Monday, April 11, 2011

राम कवन प्रभु पूछउं तोही

गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरित मानस में चार कल्पों को बांटकर श्रीरामवतार के चार कारणों का उल्लेख किया गया है। पहला: ऋषि के श्राप से जय और विजय के रावण और कुंभकर्ण होने पर दूसरा: जलंधर के रावण होने पर तीसरा: नारादजी के श्राप से शिवगणों के रावण-कुंभकर्ण होने पर चौथा: मनु-सतरूपा की तपस्या और भानुप्रताप के शॉपित होकर रावण होने पर हालांकि तुलसीदासजी ने यह भी स्पष्ट किया है, राम जनम कर हेतु अनेका, परम विचित्र एक ते एका, अर्थात भगवान के अवतार के अनेक कारण हैं जो वर्णनातीत हैं, फिर भी यहां चार कारणों का उल्लेख किया गया है ताकि सती को राम रूप में जो संशय हुआ उसका निवारण हो जाए।

ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज, अकल, अनीह अभेद सो कि देह धरि होई नर, जाहि न जानत वेद विष्णु जो सुर हित नर तन धारी। होउ सर्वग्य जथा त्रिपुरारी खोजई सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधान श्रीपति असुरारी अर्थात सर्वव्यापक अज, अकल, अनीह, अभेद, कहलाने वाले निर्गुण ब्रह्म तो मनुष्य का अवतार ले ही नहीं सकते, रहे सगुण ब्रह्म भगवान विष्णु यदि उन्होंने अवतार लिया है तो उनमें ऐसी अग्यता कैसे आती कि वे स्त्री के विरह में कातर होकर घूमते। इस संदेह के निवारण हेतु जय-विजय और जलंधर हेतुओं से वैकुंठनाथ का और मनु सतरूपा तथा नारद श्राप हेतुओं से व्यापक ब्रह्म का रामवतार होना सिद्ध किया गया है।

रामचरित मानस में हरि शब्द का प्रयोग प्रसंगानुसार श्रीपति विष्णु और राम दोनों के लिए किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों एक ही हैं। जैसे पुनि हरि हेतु करन तप लागे। मनु की इस तपोनिरत अवस्था तथा तपस्या पूर्ण होने पर भगवान के प्रकट होने पर छवि समुद्र हरि रूप बिलोकी से हरि का ही उपास्य देव होना प्रमाणित होता है। लेकिन.. बिधि, हरि, हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा इससे पता चलता है कि हरि, शिव और ब्रह्मा के साथ मनु के पास पहले आ चुके हैं जिनके लिए मनु ने आंख तक नहीं खोली। इससे स्पष्ट होता है कि हरि शब्द दो स्थानों पर दो अलग-अलग व्यक्तियों को निर्देशित करता है। एक हरि परमधाम स्वरूप ब्रह्म है और दूसरे भगवान विष्णु हैं।

द्वादस अक्षर मंत्र वर जपहिं सहित अनुराग वासुदेव पद पंकरहु दंपति मन अति लाग और विधि, हरि, हर पदगत विष्णु से तात्पर्य पालनकर्ता सत्वगुणाभिमानी, विष्णु भगवान से है जो प्रत्येक सृष्टि के पालनार्थ उन्हीं परवासुदेव हरि के अंशभूत त्रिदेवगत रहा करते हैं। इनका उल्लेख मानस में जहां कहीं भी हुआ है वहां ब्रह्मा, शिव के साथ हुआ है। जैसे- संभू, विरंचि, विष्णु भगवान, उपजहिं जासु अंश ते नाना जबकि हरि अवतार हेतु जेहि होई, इदिमित्थं कहि जाई न सोई के हरि शब्द को परब्रह्म न मानकर सत्वगुणाभिमानी अंशरूप विष्णु मान लेना और उन्हीं का अवतार श्रीराम जी को मानकार उन्हीं के द्वारा सेव्य करना- विधि, हरि, हर बंदित पद रेरू, कैसा प्रमाद युक्त और अटपटा लगता है। इस रहस्य को समझने के लिए ग्रंथ के आरंभ में महिर्षि भारद्वाज जी के प्रश्न से विवेचन किया गया है।

