लगी थी लेकिन निगमानंद जिसका गंगा के बचने या न बचने में कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता, उनमें कोई खोट भी नहीं है, को मौत के मुंह में जाने दिया।बहरहाल सेहत सुधरने के बाद पूरे घटनाक्रम पर रामदेव को विचार करना चाहिए। संत समाज का इस देश में कितना आदर है अल्प समय में सफलता की बुलंदियों पर पहुंचकर रामदेव ने यह स्वयं अनुभव किया होगा, जनहित में संत का सड़कों पर आना भी गलत नहीं है। लेकिन साधु के बाने में बेशुमार दौलत जोडऩा, जनता से छल करना, स्वयं को महान बनाने के उपक्रम करना न केवल लौकिक बल्कि पारलौकिक अपराध है। बाबा रामदेव यह अपराध कितने समय से कर रहे हैं, एक-एक कर सामने आ रहे हैं। हो सकता है मीडिया में जो आ रहा है वह सरकार प्रायोजित हो, लेकिन कोलकाता का वह व्यवसाई कैसे गलत हो सकता है जिसने योग गुरू से परेशान होकर उनकी भक्ति से तौबा कर ली। बह चुप्पी झूठ नहीं हो सकती जो कंपनियों के सवाल पर बाबा रामदेव और बालकृष्ण के ओठों पर जम गई थी।
Saturday, June 11, 2011
स्वार्थ के लिए सिद्धांतों को तिलांजलि
राजनीतिक रिश्ते, उनके प्रति निष्ठाएं और प्राथमिकताएं जरूरतों के हिसाब से बदलती रहती हैं। उमा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी पार्टी से उनके रिश्ते, निष्ठा और प्राथमिकताएं भी इन्हीं जरूरतों पर आधारित हैं। आज फिर दोनों के स्वार्थ चरम पर हैं, दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। उमा भारती को अपने खोए हुए जनाधार को पुन: प्राप्त करने के लिए एक बैनर चाहिए तो भाजपा को एक ऐसा नेता चाहिए जिसे लोग सुनें, जो भीड़ जुटा सके। भाजपा में आज आडवाणी के अलावा ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसे सुनने के लिए लोग जुटें और उमा भारती के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके सहारे वे अपने राजनैतिक कद को पुन: बढ़ा सकें। क्योंकि जिस उमा भारती के लिए भाजपा बड़े नेता दौड़े चले आते थे आज वे चाहे जहां जाएं पद पर बैठा कोई अदना नेता भी उनके स्वागत के लिए नहीं आता। इसलिए उनकी वापसी व्यापारिक सौदे के समान है एक हाथ दे-एक हाथ ले।
1980 के दशक में भारतीय जनता पार्टी को ऐसे लोगों की जरूरत थी, जो आम आदमी के जेहन में हिन्दुत्व की भावना को चरमसीमा तक पहुंचा सकें। यद्यपि संघ में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी फिर भी भाजपा ने भगवावस्त्र धारी प्रवचनकर्ता संतों को अपने आप से जोड़ा। उमा भारती उन्हीं में से एक थीं। उमा भारती बचपन से ही प्रवचन करती थीं, गीता के कंठस्थ श्लोक और उनका सूक्ष्म विश्लेषण सुनने वालों को मंत्र मुग्ध कर देता था। स्व। राजमाता सिंधिया के प्रयासों से बुंदेलखंड में उमा भारती भाजपा को कांग्रेस की काट के रूप में मिलीं। हालांकि वे पहला चुनाव 1984 में खजुराहो संसदीय सीट से हार गई थीं, लेकिन इसके बाद उन्होंने 1989 से 1991, 96 तथा 98 लगातार विजयश्री हासिल की और बुंदेलाओं के गढ़ में अब तक न मुरझाने वाला कमल खिलाया। लेकिन लंबी विजयी राजनीतिक यात्रा के बाद भाजपा का उमा से मोहभंग हो गया और उनके स्वयं के अर्जित पुण्य लोक भी नष्ट हो चुके थे। पार्टी को उनकी जितनी जरूरत थी, उससे कहीं अधिक उनका अहंकार बढ़ गया। वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी से एक ही मंत्रालय में रहने के बाद भी टकराव, और दूसरी पंक्ति के नेताओं से स्वयं का श्रेष्ठ और बड़ा समझने का भाव। अब उमा भारती का साध्वी का चोला उतर चुका था, कर्मण्य वाधिकारस्ते, मां फलेषु कदाचन: और जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह भी अच्छा है और जो होगा वह भी अच्छा होगा का मर्म समझाने वाली साध्वी उमा भारती अब स्वयं ऐसे कर्मों में लीन हो चुकी थीं जो गीतासार से कोसों दूर थे।
