
परमार्थ के ध्येय को जब स्वार्थ के आवरण में ढंककर आगे बढ़ाया जाता है तो उसका परिणाम बाबा रामदेव के अनशन की तरह होता है। कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन यह सत्य है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ और भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा कराए गए काले धन को वापस लाने जैसा पवित्र उद्देश्य बाबा रामदेव की नायक बनने की उद्दाम महात्वाकांक्षा से प्रेरित था, जो उनके मन में, जंतर-मंतर पर अनशन के दौरान अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन को देखकर, मचली थी।बाबा के मन पर दूसरी चोट तब लगी जब सिविल सोसायटी में उन्हें शामिल नहीं किया गया, जबकि वे उस समय भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जनजागरण अभियान के तहत देशभ्रमण कर रहे थे।
बाबा इस ईष्र्या को छिपा नहीं सके और उन्होंने लोकपाल समिति में प्रशांत भूषण और शांति भूषण के शामिल होने पर आपत्ति उठाई थी। लेकिन योग गुरू की छवि के चलते उस वक्त लोगों ने योगी के मन में मचल रही कामना को सहज प्रतिक्रिया माना। और बाबा रामदेव के अनशन को भी उनकी इसी छवि के चलते लोगों ने वैसा ही समर्थन दिया जैसा अन्ना हजारे को दिया था। लेकिन संन्यासी का स्वार्थ उसे ले डूबा, शुरू से ही उन्होंने ऐसी गलतियां कीं जिनके चलते वे जनता से दूर, सरकार के निशाने पर और विपक्ष का मोहरा बनते चले गए।
रामदेव की सबसे पहली और बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने लोगों को आंदोलन से जुडऩे के लिए जिस तरह रामलीला मैदान में जुटाया उससे समाज में यह संदेश गया कि बाबा जनहित में अनशन नहीं बल्कि सरकार के सामने शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं। यह बात किसी और ने नहीं हरिद्वार के ही एक संत ने कही। बाबा की दूसरी भूल अनशन की भव्यता...अनशन साधारण तरीके से होता है लेकिन बाबा का अनशन स्थल सर्वसुविधा संपन्न किसी पांच सितारा होटल की तरह था। गरीब जनता की बात करने के लिए बाबा ने करोड़ों रुपए फूंक दिएतीसरी गलती प्रशासन से झूठ...इस गलती ने बाबा को पहले कदम पर ही सरकार के निशाने पर लाकर बैठा दिया। बाबा ने रामलीला मैदान में 400 लोगों के लिए योग शिविर की अनुमति ली और 50 हजार लोगों के साथ अनशन पर बैठ गए। जाहिर है यह लोग योग शिविर में भाग लेने आए थे न कि अनशन में। चौथी गलती समर्थकों से धोखा...बाबा ने सरकार के साथ समझौते का जो पत्र लिखा उसके विषय में अनशन में शामिल लोगों को नहीं बताया।
उधर सरकार से जो समझौता किया था वह भी पूरा नहीं किया। विपक्ष की ओर मिल रही शह और मीडिया कवरेज से फूले बाबा तब भी अनशन पर अड़े रहे जबकि सरकार ने उनकी सारी मांगें बाकायदा लिखित में सिरोधार्य कर लीं। इस मौके पर यदि रामदेव सत्याग्रह छोड़ देते तो न केवल जनता की नजर में नायक बन जाते बल्कि सरकार भी उनको सिर आंखों पर बैठए रहती। लेकिन स्वयं को महानायक के तौर पर स्थापित करने की लालच ने बाबा को सरकार की नजर में खलनायक और जनता की नजर में संदग्धि बना दिया। रही सही कसर बाबा के उन पूर्व भक्तों ने पूरी कर दी जो पहले कभी बाबा के चक्कर में ठगे गए थे।