रामु कवन प्रभु पूछउं तोही एक राम अवधेश कुमार। तिन्ह कर चरित विदित संसारा नारि विरह दुख लहेऊ अपारा। भयऊ रोषु रन रावन मारा प्रभु सोई राम कि अपर कोऊ जाहि जपति त्रिपुरारि सत्यधाम सर्वज्ञ तुम्ह कहहु विवेक बिचारि भरद्वाज जी की इसी जिज्ञासा के साथ ग्रंथ का आरंभ होता है। प्रश्न है कि राम एक हैं या अनेक, शिवादि त्रिदेव से सेव्य राम वही हैं या कोई और। भारद्वाज के इस प्रश्न पर मुनि याज्ञवल्क्य ने समाधान सूचक भगवान शिव और पार्वती के संवाद को प्रस्तुत किया और त्रेता की इस घटना का उल्लेख किया जब सीताहरण के बाद भगवान राम वन में विरण कर रहे थे। शिवजी माता सती के साथ अगस्त ऋषि के आश्रम पहुंचे वहां राम कथा श्रवण कर उन्हें भक्ति का उपदेश देकर कैलाश लौट रहे थे। रास्ते में भगवान राम नरलीला कर रहे थे अर्थात सीताजी का पता लता, वृक्ष इत्यादि से पूछ रहे थे। शंकर भगवान अनवसर जानकार भेद खुलजाने के संशय के कारण निकट नहीं गए दूर से प्रसन्न होकर...जय सच्चिदानंद जग पावन॥कहकर प्रणाम किया। सती को इस पर संदेह हुआ कि कि सर्वज्ञ भगवान शिव ने एक राजा के लड़के को सच्चिदानंद और परधाम कहकर प्रणाम क्यों किया। सच्चिदानंद अर्थात व्यापाक ब्रह्म, अज, अकल, अनीह, अभेद, वह भला नर शरीर धारण क्यों कर सकते हैं। यदि यह विष्णु भी होते तो भी इस तरह से व्याकुल होकर नारि को खोजते क्यों फिरते, उनसे तो कुछ छिपा नहीं है, इधर भगवान शिव भी सर्वज्ञ हैं इनका कथन भी मिथ्या नहीं हो सकता। सती को शंका हो गई, दुविधिा में फंसी सती ने परीक्षा लेने की ठान ली। भगवान शिव ने उनके मन की बात जान ली और शंका समाधान के लिए कहा कि जिन रघुनाथ जी की कथा कुंभज ऋषि ने सुनाई यह वही मेरे इष्टदेव भगवान राम हैं।