2003 में मध्यप्रदेश में उनके नेतृत्व में जब भाजपा की सरकार बन गई तब तो उनका अहंकार आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने गाहे-गवाहे यही प्रचारित किया कि उनके कारण ही पार्टी मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार को हटाने में कामयाब रही है। उन्होंने स्वयं को मां और मध्यप्रदेश को अपना बच्चा तक करार दिया। अपने अहंकार के बशीभूत होकर मध्यप्रदेश की इस 22वीं मुख्यमंत्री को महज 9 माह बाद कर्नाटक में साम्प्रदायिकता फैलाने तथा दंगे भड़काने के आरोप में 23 अगस्त 2004 को त्यागपत्र देना पड़ा। हालांकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, वे चाहतीं तो मुख्यमंत्री रहते हुए भी मामले में पेशी कर सकती थीं, लेकिन गगनगामी अहंकार को ज्ञान का अंकुश नियंत्रित नहीं कर सका। बहरहाल इस मामले में उन्हें बेदाग बरी किया गया, लेकिन पार्टी का स्वार्थ पूरा हो चुका था इसलिए वह उमा भारती का अहंकार सहन करने के मूड में नहीं थी। उमा प्रयास करती रहीं और बाबूलाल गौर कुर्सी छोडऩे को तैयार नहीं हुए। उमा भारती ने सत्ता की लालच में तमाम प्रयास किए। उनकी ऊल-जलूल बयानबाजी पार्टी के लिए सिरदर्द बन गई। हद तो तब हो गई जब भरी सभा में उन्होंने पार्टी के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी को ही नीचा दिखा दिया। इससे खफा पार्टी ने उन्हें कुनबे से बेदखल कर दिया गया। पार्टी से निकलने के बाद उमा भारती ने भाजपा को खूब कोसा और नेताओं को भला-बुरा कहा। यहां तक कि जिन्हें वे पिता तुल्य मानती थीं उन अटल, आडवाणी पर गंभीर आरोप लगाए। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने पर उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को भी पार्टी से निष्कासित करने की अपील कर डाली। पार्टी के लिए उनका यह जुमला बड़ा चर्चित हुआ था कि एक विमान चालक है ओर पांच अपहरणकर्ता हैं। उनका इशारा तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के अलावा प्रमोद महाजन, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज आदि नेताओं की ओर था।
उमा भारती ने अपनी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया। जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया। तब उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि पार्टी उनसे नहीं वे पार्टी से हैं। बावजूद इसके उमा भारती ने कई बार भाजपा में न जाने की कसमें खाईं। यहां तक कि जब उनकी घर वापसी के घोर प्रयास चल रहे थे ऐसे समय में भी उन्होंने भाजपा को भ्रष्ट पार्टी करार दिया। साथ ही सुषमा, जेटली और वैंकेया नायडू को गैर जनाधार वाला नेता करार देते हुए कहा था कि यही आधारविहीन नेता पार्टी में उनकी वापसी का विरोध कर रहे हैं। पार्टी के बड़े पदों पर बैठे इन लोगों को झेलना भी उनके लिए मुश्किल होगा। लेकिन वक्त बदला और दोनों ने परस्पर जरूरत को ध्यान में रखकर एक दूसरे को अपनाया। जहाज का जो पंछी जहाज डुबोने की कसमें खा रहा था वापस उसी पर सवार हो गया।
1980 के दशक में भारतीय जनता पार्टी को ऐसे लोगों की जरूरत थी, जो आम आदमी के जेहन में हिन्दुत्व की भावना को चरमसीमा तक पहुंचा सकें। यद्यपि संघ में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी फिर भी भाजपा ने भगवावस्त्र धारी प्रवचनकर्ता संतों को अपने आप से जोड़ा। उमा भारती उन्हीं में से एक थीं। उमा भारती बचपन से ही प्रवचन करती थीं, गीता के कंठस्थ श्लोक और उनका सूक्ष्म विश्लेषण सुनने वालों को मंत्र मुग्ध कर देता था। स्व। राजमाता सिंधिया के प्रयासों से बुंदेलखंड में उमा भारती भाजपा को कांग्रेस की काट के रूप में मिलीं। हालांकि वे पहला चुनाव 1984 में खजुराहो संसदीय सीट से हार गई थीं, लेकिन इसके बाद उन्होंने 1989 से 1991, 96 तथा 98 लगातार विजयश्री हासिल की और बुंदेलाओं के गढ़ में अब तक न मुरझाने वाला कमल खिलाया। लेकिन लंबी विजयी राजनीतिक यात्रा के बाद भाजपा का उमा से मोहभंग हो गया और उनके स्वयं के अर्जित पुण्य लोक भी नष्ट हो चुके थे। पार्टी को उनकी जितनी जरूरत थी, उससे कहीं अधिक उनका अहंकार बढ़ गया। वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी से एक ही मंत्रालय में रहने के बाद भी टकराव, और दूसरी पंक्ति के नेताओं से स्वयं का श्रेष्ठ और बड़ा समझने का भाव। अब उमा भारती का साध्वी का चोला उतर चुका था, कर्मण्य वाधिकारस्ते, मां फलेषु कदाचन: और जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह भी अच्छा है और जो होगा वह भी अच्छा होगा का मर्म समझाने वाली साध्वी उमा भारती अब स्वयं ऐसे कर्मों में लीन हो चुकी थीं जो गीतासार से कोसों दूर थे।
