Friday, December 31, 2010

हैप्पी न्यू इयर


हो उदय नव सूर्य नभ पर

द्वोष के तम का हरण हो

हे सखे नव वर्ष में

कुछ इस तरह से आचारण हो

भावनाएं नेह की हों

धर्म की न देह की हों

आदमियत जिससे हो आहत

वर्जना उस चाह की हो

प्रेम हो सबमें परस्पर

प्रेममय वातावरण हो

हे सखे नव वर्ष में.........

शिखर पर पहुंचो प्रगति के

बन के पर्याय उन्नति के

तोड़कर सब व्यथ बंधन

पुष्प बन जाओ प्रकृति

संत की भांति सखा तुम

सज्जनों में स्मरण हो

हे सखे नव वर्ष में

कुछ इस तरह से आचरण हो


बाहर से दरवाजा बाहर से ही बंद होता है

इसमें समझने और जांच जैसी कोई बात कम से कम मुझे तो समझ नहीं आती। जिस दिन आरुषि की हत्या हुई नूपुर तलवार (आरुषि की मां) ने नौकरानी की आवाज पर दरवाजा खोला, यानि दरवाजा अंदर से बंद था। हेमराज की लाश दूसरे दिन छत पर मिली, छत पर जाने वाले सीढिय़ों पर लगे दरवाजे में अंदर से ताला बंद था। यनि दोनों दरवाजे अंदर से बंद थे। यदि कोई व्यक्ति आरुषि की हत्या करने के बाद छत पर हेमराज की हत्या करता तो छत पर जाने वाला दरवाजा छत से बंद होता न कि अंदर से। और यदि कोई छत का दरवाजा अंदर से बंद करके मुख्य दरवाजे से बाहर निकला होता तो दरवाज बाहर से बंद होता न कि अंदर से। तलवार परिवार के घर की न तो कोई खिड़की टूटी न दीवार फिर भी कातिल फरार...असंभव। यानि कातिल घर में था और घर में है।

सीबीआई कह रही है कि मोबाइल और हत्या में इस्तेमला किया गया हथियार नेपाल में हो सकता है, पर जिस कैमरे की हत्या के समय चर्चा की जा रही थी वह सिरे से गायब है। इस बात को भी नजर अंदाज किया जा रहा है कि छत पर जाने वाली सीढ़ी के दरवाजे में लगे ताले की चाबी तुरंत हाजिर क्यों नहीं हुई, जबकि छत का इस्तेमाल रोज हो रहा है।

और सबसे अहम बात कि जांच अधिकार बार-बार क्यों बदले गए। सबसे पहले यदि इस बात की जांच हो जाए तो शायद कुछ निकल सकता है। क्योंकि सब इंस्पेक्टर पीआर नवनेरिया, सब इंस्पेक्टर संतराम, इंस्पेक्टर अनिल समानिया सब नाकारा तो नहीं हो सकते जो आखिर में जांच सब इंस्पेक्टर जगदीश सिंह को सौंपी गई। बार-बार जांच अधिकारी बदलने से जांच ही प्रभावित नहीं हुई बल्कि सबूतों का साफ करने का भी पर्याप्त मौका मिला। इसके पीछे कौन था, किसके कहने पर अधिकारी बदले गए, इनको बदलने से किसको लाभ था...यदि इसका खुलासा हो जाए तो शायद आरुषि के कातिल तक पहुंचने का सुराग भी मिल सकता है।

Wednesday, December 29, 2010

किसानों की उपज नियंत्रण मुक्त क्यों नहीं

पैट्रोलियम कंपनियों को लगातार हो रहे घाटे से बचाने के लिए सरकार ने भारी महंगाई के बीच पैट्रोल के दामों को नियंत्रण मुक्त कर दिया और पैट्रोल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से तय करने का अधिकार कंपनियों को सौंप दिया। डीजल के दामों को भी नियंत्रण मुक्त करने की सिफारिश योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया कर रहे हैं।इस देश में किसान भी सदियों से घाटे की खेती कर रहा है। अब तो हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि रोजाना किसानों द्वारा आत्महत्याओं की खबरें आ रही हैं। सरकार तमाम प्रयासों के बावजूद खेती को घाटे से उबार नहीं सकी है, क्या पैट्रोलियम कंपनियों की तरह वह किसानों को भी अपनी उपज का मूल्य तय करने का अधिकार देगी।