इस समाधान से सती को बोध नहीं हुआ और परीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। सती आज्ञा पाकर सीता जी का रूप धारण कर उस मार्ग पर चली जहां से राम लक्ष्मण आ रहे थे। लेकिन निकट आते ही भगवान राम ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और पूछने लगे आज भोलेनाथ कहां हैं, आप वन में अकेली क्यों फिर रही हैं। राम के वचन सुनकर सती को अत्यंत संकोच हुआ, विचार करने लगीं अब शिवजी को क्या उत्तर देंगीं। वापस जाने लगी तब मायानाथ ने अपनी माया का साक्षात्कार कराया ताकि सती का संदेह दूर हो जाए। सती मार्ग में देखती हैं... आगे राम सहित श्रीभ्राता....पीछे सहित बंधु सिय सुंदर बेषा चारों ओर भगवान राम विराजमान हैं, सिद्ध, मुनी उनकी सेवा कर रहे हैं। एक से एक अमित तेज वाले ब्रह्मा, बिष्णु, महेश उनकी चरण बंदना कर रहे हैं, सभी देवता अनेकानेक रूपों में उनकी सेवा में तत्पर हैं। सभी चराचर जीव, अनेक प्रकार के दिख रहे हैं, पर...राम रूप नहीं दूसर देखा....भगवान राम एक ही रूप में सब जगह विद्यमान हैं। सती कांप गईं, आंखें मूंद कर बैठ गर्इं, कुछ देर बात जब आंखें खोलीं तो वहां कुछ भी नहीं था। सती वापस शिवजी के पास आईं और बोलीं.. कछु न परीक्षा लीन्ह गोसांई, कीन्ह प्रणाम तुम्हारे नाईं...लेकिन भोलेनाथ ने सब जान लिया और लंबी समाधी में चले गए। सती ने दुखी होकर भगवान राम का स्मरण किया और प्रार्थना की... छूटहि बेगी देह यह मोरी...प्रभु ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपने पिता दक्ष के यहां यज्ञ में योगाग्नि से शरीर त्यागकर हिमवान के यहां पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। कुछ समय पश्चात घोर तपस्या करके भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया। यहां क्षमा मांगते हुए पुन: वही प्रश्न किया,..आप जिनका दिन रात जाप करते हैं, वेद-पुराण, शेष, शारद जिनका गुणगान करते हैं, ऋणिजन जिन्हें अनादि ब्रह्म कहते हैं, वे कौन हैं, कृपाकर मुझे बताएं। इसके उत्तर में भगवान शिव पहले तो संशय मात्र से क्रोधित होते हैं और कुछ कड़वे वचन का प्रयोग करते हैं... तुम्ह जो कहा राम कोऊ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ज्ञाना कहहिं सुन्हहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिसाच पाखंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न सांच...इत्यादि शिव को राम पर संदेह भी बर्दाश्त नहीं है। परंतु पार्वती भयभीत न हों इसलिए उन्हें धन्वाद देते हैं कि आपकी इस जिज्ञासा से रामकथा का वर्णन होगा। सुनु गिरराजुकुमारि भ्रम तम रबि कर बचन सम...अर्थात निश्चयात्मक, नि:शेष भ्रम रहित मेरे वचन सुनो अगुन, अरूप, अलख, अज जोई। भगत प्रेम बस सगुण सो होई अगुण, अज, अखल, अरूप, सर्वव्यापक, सच्चिदानंद, ब्रह्म ही भक्तों के प्रेमबस होकर सगुण रूप धारण करते हैं। अत: श्रीराम व्यापक परमानंद ब्रह्म हैं। वही मेरे स्वामी रघुकुलमणि श्रीराम मेरे स्वामी हैं, ऐसा कहके शिव ने अपना सीस झुकाया। भोलेनाथ के इन बचनों को सुनकर पार्वती का भ्रम दूर हो गया। अब भगवान बृषकेतु राम जन्म के रहस्योद्घाटन करते हैं... राम जनमु कर हेतु अनेका। परम विचित्र एक ते एका जनम एक दुई कहहुं बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु विजय जानि सब कोई विप्र श्राप ते दूनऊं भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई कनककपिसु अरु हाट विलोचन। जगत विदित सुरपति मदमोचन विजयी समर वीर विख्याता। धरि बराह प्रभु एक निपाता होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रह्लाद सुजस विस्तारा भए निशाचर जाई तेहि महावीर बलवान कुंभकरन रावनु सुभट सुर विजयी जग जान मुकुत न भए हतु भगवाना। तीन जनमु द्विज वचन प्रमाना एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेऊ शरीर भगति अनुरागी कस्यप-अदित तहां पितु-माता। दशरथ कौशल्या विख्याता एक कलप एहि विधि अवतारा। चरित पवित्र कीन्ह संसारा सह एक कल्प का अवतार है, दूसरे कल्प में... एक कल्प सुर देख दुखारे। समर जलंधन सन सब हारे संभु कीन्ह संग्राम आपारा। दनुज महाबल मरई न मारा परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी छल करि टारेऊ तासु व्रत, प्रभु सुर कारज कीन्ह जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना तहां जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ एक जनम कर कारन ऐहा। जेहि लगि राम धरी नर देहा फिर भगवान आगे बताते हैं....

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा यह सुनते ही पार्वती जी चौंक गईं...नारद विष्णु भगत पुनि ज्ञानी और का अपराध रामपति कीन्हा पाव्रती के इन वचनों से स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें राम रूप का यथार्थ बोध हो गया है। तभी तो वह स्वयं विष्णु और रमापति शब्दों का उल्लेख करती हैं, अन्यथा उनहें क्या पता था कि नारद ने किसे श्राप दिया था। वस्तुत: उन्हें इसका पूर्ण बोध हो चुका था कि प्रभु के दोनों स्वरूप व्यापक, अगुन, अकल, अभेद (निराकार विग्रह यानि ब्रह्म) और वैकुंठनाथ, क्षीरशायी श्रीविष्णु (साकार विग्रह अर्थात अंश) का श्रीरामावतार से अभेद है। इन्हीं देनों से रामावतार होता है। क्योंकि निराकरण ब्रह्म को श्राप संभव नहीं है, अत: साकार रूप क्षीरशायी रमापति को ही श्राप देना कहा गया है।