2003 में मध्यप्रदेश में उनके नेतृत्व में जब भाजपा की सरकार बन गई तब तो उनका अहंकार आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने गाहे-गवाहे यही प्रचारित किया कि उनके कारण ही पार्टी मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार को हटाने में कामयाब रही है। उन्होंने स्वयं को मां और मध्यप्रदेश को अपना बच्चा तक करार दिया। अपने अहंकार के बशीभूत होकर मध्यप्रदेश की इस 22वीं मुख्यमंत्री को महज 9 माह बाद कर्नाटक में साम्प्रदायिकता फैलाने तथा दंगे भड़काने के आरोप में 23 अगस्त 2004 को त्यागपत्र देना पड़ा। हालांकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, वे चाहतीं तो मुख्यमंत्री रहते हुए भी मामले में पेशी कर सकती थीं, लेकिन गगनगामी अहंकार को ज्ञान का अंकुश नियंत्रित नहीं कर सका। बहरहाल इस मामले में उन्हें बेदाग बरी किया गया, लेकिन पार्टी का स्वार्थ पूरा हो चुका था इसलिए वह उमा भारती का अहंकार सहन करने के मूड में नहीं थी। उमा प्रयास करती रहीं और बाबूलाल गौर कुर्सी छोडऩे को तैयार नहीं हुए। उमा भारती ने सत्ता की लालच में तमाम प्रयास किए। उनकी ऊल-जलूल बयानबाजी पार्टी के लिए सिरदर्द बन गई। हद तो तब हो गई जब भरी सभा में उन्होंने पार्टी के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी को ही नीचा दिखा दिया। इससे खफा पार्टी ने उन्हें कुनबे से बेदखल कर दिया गया। पार्टी से निकलने के बाद उमा भारती ने भाजपा को खूब कोसा और नेताओं को भला-बुरा कहा। यहां तक कि जिन्हें वे पिता तुल्य मानती थीं उन अटल, आडवाणी पर गंभीर आरोप लगाए। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने पर उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को भी पार्टी से निष्कासित करने की अपील कर डाली। पार्टी के लिए उनका यह जुमला बड़ा चर्चित हुआ था कि एक विमान चालक है ओर पांच अपहरणकर्ता हैं। उनका इशारा तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के अलावा प्रमोद महाजन, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज आदि नेताओं की ओर था।
उमा भारती ने अपनी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया। जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया। तब उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि पार्टी उनसे नहीं वे पार्टी से हैं। बावजूद इसके उमा भारती ने कई बार भाजपा में न जाने की कसमें खाईं। यहां तक कि जब उनकी घर वापसी के घोर प्रयास चल रहे थे ऐसे समय में भी उन्होंने भाजपा को भ्रष्ट पार्टी करार दिया। साथ ही सुषमा, जेटली और वैंकेया नायडू को गैर जनाधार वाला नेता करार देते हुए कहा था कि यही आधारविहीन नेता पार्टी में उनकी वापसी का विरोध कर रहे हैं। पार्टी के बड़े पदों पर बैठे इन लोगों को झेलना भी उनके लिए मुश्किल होगा। लेकिन वक्त बदला और दोनों ने परस्पर जरूरत को ध्यान में रखकर एक दूसरे को अपनाया। जहाज का जो पंछी जहाज डुबोने की कसमें खा रहा था वापस उसी पर सवार हो गया।
Monday, April 11, 2011
राम कवन प्रभु पूछउं तोही
गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरित मानस में चार कल्पों को बांटकर श्रीरामवतार के चार कारणों का उल्लेख किया गया है। पहला: ऋषि के श्राप से जय और विजय के रावण और कुंभकर्ण होने पर दूसरा: जलंधर के रावण होने पर तीसरा: नारादजी के श्राप से शिवगणों के रावण-कुंभकर्ण होने पर चौथा: मनु-सतरूपा की तपस्या और भानुप्रताप के शॉपित होकर रावण होने पर हालांकि तुलसीदासजी ने यह भी स्पष्ट किया है, राम जनम कर हेतु अनेका, परम विचित्र एक ते एका, अर्थात भगवान के अवतार के अनेक कारण हैं जो वर्णनातीत हैं, फिर भी यहां चार कारणों का उल्लेख किया गया है ताकि सती को राम रूप में जो संशय हुआ उसका निवारण हो जाए।
ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज, अकल, अनीह अभेद सो कि देह धरि होई नर, जाहि न जानत वेद विष्णु जो सुर हित नर तन धारी। होउ सर्वग्य जथा त्रिपुरारी खोजई सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधान श्रीपति असुरारी अर्थात सर्वव्यापक अज, अकल, अनीह, अभेद, कहलाने वाले निर्गुण ब्रह्म तो मनुष्य का अवतार ले ही नहीं सकते, रहे सगुण ब्रह्म भगवान विष्णु यदि उन्होंने अवतार लिया है तो उनमें ऐसी अग्यता कैसे आती कि वे स्त्री के विरह में कातर होकर घूमते। इस संदेह के निवारण हेतु जय-विजय और जलंधर हेतुओं से वैकुंठनाथ का और मनु सतरूपा तथा नारद श्राप हेतुओं से व्यापक ब्रह्म का रामवतार होना सिद्ध किया गया है।
रामचरित मानस में हरि शब्द का प्रयोग प्रसंगानुसार श्रीपति विष्णु और राम दोनों के लिए किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों एक ही हैं। जैसे पुनि हरि हेतु करन तप लागे। मनु की इस तपोनिरत अवस्था तथा तपस्या पूर्ण होने पर भगवान के प्रकट होने पर छवि समुद्र हरि रूप बिलोकी से हरि का ही उपास्य देव होना प्रमाणित होता है। लेकिन.. बिधि, हरि, हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा इससे पता चलता है कि हरि, शिव और ब्रह्मा के साथ मनु के पास पहले आ चुके हैं जिनके लिए मनु ने आंख तक नहीं खोली। इससे स्पष्ट होता है कि हरि शब्द दो स्थानों पर दो अलग-अलग व्यक्तियों को निर्देशित करता है। एक हरि परमधाम स्वरूप ब्रह्म है और दूसरे भगवान विष्णु हैं।
द्वादस अक्षर मंत्र वर जपहिं सहित अनुराग वासुदेव पद पंकरहु दंपति मन अति लाग और विधि, हरि, हर पदगत विष्णु से तात्पर्य पालनकर्ता सत्वगुणाभिमानी, विष्णु भगवान से है जो प्रत्येक सृष्टि के पालनार्थ उन्हीं परवासुदेव हरि के अंशभूत त्रिदेवगत रहा करते हैं। इनका उल्लेख मानस में जहां कहीं भी हुआ है वहां ब्रह्मा, शिव के साथ हुआ है। जैसे- संभू, विरंचि, विष्णु भगवान, उपजहिं जासु अंश ते नाना जबकि हरि अवतार हेतु जेहि होई, इदिमित्थं कहि जाई न सोई के हरि शब्द को परब्रह्म न मानकर सत्वगुणाभिमानी अंशरूप विष्णु मान लेना और उन्हीं का अवतार श्रीराम जी को मानकार उन्हीं के द्वारा सेव्य करना- विधि, हरि, हर बंदित पद रेरू, कैसा प्रमाद युक्त और अटपटा लगता है। इस रहस्य को समझने के लिए ग्रंथ के आरंभ में महिर्षि भारद्वाज जी के प्रश्न से विवेचन किया गया है।
रामु कवन प्रभु पूछउं तोही एक राम अवधेश कुमार। तिन्ह कर चरित विदित संसारा नारि विरह दुख लहेऊ अपारा। भयऊ रोषु रन रावन मारा प्रभु सोई राम कि अपर कोऊ जाहि जपति त्रिपुरारि सत्यधाम सर्वज्ञ तुम्ह कहहु विवेक बिचारि भरद्वाज जी की इसी जिज्ञासा के साथ ग्रंथ का आरंभ होता है। प्रश्न है कि राम एक हैं या अनेक, शिवादि त्रिदेव से सेव्य राम वही हैं या कोई और। भारद्वाज के इस प्रश्न पर मुनि याज्ञवल्क्य ने समाधान सूचक भगवान शिव और पार्वती के संवाद को प्रस्तुत किया और त्रेता की इस घटना का उल्लेख किया जब सीताहरण के बाद भगवान राम वन में विरण कर रहे थे। शिवजी माता सती के साथ अगस्त ऋषि के आश्रम पहुंचे वहां राम कथा श्रवण कर उन्हें भक्ति का उपदेश देकर कैलाश लौट रहे थे। रास्ते में भगवान राम नरलीला कर रहे थे अर्थात सीताजी का पता लता, वृक्ष इत्यादि से पूछ रहे थे। शंकर भगवान अनवसर जानकार भेद खुलजाने के संशय के कारण निकट नहीं गए दूर से प्रसन्न होकर...जय सच्चिदानंद जग पावन॥कहकर प्रणाम किया। सती को इस पर संदेह हुआ कि कि सर्वज्ञ भगवान शिव ने एक राजा के लड़के को सच्चिदानंद और परधाम कहकर प्रणाम क्यों किया। सच्चिदानंद अर्थात व्यापाक ब्रह्म, अज, अकल, अनीह, अभेद, वह भला नर शरीर धारण क्यों कर सकते हैं। यदि यह विष्णु भी होते तो भी इस तरह से व्याकुल होकर नारि को खोजते क्यों फिरते, उनसे तो कुछ छिपा नहीं है, इधर भगवान शिव भी सर्वज्ञ हैं इनका कथन भी मिथ्या नहीं हो सकता। सती को शंका हो गई, दुविधिा में फंसी सती ने परीक्षा लेने की ठान ली। भगवान शिव ने उनके मन की बात जान ली और शंका समाधान के लिए कहा कि जिन रघुनाथ जी की कथा कुंभज ऋषि ने सुनाई यह वही मेरे इष्टदेव भगवान राम हैं।