Sunday, December 12, 2010

कुछ तो चाहिए किचकिच के लिए

ऐसा लगता है राजनीति किचकिच की पूरक हो गई है, वक्त वे-वक्त कोई न कोई नेता ऐसा बेसिर-पैर का बयान दे देते हैं कि सियासत में तूफान उठ खड़ा होता है। 2जी स्पेक्ट्रम पर घमासान चल रहा है, सारा देश इस भारी-भरकम घोटाले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था का इंतजार कर रहा है, ऐसे वक्त में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान कांगे्रस महासचिव दिग्विजय को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने दो साल पहले की घटना एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत पर बेसिर-पैर का जुबानी धमाका कर दिया। वे जो बोल रहे हैं वह कितना सच और झूठ है यह दीगर बात है, लेकिन दो साल बाद इसकी कोई जरूरत नहीं थी। अगर बहुत हरिश्चंद्र बनने का शौक था तो एआर अंतुले के साथ कंधा मिला लेते। ऐसा लगता है एक दिन बाद संसद सत्र स्थगित होने वाला है, इसलिए कोई न कोई किचकिच चलती रहे, इसके लिए दिग्गी राजा ने यह फिजूल बयान दिया। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि इससे आतंकी हमले के गुनहगार आमिर कसाब को लाभ होगा, मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि कसाब देश के खिलाफ युद्ध छेडऩे का दोषी है, जिसमें करकरे साहब की मौत एक पार्ट है। लेकिन विपक्ष को भी कुछ न कुछ तो चाहिए चिल्लाने के लिए सो वह भी पिल पड़ी।दिग्विजय सिंह ने जितना फालतू बयान दिया है, विपक्ष का बखेड़ा भी उतना ही फिजूल है। आखिर क्या कहा दिग्विजय ने, करकरे जब मालेगांव हत्याकांड की जांच कर रहे थे उस दौरान उन्हें हिन्दूवादी संगठनों से धमकी मिल रही थी। दूसरी बात वे इस बात से परेशान थे कि भाजपा नेता उनकी निष्ठा पर सवाल उठा रहे हैं। करकरे को धमकी मिल रही थी यह तो महज दिग्गी सिगूफा लगता है लेकिन जरा गड़े मुर्दे उखाड़ें तो करकरे पर भाजपा का संदेह खूब चर्चा में रहा। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी पर भाजपा और शिवसेना ने करकरे को खूब कोसा था, यहां तक कहा गया था कि एटीएस प्रज्ञा ठाकुर को जेल में प्रताडि़त कर रही है। भाजपा तो वाकायदा आंदोलन चलाने के मूड में थी। फिर अब दिग्गी के बयान से भाजपा के पेट में दर्द क्यों हो रहा है। प्रज्ञा अब भी जेल में हैं और भाजपा उन्हें बचाने के लिए, निर्दोष साबित करने के लिए क्यों कोई प्रयास नहीं कर रही है।इसलिए लगता है कि किसी को देश से मतलब नहीं है, किसके नंबर कैसे बढ़ सकते हैं, वे कैसे चर्चा में रह सकते हैं इसी की जुगत में जुबान चलाते रहते हैं। दिग्विजय सिंह दो साल पहले भी कांग्रेस में थे और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, यदि करकरे को धमकी मिल रही थी तो स्वयं करकरे भी इसकी शिकायत कर सकते थे और दिग्विजय सिंह भी इस बात पर सवाल उठा सकते थे, दो साल बाद इन बातों की कोई तुक नहीं है। और भाजपा करकरे साहब के प्रति आज जितनी कृतज्ञ है, उतना ही भरोसा तब करना चाहिए था जब वे मालेगांव कांड की जांच कर रहे थे। कृपया होश में आएं और इलाहाबाद हाईकोर्ट की इन टिप्पणियों पर गौर फरमाएं। जनता बेवकूफ नहीं है, सिर्फ अवमानना के डर से चुप रहती है। और दूसरी जनता दौड़ा-दौड़ा कर मारेगी।