पार्वती के विस्मय को समझते हुए भगवान शिव कहते हैं प्रभु की माया के आगे न तो कोई ज्ञानी है न मूर्ख वे जिस समय जिसको जैसा बनाते हैं वह वैसा बन जाता है। नारद को काम विजय के बाद अहंकार हो गया था। इसी अहंकार के बीज को नष्ट करने के लिए भगवान ने एक माया नगरी बनाई। यहां की राजकुमारी पर नारद मोहित हो गए और राजकुमार से विवाह की इच्छा से भगवान से सुंदर शरीर मांगा।

किंतु... कुपथ मांग रुज व्याकुल रोगी। वैद न देई सुनहु मुनि जोगी सुनि हित कारन कृपा निधाना। दीन्ह कुरूप न जाई बाखाना

अत: भगवान ने नारद को उनके हित के अनुसार कुरूप बना दिया। यह भेद कोई नहीं जानता था, लेकिन शिव के दो गण जानते थे, जिन्होंने राजकुमारी के स्वयंवर में नारद की हंसी उड़ाई। नारद को बहुत क्रोध आया और हंसी उड़ा रहे शिवगणों को श्राप दिया कि तुम निश्चिर कुल में जनम लो। उन्हीं दोनों ने रावण-कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। उन्होंने जब जल में अपना रूप देखा तो उन्हें और क्रोध आया, वे क्रोधित होकर लक्ष्मपति के पास चले, जो उन्हें रास्ते में ही उस राजकुमारी के साथ मिल गए जिसके लिए नारद ने सुंदर शरीर मांगा था। भगवान ने पूछा नारद कहां जा रहे हो, यह सुनकर पहले से क्रोधित नारद का क्रोध और भड़क गया। माया के वसीभूत उनका विवेक नष्ट हो गया था। बहुत कुछ दुर्वचन कहने के बाद उन्होंने भगवान को श्राप दिया....

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु शाप मम ऐहा कपि आकृति तुम्ह कीन्ह हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी मम अपकार कीन्ह तुम भारी। नारि बिरह तुम होव दुखारी भगवान ने सहर्ष भक्त का श्राप स्वीकार किया...और बहुत विनती करते हुए अपनी माया को समाप्त कर लिया।

इसके बाद भगवान आगे की कथा कहते हैं.... अपर हेतु सुन शैल कुमारी। कहहुं विचित्र कथा विस्तारी हे शैल पुत्री उन्हीं सरकार के अवतार की एक और कथा सुनो जिनको तुमने लक्ष्मण सहित वन में देखा था और भ्रम हो गया था। स्वायम्भु मनु और उनकी पत्नी सतरूपा ने चौथेपन में राज्य त्यागकर गोमती तट पर ऊँ नमो भगवते वासुदेव...इस द्वादस अक्षर मंत्र का जाप किया। जप करते-करते वर्षों बीत गये... एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार संवत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार जलाहार पर रहकर 6 हजार वर्ष और फिर सात हजार वर्ष तक वायु आधार पर शरीर धरण कर तप किया, पुन: उसे भी छोड़कर 10 हजार वर्ष तक तप किया। इस प्रकार मनु-सतरूपा ने 23 हजार वर्ष तक घोर तप किया।... विधि, हरि, हर तप देख अपारा, मनु समीप आए बहु वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश घोर तपस्या देखकर कई बार आए और वरदान मांगने का लोभ देकर चले गए। मनु ने उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा। तब श्री परमधाम, सर्वव्यापक हरि, वासुदेव उन्हें अपना अनन्य दास जानकार द्रवीभूत हुए और....मांग-मांग वरु भई नभ बानी...तब आकाशवाणी हुई वर मांगो...और मनु ने पहले मांगा... जो सरूप बस शिव मन माहीं। जहि कारन मुनि जतन कराहीं जो भसुंडि मन मानस हंसा। सगुन, अगुन जेहि निगम प्रसंशा देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारित मोचन