इस समाधान से सती को बोध नहीं हुआ और परीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। सती आज्ञा पाकर सीता जी का रूप धारण कर उस मार्ग पर चली जहां से राम लक्ष्मण आ रहे थे। लेकिन निकट आते ही भगवान राम ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पूछने लगे आज भोलेनाथ कहां हैं, आप वन में अकेली क्यों फिर रही हैं। राम के वचन सुनकर सती को अत्यंत संकोच हुआ, विचार करने लगीं अब शिवजी को क्या उत्तर देंगीं। वापस जाने लगी तब मायानाथ ने अपनी माया का साक्षात्कार कराया ताकि सती का संदेह दूर हो जाए। सती मार्ग में देखती हैं... आगे राम सहित श्रीभ्राता....पीछे सहित बंधु सिय सुंदर बेषा चारों ओर भगवान राम विराजमान हैं, सिद्ध, मुनी उनकी सेवा कर रहे हैं। एक से एक अमित तेज वाले ब्रह्मा, बिष्णु, महेश उनकी चरण बंदना कर रहे हैं, सभी देवता अनेकानेक रूपों में उनकी सेवा में तत्पर हैं। सभी चराचर जीव, अनेक प्रकार के दिख रहे हैं, पर...राम रूप नहीं दूसर देखा....भगवान राम एक ही रूप में सब जगह विद्यमान हैं। सती कांप गईं, आंखें मूंद कर बैठ गर्इं, कुछ देर बात जब आंखें खोलीं तो वहां कुछ भी नहीं था। सती वापस शिवजी के पास आईं और बोलीं.. कछु न परीक्षा लीन्ह गोसांई, कीन्ह प्रणाम तुम्हारे नाईं...लेकिन भोलेनाथ ने सब जान लिया और लंबी समाधी में चले गए। सती ने दुखी होकर भगवान राम का स्मरण किया और प्रार्थना की... छूटहि बेगी देह यह मोरी...प्रभु ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपने पिता दक्ष के यहां यज्ञ में योगाग्नि से शरीर त्यागकर हिमवान के यहां पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। कुछ समय पश्चात घोर तपस्या करके भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया। यहां क्षमा मांगते हुए पुन: वही प्रश्न किया,..आप जिनका दिन रात जाप करते हैं, वेद-पुराण, शेष, शारद जिनका गुणगान करते हैं, ऋणिजन जिन्हें अनादि ब्रह्म कहते हैं, वे कौन हैं, कृपाकर मुझे बताएं। इसके उत्तर में भगवान शिव पहले तो संशय मात्र से क्रोधित होते हैं और कुछ कड़वे वचन का प्रयोग करते हैं... तुम्ह जो कहा राम कोऊ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ज्ञाना कहहिं सुन्हहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिसाच पाखंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न सांच...इत्यादि शिव को राम पर संदेह भी बर्दाश्त नहीं है। परंतु पार्वती भयभीत न हों इसलिए उन्हें धन्वाद देते हैं कि आपकी इस जिज्ञासा से रामकथा का वर्णन होगा। सुनु गिरराजुकुमारि भ्रम तम रबि कर बचन सम...अर्थात निश्चयात्मक, नि:शेष भ्रम रहित मेरे वचन सुनो अगुन, अरूप, अलख, अज जोई। भगत प्रेम बस सगुण सो होई अगुण, अज, अखल, अरूप, सर्वव्यापक, सच्चिदानंद, ब्रह्म ही भक्तों के प्रेमबस होकर सगुण रूप धारण करते हैं। अत: श्रीराम व्यापक परमानंद ब्रह्म हैं। वही मेरे स्वामी रघुकुलमणि श्रीराम मेरे स्वामी हैं, ऐसा कहके शिव ने अपना सीस झुकाया। भोलेनाथ के इन बचनों को सुनकर पार्वती का भ्रम दूर हो गया। अब भगवान बृषकेतु राम जन्म के रहस्योद्घाटन करते हैं... राम जनमु कर हेतु अनेका। परम विचित्र एक ते एका जनम एक दुई कहहुं बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु विजय जानि सब कोई विप्र श्राप ते दूनऊं भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई कनककपिसु अरु हाट विलोचन। जगत विदित सुरपति मदमोचन विजयी समर वीर विख्याता। धरि बराह प्रभु एक निपाता होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रह्लाद सुजस विस्तारा भए निशाचर जाई तेहि महावीर बलवान कुंभकरन रावनु सुभट सुर विजयी जग जान मुकुत न भए हतु भगवाना। तीन जनमु द्विज वचन प्रमाना एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेऊ शरीर भगति अनुरागी कस्यप-अदित तहां पितु-माता। दशरथ कौशल्या विख्याता एक कलप एहि विधि अवतारा। चरित पवित्र कीन्ह संसारा सह एक कल्प का अवतार है, दूसरे कल्प में... एक कल्प सुर देख दुखारे। समर जलंधन सन सब हारे संभु कीन्ह संग्राम आपारा। दनुज महाबल मरई न मारा परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी छल करि टारेऊ तासु व्रत, प्रभु सुर कारज कीन्ह जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना तहां जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ एक जनम कर कारन ऐहा। जेहि लगि राम धरी नर देहा फिर भगवान आगे बताते हैं....