Wednesday, December 8, 2010

चोर तंत्र

भ्रष्टाचार के आंकड़ों पर गौर करें तो कहना लाजमी होगा कि हमारी व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं बल्कि चोर तांत्रिक है। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अच्छी न लगे मैं उनसे क्षमा चाहता हूं लेकिन मेरा आज का अनुभव और आज ही उपलब्ध आंकड़े मेरे आंकलन की पुष्टि करते नजर आ रहे हैं।
मुझे आज एक सज्जन मिले, उन्होंने अपने बच्चे की पोस्ट ऑफिस में नौकरी लगने की खुश खबरी सुनाई साथ में बच्चे की ज्वाइनिंग रिपोर्ट में जमा करने के लिए लगने वाले जाति प्रमाण पत्र पर उनको हुई परेशानी की व्यथा-कथा। तीन दिन तक वे केंद्र द्वारा दिए गए प्रोफार्मा पर एसडीएम के दस्तखत लेने के लिए चक्कर लगाते रहे, चौथे दिन एक वकील साहब की मदद से उनका काम हुआ। वकील साहब ने उन्हें 50 रुपए बाबू को देने को कहा। उनके पास 100 का नोट था, जो उन्होंने वकील साहब को दिया, वकील साहब कुछ ज्यादा ही करीबी व्यक्ति थे लिहाजा उन्होंने 100 रुपए वापस कर दिए और अपनी जेब से 50 रुपए संबंधित बाबू को दे दिए। इसके बाद उन्होंने कहा कि यार 100 रुपए तो चार लोग मिलकर सामौचे-कचौरी में खर्च कर देते हैं फिर यह तो मेरे लिए बड़ा काम था, इसलिए देने में कोई हर्ज नहीं।
एक नौजवान के भविष्य को नजरअंदाज करने वाला अधिकारी किस हद तक कमीना है यह उसने बता दिया, इस स्थिति में कोई भी पिता मजबूर हो जाएगा। लेकिन समौसे-कचौरी के रूप में उनकी जो स्वीकारोक्ति कचोटने वाली थी। बहरहाल गरीब और आम आदमी इसतरह से मजबूर होकर सालाना करीब 900 करोड़ रुपए रिश्वत में खर्च कर देता है। जबकि उक्त अफसर की तरह कई भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और घपलेबाज व्यापारियों के 462 अरब विदेशी बैंकों में जमा हैं। पिछले तीन साल में केवल 2105 भ्रष्टाचारियों को पकड़ा गया है, सजा कितनों को हुई सरकार के पास इसके कोई आंकड़े नहीं है। फिर यह आंकड़े वे हैं जो पकड़े गए हैं। लोकसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 2008 में भ्रष्टाचार के 744, 2009 में 795 मामले तथा 31 अक्टूबर 2010 तक 566 मामले दर्ज किए गए। जिसमें इन छोटे अफसर जैसे अनेकों मामले निश्चित रूप से शामिल नहीं हैं।
जानकारों की राय है कि देश में भ्रष्टाचार को जड़ से तभी उखाड़ा जा सकता है जब ऐसा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। जब नेता और दल ही भ्रष्ट हों तो आप व्यवस्था के अचानक भ्रष्टाचार मुक्त हो जाने की उम्मीद नहीं कर सकते। देश में भ्रष्टाचार ऊपरी स्तर से नीचे के स्तर की ओर फैलता है। शीर्ष नेतृत्व, चाहे वह राजनीतिक हो या प्रशासनिक, अगर भ्रष्टाचार करता है तो निचले स्तर पर भ्रष्टाचार होना स्वाभाविक है। उपलब्ध आंकड़ों और परिस्थतियां हमें यह सोचने पर विवश करती हैं कि हम लोकतंत्र में नहीं बल्कि चोर तंत्र में जी रहे हैं।