तब भगवान प्रकट हुए दंपति वचन परम पिय लागे। मृदुल, विनीत प्रेम रस पागे भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। विस्वबास पकटे भगवाना और पुन: वर मांगने को कहा, मनु ने वर मांगा दानि सिरोमणि कृपानिधि नाथ कहहुं सतिभाऊ चाहहुं तुम्हहिं समान सुत प्रभु सन कवन दुराऊ फिर सतरूपा से पूछा, उन्होंने मांगा आपके भक्तों को जो सुख, गति, भक्ति, विवेक, स्थिति तथा भगवत चरणों से स्नेह प्राप्त रहता है, स्वामी के वर के साथ नाथ की कृपा से मुझे प्राप्त हो। भगवान ने एवमस्तु कहकर उन्हें अमरपुर में रहने का आदेश देकर अंतध्र्यान हो गए।

रामावतार का एक और कारण है कैकय देश का राजा प्रतापभानु। इसके शत्रु राजा ने छल से इसे यह श्राप दिला दिया कि वह कुल सहित राक्षस हो। समय आने पर प्रतापभानु रावण, उसका भाई अहिमर्दन कुंकर्ण और धर्मरुचि नामक सचिव विभीषण हुआ। तीनों ने घोर तप किया और रावण ने नर और वानर के अलावा किसी अन्य से न मरने का वरदान मांगा, कुंभकर्ण ने छह माह की निद्रा मांगी और विभीषण ने भगवत भक्ति का वरदान मांगा। विभीषण भक्ति में लीन हो गया, कुंभकर्ण वरदान अनुसार निद्रा में चला गया और रावण मदमस्त होकर मेघनाद आदि पुत्रों के साथ पापाचार में रत हो गया।

अतिसय देखि धर्म के हानी। परमसभीत धरा अकुलानी पृथ्वी गाय का रूप धारण कर सारे देवताओं को साथ ले ब्रह्मा जी की शरण में आई, क्योंकि रावण को ब्रह्मा ने ही वरदान दिया था। ब्रह्मा ने कहा इन पर मेरा बस नहीं है...जाकरि तैं दासी सो अविनासी हमरेु तोर सहाई धरनि धरहि मन धीर, कह बिरंचि हरि पद सुमिर जानत जन की पीर, प्रभु भंजहि दारुन विपति यहां अविनाशी और हरि पदों से दिव्यधाम के नित्यस्वरूप सर्वान्तर्यामी हरि से अभिप्रेत हैं, त्रिदेवगत हरि नहीं। अब देवता विचार करने लगे कि श्रीहरि कहां मिलेंगे बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहं पाइअ प्रभु करिअ विचारा इस प्रसंग से पुन: स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु हरि त्रिदेवगत (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ब्रह्माणनायक नहीं, क्योंकि वे होते तो उनके समीप देवताओं का जाना सदा सुगम था। इसका उदाहरण भी इसी में मिलता है, जब शिव जी ने काम को भस्म कर दिया और रति को वरदान दिया तब... देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक वैकुंठ सिधाए सब सुर विष्णु बिरंचि समेता।गए जहां शिव कृपा निकेता पृथक-पृथक तिन्ह कीन्ह प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा अर्थात देवता सीधे विष्णु के पास पहुंच गए और उनको लेकर शिव की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। किंतु यहां विचार कर रहे हैं....हरि कहां मिलेंगे...उस सभा में भगवान शिव भी हैं जो परामर्श देते हैं....हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रकट होई भगवाना कहहु सो कहां जहां प्रभु नाहीं....फिर शिवादि देवता स्तुति करते हैं... जय जय अविनासी सब घटवासी व्यापक परमानंदा जय जय अनुरागी मुनि मनहारी सिंधु सुता प्रिय कंता निसिबासर ध्यावहिं, गुनगन गावहिं जयति सच्चिदानंदा जेहि सृष्टि उपाई त्रिबिधि बनाई संग सहाय न दूजा यहां त्रिबिध बनाई से स्पष्ट हो जाता है ... संभु, बिरंचि, बिष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंश ते नाना जानि सभय सुर भूमि सब बचन समेत सेनह गगन गिरा गंभीर भई हरनि शोक संदेह जनि डरपहु मुनि सिद्ध, सुरेशा। तिन्हहिं लागि धरिहहुं नर बेषा अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहऊं दिनकर वंश उदारा कस्यप अदिति महापत कीन्हा। तिन्ह कर मैं पूरब वर दीन्हा ते दशरथ कौसल्या रूपा। कौशलपुरी प्रकट नर भूपा तिन्ह के घर अवतरिहऊं जाई। रघुकुल तिलक सो चारिऊ भाई नारद वचन सत्य सब करिहऊं। परम सक्ति समेत अवतरिहऊं यही इस मानस ग्रंथ का मर्म है कि जहां कहीं ब्रह्माण्डनायक हरि या विष्णु का प्रयोग हुआ है जो स्वयं परवासुदेव के अंश हैं, वहां उनहें ब्रह्मा, महेश के साथ रखा गया है। ऐसे स्थलों पर परस्वरूप हरि या विष्णु अर्थात ब्रह्म को त्रिदेवगत हरि या विष्णु मान लेने से भ्रम में पडऩे की संभावना रहती है। इसलिए दोनों प्रकार के उदाहरणों को दिखाकर विष्य को स्पष्ट किया गया है। अंसन्ह सहित मनुज अवतारा