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा यह सुनते ही पार्वती जी चौंक गईं...नारद विष्णु भगत पुनि ज्ञानी और का अपराध रामपति कीन्हा पाव्रती के इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें राम रूप का यथार्थ बोध हो गया है। तभी तो वह स्वयं विष्णु और रमापति शब्दों का उल्लेख करती हैं, अन्यथा उनहें क्या पता था कि नारद ने किसे श्राप दिया था। वस्तुत: उन्हें इसका पूर्ण बोध हो चुका था कि प्रभु के दोनों स्वरूप व्यापक, अगुन, अकल, अभेद (निराकार विग्रह यानि ब्रह्म) और वैकुंठनाथ, क्षीरशायी श्रीविष्णु (साकार विग्रह अर्थात अंश) का श्रीरामावतार से अभेद है। इन्हीं देनों से रामावतार होता है। क्योंकि निराकरण ब्रह्म को श्राप संभव नहीं है, अत: साकार रूप क्षीरशायी रमापति को ही श्राप देना कहा गया है।
पार्वती के विस्मय को समझते हुए भगवान शिव कहते हैं प्रभु की माया के आगे न तो कोई ज्ञानी है न मूर्ख वे जिस समय जिसको जैसा बनाते हैं वह वैसा बन जाता है। नारद को काम विजय के बाद अहंकार हो गया था। इसी अहंकार के बीज को नष्ट करने के लिए भगवान ने एक माया नगरी बनाई। यहां की राजकुमारी पर नारद मोहित हो गए और राजकुमार से विवाह की इच्छा से भगवान से सुंदर शरीर मांगा।
किंतु... कुपथ मांग रुज व्याकुल रोगी। वैद न देई सुनहु मुनि जोगी सुनि हित कारन कृपा निधाना। दीन्ह कुरूप न जाई बाखाना
अत: भगवान ने नारद को उनके हित के अनुसार कुरूप बना दिया। यह भेद कोई नहीं जानता था, लेकिन शिव के दो गण जानते थे, जिन्होंने राजकुमारी के स्वयंवर में नारद की हंसी उड़ाई। नारद को बहुत क्रोध आया और हंसी उड़ा रहे शिवगणों को श्राप दिया कि तुम निश्चिर कुल में जनम लो। उन्हीं दोनों ने रावण-कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। उन्होंने जब जल में अपना रूप देखा तो उन्हें और क्रोध आया, वे क्रोधित होकर लक्ष्मपति के पास चले, जो उन्हें रास्ते में ही उस राजकुमारी के साथ मिल गए जिसके लिए नारद ने सुंदर शरीर मांगा था। भगवान ने पूछा नारद कहां जा रहे हो, यह सुनकर पहले से क्रोधित नारद का क्रोध और भड़क गया। माया के वसीभूत उनका विवेक नष्ट हो गया था। बहुत कुछ दुर्वचन कहने के बाद उन्होंने भगवान को श्राप दिया....