Sunday, December 5, 2010

बाबरी बरसी: आइना देखकर भी शर्म नहीं आती

कुछ लोग होते हैं जिन्हें उनकी हैसियत सरेआम भी बता दी जाए तो बेशमरी से उसे अपनी खूबी साबित करने में लग जाते हैं। हमारे देश के नेता भी कुछ ऐसे ही हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंड पीठ का फैसला आने के बाद भी कुछ लोगों को चैन नहीं है, वे मामले को आगे ले जाना चाहता है। विज्ञापन जगत ने गा-गा इनको समझा दिया, सबका ठंडा एक, लेकिन सदियों से पूर्वजों का मंत्र सबका मालिक एक इनको समझ में नहीं आता। ये शांति नहीं शमसान की आग ठंडी न हो इसकी व्यवस्था में लगे रहते हैं। बहरहाल हाईकोर्ट के फैसले के वक्त जनता ने इन्हें आईना दिखा दिया है, लेकिन खुद को खुदा और राम का अलंबरदार बनने की ख्वाहिश जोर मार रही है, जैसे खिसयानी बिल्ली...

कुछ लोगों को लगता है कि फैसले की तारीख को जनता डर के मारे घरों में बैठी रही। लेकिन मुझे लगता है कि ये उनकी नासमझी है। पिछले 18 साल में सरयू में बहुत पानी बह चुका है, लोग शांति के साथ विकास की परिक्रमा पूरी करने की ओर अग्रसर हैं। आखिर क्या मिला उन हिन्दुओं को जो 6 दिसंबर 1992 को एक नया इतिहास लिखने की ठाने थे और उन मुसलमानों को जिन्होंने ईंट का जबाव पत्थर देने की कोशिश की थी। क्या हिन्दुओं ने जिस उद्देश्य को लेकर इतिहास बदलने का प्रयास किया था उसमें वे सफल हुए? या वे मुसलमान जिन्होंने सिर्फ खोखले स्वाभिमान के लिए हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म दिया था जिसमें बाद में सारा देश क्या हिन्दू क्या मुसलमान उजड़े, मरे, बर्बाद हो गये आज क्या वह सम्मान हासिल कर सके? निश्चित तौर पर कोई कुछ हासिल नहीं कर सका, उल्टे दोनों की नादानियों का नतीजा यह है कि पिछले 18 वर्षों में दोनों समुदायों के बीच की दरार इतनी चौड़ी हो गई जितनी फूट डालने के बाद अंग्रेज भी नहीं कर सके थे। सफल हुए तो केवल वे जिन्होंने इस आग में दूर से हाथ सेंके और वह हर व्यक्ति असफल हुआ जो इस आग में कूदा चाहे नेता हो या आम आदमी। भरोसा नहीं आता तो नजर घुमाईये और देखिए आडवानी जी की तरफ और फिर कल्याण सिंह, उमा भारती और ऋतंभरा की तरफ। एक व्यक्ति लाखों अपराध करने के बाद भी महारथी साबित हो रहा है और बाकी सब नेपथ्य में हैं।