बाबा के साथ इस वक्त केवल वे ही लोग हैं जो उनसे या तो उनसे जुड़े हुए हैं या फिर वे लोग हैं जो बाबा के कंधे पर बंदूक रखकर सरकार का शिकार करना चाहते हैं। कुछ संतों ने ऐसे लोगों की रणनीतियों को भांपकर बाबा का अनशन तुड़वा कर अपनी महानता का परिचय दिया, लेकिन ध्वंश की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले बाबा को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे। भाजपा जनहित और लोकतंत्र के नाम पर इस मुद्दे को पूरी तरह भुनाने का प्रयास करेगी, इसके लिए वह देशव्यापी आंदोलन का ऐलान कर चुकी है। हालांकि सरकार को बेशर्म-बेहया और बेईमान कहने वाली यह पार्टी स्वयं कितनी बेशर्म और बेहया है इसका खुलासा भी दूसरे दिन हो गया।बाबा रामदेव जब अस्पताल में भर्ती हुए तो भाजपा ने भारी हायतौबा मचाई और केंद्र सरकार के बाबा से कोई बातचीत न करने के फैसले को न जाने क्या-क्या संज्ञाएं दीं। इस दौरान भाजपा की ओर से जनता को उद्दोलित करने की भी कोशिश की गई। लोगों को याद होगा जिस दिन डॉक्टरों ने बताया कि रामदेव की हालत में सुधार हो रहा है, उसी दिन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक कह रहे थे कि बाबा कोमा में जा सकते हैं। यह जनभावनाओं को भड़काने के लिए दिया गया सुनियोजित गैर जरूरी बयान था। बाबा की जिद की आड़ में भाजपा सरकार ने अपना स्वार्थ साधने के लिए जमकर प्रपोगंडा किया। निशंका को अच्छे खासे बाबा कोमा में जाते नजर आ रहे थे लेकिन गंगा बचाव आंदोलन से जुड़े स्वामी निगमानंद जो वाकई कोमा में थे उनको मरने के लिए छोड़ दिया गया। वह भी अनशन के चलते तबियत बिगडऩे पर अस्पताल में लाए गए थे पर निशंक ने न तो पहले उनकी मांगों पर ध्यान दिया और न भर्ती होने के बाद उनसे अनशन तोडऩे का आग्रह करने की जहमत उठाई। चार दिन के भूखे रामदेव के लिए जहां पूरी सरकार और प्रशासन पिल पड़ा वहीं 116 दिनों से भूखे प्यासे स्वामी निगमानंद को देखने की किसी को फुर्सत नहीं मिली। संत निगमानंद निशंक सरकार की बेहयाई के चलते खामोश मौत मर गए। निगमानंद की मौत बाबा के अनशन तोडऩे के एक दिन बाद हुई। संतों के प्रति भगवादल में कितना सम्मान है यह उसका भी प्रमाण है। बाबा रामदेव के तमाम खोट सामने आने के बाद भी पूरी भाजपा उनकी सेवा सुसुर्सा में लगी थी लेकिन निगमानंद जिसका गंगा के बचने या न बचने में कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता, उनमें कोई खोट भी नहीं है, को मौत के मुंह में जाने दिया।बहरहाल सेहत सुधरने के बाद पूरे घटनाक्रम पर रामदेव को विचार करना चाहिए। संत समाज का इस देश में कितना आदर है अल्प समय में सफलता की बुलंदियों पर पहुंचकर रामदेव ने यह स्वयं अनुभव किया होगा, जनहित में संत का सड़कों पर आना भी गलत नहीं है। लेकिन साधु के बाने में बेशुमार दौलत जोडऩा, जनता से छल करना, स्वयं को महान बनाने के उपक्रम करना न केवल लौकिक बल्कि पारलौकिक अपराध है। बाबा रामदेव यह अपराध कितने समय से कर रहे हैं, एक-एक कर सामने आ रहे हैं। हो सकता है मीडिया में जो आ रहा है वह सरकार प्रायोजित हो, लेकिन कोलकाता का वह व्यवसाई कैसे गलत हो सकता है जिसने योग गुरू से परेशान होकर उनकी भक्ति से तौबा कर ली। बह चुप्पी झूठ नहीं हो सकती जो कंपनियों के सवाल पर बाबा रामदेव और बालकृष्ण के ओठों पर जम गई थी।
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