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु शाप मम ऐहा कपि आकृति तुम्ह कीन्ह हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी मम अपकार कीन्ह तुम भारी। नारि बिरह तुम होव दुखारी भगवान ने सहर्ष भक्त का श्राप स्वीकार किया...और बहुत विनती करते हुए अपनी माया को समाप्त कर लिया।
इसके बाद भगवान आगे की कथा कहते हैं.... अपर हेतु सुन शैल कुमारी। कहहुं विचित्र कथा विस्तारी हे शैल पुत्री उन्हीं सरकार के अवतार की एक और कथा सुनो जिनको तुमने लक्ष्मण सहित वन में देखा था और भ्रम हो गया था। स्वायम्भु मनु और उनकी पत्नी सतरूपा ने चौथेपन में राज्य त्यागकर गोमती तट पर ऊँ नमो भगवते वासुदेव...इस द्वादस अक्षर मंत्र का जाप किया। जप करते-करते वर्षों बीत गये... एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार संवत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार जलाहार पर रहकर 6 हजार वर्ष और फिर सात हजार वर्ष तक वायु आधार पर शरीर धरण कर तप किया, पुन: उसे भी छोड़कर 10 हजार वर्ष तक तप किया। इस प्रकार मनु-सतरूपा ने 23 हजार वर्ष तक घोर तप किया।... विधि, हरि, हर तप देख अपारा, मनु समीप आए बहु वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश घोर तपस्या देखकर कई बार आए और वरदान मांगने का लोभ देकर चले गए। मनु ने उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा। तब श्री परमधाम, सर्वव्यापक हरि, वासुदेव उन्हें अपना अनन्य दास जानकार द्रवीभूत हुए और....मांग-मांग वरु भई नभ बानी...तब आकाशवाणी हुई वर मांगो...और मनु ने पहले मांगा... जो सरूप बस शिव मन माहीं। जहि कारन मुनि जतन कराहीं जो भसुंडि मन मानस हंसा। सगुन, अगुन जेहि निगम प्रसंशा देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारित मोचन
तब भगवान प्रकट हुए दंपति वचन परम पिय लागे। मृदुल, विनीत प्रेम रस पागे भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। विस्वबास पकटे भगवाना और पुन: वर मांगने को कहा, मनु ने वर मांगा दानि सिरोमणि कृपानिधि नाथ कहहुं सतिभाऊ चाहहुं तुम्हहिं समान सुत प्रभु सन कवन दुराऊ फिर सतरूपा से पूछा, उन्होंने मांगा आपके भक्तों को जो सुख, गति, भक्ति, विवेक, स्थिति तथा भगवत चरणों से स्नेह प्राप्त रहता है, स्वामी के वर के साथ नाथ की कृपा से मुझे प्राप्त हो। भगवान ने एवमस्तु कहकर उन्हें अमरपुर में रहने का आदेश देकर अंतध्र्यान हो गए।
रामावतार का एक और कारण है कैकय देश का राजा प्रतापभानु। इसके शत्रु राजा ने छल से इसे यह श्राप दिला दिया कि वह कुल सहित राक्षस हो। समय आने पर प्रतापभानु रावण, उसका भाई अहिमर्दन कुंकर्ण और धर्मरुचि नामक सचिव विभीषण हुआ। तीनों ने घोर तप किया और रावण ने नर और वानर के अलावा किसी अन्य से न मरने का वरदान मांगा, कुंभकर्ण ने छह माह की निद्रा मांगी और विभीषण ने भगवत भक्ति का वरदान मांगा। विभीषण भक्ति में लीन हो गया, कुंभकर्ण वरदान अनुसार निद्रा में चला गया और रावण मदमस्त होकर मेघनाद आदि पुत्रों के साथ पापाचार में रत हो गया।
अतिसय देखि धर्म के हानी। परमसभीत धरा अकुलानी पृथ्वी गाय का रूप धारण कर सारे देवताओं को साथ ले ब्रह्मा जी की शरण में आई, क्योंकि रावण को ब्रह्मा ने ही वरदान दिया था। ब्रह्मा ने कहा इन पर मेरा बस नहीं है...जाकरि तैं दासी सो अविनासी हमरेु तोर सहाई धरनि धरहि मन धीर, कह बिरंचि हरि पद सुमिर जानत जन की पीर, प्रभु भंजहि दारुन विपति यहां अविनाशी और हरि पदों से दिव्यधाम के नित्यस्वरूप सर्वान्तर्यामी हरि से अभिप्रेत हैं, त्रिदेवगत हरि नहीं। अब देवता विचार करने लगे कि श्रीहरि कहां मिलेंगे बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहं पाइअ प्रभु करिअ विचारा इस प्रसंग से पुन: स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु हरि त्रिदेवगत (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ब्रह्माणनायक नहीं, क्योंकि वे होते तो उनके समीप देवताओं का जाना सदा सुगम था। इसका उदाहरण भी इसी में मिलता है, जब शिव जी ने काम को भस्म कर दिया और रति को वरदान दिया तब... देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक वैकुंठ सिधाए सब सुर विष्णु बिरंचि समेता।गए जहां शिव कृपा निकेता पृथक-पृथक तिन्ह कीन्ह प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा अर्थात देवता सीधे विष्णु के पास पहुंच गए और उनको लेकर शिव की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। किंतु यहां विचार कर रहे हैं....