जनता ने इस सच को समझा है, जाना है, इसी समझ का उदाहरण थी फैसले की वह तारीख जब अयोध्या पर हाईकोर्ट का ऐतिहासक फैसला आने के बाद शांति के समुद्र में विवाद की एक लहर नहीं उठी। हमने पिछले 18 साल में उन्हें उस स्थिति में ला खड़ा किया जहां से वे बिना वैशाखी के नहीं चल सकते। अब उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि यह समय शौर्य दिवस या काला दिवस मनाने का नहीं है बल्कि आत्मलोचन का समय है। मंदिर की नींव पर सत्ता की इमारत बार-बार खड़ी नहीं होगी और स्वार्थ के लिए खुदा के खुदमुख्तार बनकर जनता की नजरों के नूर नहीं हो सकते।

Wednesday, December 1, 2010

चार मुर्दे बैठकर चौपाल पर, जिंदगी का अर्थ समझाने लगे

दम साधे पूरे दो महीने से घोटालों का नाटक देखा। सोच रहा था कहीं से कुछ निकलेगा तब तसल्ली के साथ कुछ बात करेंगे। लेकिन ढाक के तीन पांत। अशोक चव्हाण ने इस्तीफा दे दिया, ए राजा ने इस्तीफा दे दिया, जितना कमाना था कमा चुके हैं, अब क्या फर्क पड़ता है। अदालत चीख रही है-व्यवस्था सड़ चुकी है, सिर चकरा रहा है, लेकिन अफसोस कि मुंह पर रुमाल रखकर निकल लेने के अलावा यहां न तो कोई तैयार है न कोई चारा।
दरअसल कुछ निकलने की उम्मीद करना मूर्खता है और अदालत का व्यवस्था को कोसना बेमानी। क्योंकि ऐसी उम्मीदें तभी फलीभूत हो सकती हैं जब दूसरा पक्ष ईमानदार हो। यहां तो हमाम में सब नंगे हैं। गले तक गंदगी के दलदल में डूबकर दूसरों को सुचिता का पाठ पढ़ा रहे हैं। बीएस येदियुरप्पा अरबों की जमीन अपने बाल-बच्चों में बांट दें तो दाग अच्छे हैं और राजा अरबों रुपए डकार जाएं तो व्यवस्था पर बदनुमा दाग। चव्हाण और राजा को हटाकर कांग्रेसी खुद को हरिश्चंद्र की औलद समझने लगें और बीयर कंपनियों को देने के लिए गेहूं सड़ा दें तो अधिकारियों की लापरवाही। क्या तमाशा है, दूसरे की नब्ज पकड़ में आ जाए तो मुर्दे जिंदगी का सबक सिखलाने लगते हैं।
और फिर इन्हीं को क्यों कोसें। ईमानदार है कौन। जन्म प्रमाण पत्र से मौत का सर्टिफिकेट बनवाने तक का ऐसा कौन सा काम है जिसके लिए बाबू लेने को तैयार न हो और जनता देने को तैयार न हो। हमें आराम मिल जाए इसके लिए कुछ ले-दे कर हम दूसरों का पत्ता काटने से कहीं नहीं चूकते। दस-बीस रुपए देकर शॉर्टकट से निकलने के हम आदि हो चुके हैं, और बहाना बनाते हैं कि कौन झमेले में पड़े। भ्रष्टाचार को लानत भेजते-भेजते हमारा दम नहीं फूलता और चार-छह लाख खर्च करके मनचाही नौकरी पाकर हम सीना फुलाकर घूमते हैं। हम ईमानदार नहीं है दोगले हैं खुद के प्रति, समाज के प्रति और व्यवस्था के प्रति।
इसका मतलब यह नहीं कि सब ऐसे हैं, कुछ वाकई ईमानदार भी हैं, लेकिन बस कुछ, अधिकांश लोग ढींगे मारते हैं, इन्हें या तो मौका नहीं मिला या फिर ये पकड़े नहीं गए। अन्यथा कोई कारण नहीं कि हर आदमी ईमानदारी का दम भरे और पूरा देश भ्रष्टाचार के दलदल में डूबता चला जाए, देश की सर्वोच्च अदालत को कहना पड़े कि व्यवस्था में गंगा से ज्यादा कचरा आ चुका है।