अब प्रश्न उठता है कि प्रभु के वे अंश कौन-कौन हैं जिनके सहित प्रकट होने की उन्होंने आकाशवाणी की है। संभु, बिरंचि, विष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंश ते नाना भगवान विष्णु, शिव और ब्रह्मा ये ही तीनों प्रभु के अंश स्वरूप हैं। श्रीरामावतार इन्हीं तीनों अंशों के समेत चतुर्विग्रह में प्रकट भी हुआ है, यह प्रमाणित है। श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघन चारों विग्रह चार भ्रताओं के रूप में प्रकट हुए। वेद तत्व नृप तब सुत चारी परंतु कौन विग्रह किस अंश से प्रकट हुआ है इसका स्पष्ट निर्णय नामकरण के समय गुरु वशिष्ठ ने किया।

इन्ह के नाम अनेक अनुपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा जो आनंद सिंधु सुखराशी, सीकर तें त्रैलोक सुपानी सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा विस्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई जाके सुमिरन ते रिपु नाशा। नाम शत्रुघन वेद प्रकाशा लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार गुरु वशिष्ठ तेहि राखा लक्षिमन नाम उदार अर्थात जो आनंद सिंधु और सुख की राशि हैं जो अपने महिमार्णव के विन्दु मात्र से तीनों लोगों की रक्षा करने वाले हैं उन परम प्रभु साक्षात पर ब्रह्म का सुखधाम नाम राम है। जो संसार का भरण पोषण करने (पालन) वाले विष्णु हैं, उनका नाम भरत है। जो वेदों का प्रकाश करने वाले ब्रह्मा जी हैं जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है उनका नाम शत्रुघन है एवं जो लच्छन शुभ, लक्षणों के धाम रामजी के प्रिय शिव जी हैं, एकादश रुद्रों में प्रधान रुद्र और सकल जगत के आधार शेष जी हैं उन शिव के अंश रूप जो यह चौथे हैं यहां इनका उदार नाम लक्ष्मण है। यहां यह बात समझ लेने की है कि शत्रुघन यद्यपि लक्ष्मण जी से छोटे हैं पर ब्रह्मा का अंश अवतार होने के कारण उनका उल्लेख पहले किया गया है। वास्तव में परमप्रभु श्रीराम जी के पश्चात सत्वगुणी लीलामयी विष्णु के अंशवाले भरत जी, तत्पश्चात रजोगुणी लीलाधारी श्रीब्रह्माजी के अंश वाले शत्रुघन जी और फिर तमोगुणी लीलाधारी श्री रुद्र के अंशधारी लक्ष्मण का नामकरण होना उचित था। अतएव सबके एक मात्र अंशी साक्षात परमप्रभु ने अपने तीनों अंशों सहित अवतार लेकर, अंसन्ह सहित मनुज अवतार लेकर अपने बचन को सत्य किया है।

सम्मानीय पाठ·वृंद श्रीरामचरित मानस ·ा यह सूक्ष्म विश्लेषण मानस रहस्य नाम· पुस्त· से प्राप्त हुआ है। पुस्त· अने·ों वर्ष पुरानी प्रतीत होती है उस·े ·ुछ पृष्ठ भी नहीं हैं, इसलिए उन विद्वान संत ·ा नाम पता नहीं चल स·ा जिन्होंने यह विश्लेषण ·िया है। भगवान श्रीराम ·े अवतरण दिवस पर संत ·ी यह अनमोल व्याख्या आप सभी ·ो समर्पित है।

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