हरि कहां मिलेंगे...उस सभा में भगवान शिव भी हैं जो परामर्श देते हैं....हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रकट होई भगवाना कहहु सो कहां जहां प्रभु नाहीं....फिर शिवादि देवता स्तुति करते हैं... जय जय अविनासी सब घटवासी व्यापक परमानंदा जय जय अनुरागी मुनि मनहारी सिंधु सुता प्रिय कंता निसिबासर ध्यावहिं, गुनगन गावहिं जयति सच्चिदानंदा जेहि सृष्टि उपाई त्रिबिधि बनाई संग सहाय न दूजा यहां त्रिबिध बनाई से स्पष्ट हो जाता है ... संभु, बिरंचि, बिष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंश ते नाना जानि सभय सुर भूमि सब बचन समेत सेनह गगन गिरा गंभीर भई हरनि शोक संदेह जनि डरपहु मुनि सिद्ध, सुरेशा। तिन्हहिं लागि धरिहहुं नर बेषा अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहऊं दिनकर वंश उदारा कस्यप अदिति महापत कीन्हा। तिन्ह कर मैं पूरब वर दीन्हा ते दशरथ कौसल्या रूपा। कौशलपुरी प्रकट नर भूपा तिन्ह के घर अवतरिहऊं जाई। रघुकुल तिलक सो चारिऊ भाई नारद वचन सत्य सब करिहऊं। परम सक्ति समेत अवतरिहऊं यही इस मानस ग्रंथ का मर्म है कि जहां कहीं ब्रह्माण्डनायक हरि या विष्णु का प्रयोग हुआ है जो स्वयं परवासुदेव के अंश हैं, वहां उनहें ब्रह्मा, महेश के साथ रखा गया है। ऐसे स्थलों पर परस्वरूप हरि या विष्णु अर्थात ब्रह्म को त्रिदेवगत हरि या विष्णु मान लेने से भ्रम में पडऩे की संभावना रहती है। इसलिए दोनों प्रकार के उदाहरणों को दिखाकर विष्य को स्पष्ट किया गया है। अंसन्ह सहित मनुज अवतारा
अब प्रश्न उठता है कि प्रभु के वे अंश कौन-कौन हैं जिनके सहित प्रकट होने की उन्होंने आकाशवाणी की है। संभु, बिरंचि, विष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंश ते नाना भगवान विष्णु, शिव और ब्रह्मा ये ही तीनों प्रभु के अंश स्वरूप हैं। श्रीरामावतार इन्हीं तीनों अंशों के समेत चतुर्विग्रह में प्रकट भी हुआ है, यह प्रमाणित है। श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघन चारों विग्रह चार भ्रताओं के रूप में प्रकट हुए। वेद तत्व नृप तब सुत चारी परंतु कौन विग्रह किस अंश से प्रकट हुआ है इसका स्पष्ट निर्णय नामकरण के समय गुरु वशिष्ठ ने किया।
इन्ह के नाम अनेक अनुपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा जो आनंद सिंधु सुखराशी, सीकर तें त्रैलोक सुपानी सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा विस्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई जाके सुमिरन ते रिपु नाशा। नाम शत्रुघन वेद प्रकाशा लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार गुरु वशिष्ठ तेहि राखा लक्षिमन नाम उदार अर्थात जो आनंद सिंधु और सुख की राशि हैं जो अपने महिमार्णव के विन्दु मात्र से तीनों लोगों की रक्षा करने वाले हैं उन परम प्रभु साक्षात पर ब्रह्म का सुखधाम नाम राम है। जो संसार का भरण पोषण करने (पालन) वाले विष्णु हैं, उनका नाम भरत है। जो वेदों का प्रकाश करने वाले ब्रह्मा जी हैं जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है उनका नाम शत्रुघन है एवं जो लच्छन शुभ, लक्षणों के धाम रामजी के प्रिय शिव जी हैं, एकादश रुद्रों में प्रधान रुद्र और सकल जगत के आधार शेष जी हैं उन शिव के अंश रूप जो यह चौथे हैं यहां इनका उदार नाम लक्ष्मण है। यहां यह बात समझ लेने की है कि शत्रुघन यद्यपि लक्ष्मण जी से छोटे हैं पर ब्रह्मा का अंश अवतार होने के कारण उनका उल्लेख पहले किया गया है। वास्तव में परमप्रभु श्रीराम जी के पश्चात सत्वगुणी लीलामयी विष्णु के अंशवाले भरत जी, तत्पश्चात रजोगुणी लीलाधारी श्रीब्रह्माजी के अंश वाले शत्रुघन जी और फिर तमोगुणी लीलाधारी श्री रुद्र के अंशधारी लक्ष्मण का नामकरण होना उचित था। अतएव सबके एक मात्र अंशी साक्षात परमप्रभु ने अपने तीनों अंशों सहित अवतार लेकर, अंसन्ह सहित मनुज अवतार लेकर अपने बचन को सत्य किया है।
सम्मानीय पाठ·वृंद श्रीरामचरित मानस ·ा यह सूक्ष्म विश्लेषण मानस रहस्य नाम· पुस्त· से प्राप्त हुआ है। पुस्त· अने·ों वर्ष पुरानी प्रतीत होती है उस·े ·ुछ पृष्ठ भी नहीं हैं, इसलिए उन विद्वान संत ·ा नाम पता नहीं चल स·ा जिन्होंने यह विश्लेषण ·िया है। भगवान श्रीराम ·े अवतरण दिवस पर संत ·ी यह अनमोल व्याख्या आप सभी ·ो समर्पित है।
Subscribe to:
Posts (Atom)