दम साधे पूरे दो महीने से घोटालों का नाटक देखा। सोच रहा था कहीं से कुछ निकलेगा तब तसल्ली के साथ कुछ बात करेंगे। लेकिन ढाक के तीन पांत। अशोक चव्हाण ने इस्तीफा दे दिया, ए राजा ने इस्तीफा दे दिया, जितना कमाना था कमा चुके हैं, अब क्या फर्क पड़ता है। अदालत चीख रही है-व्यवस्था सड़ चुकी है, सिर चकरा रहा है, लेकिन अफसोस कि मुंह पर रुमाल रखकर निकल लेने के अलावा यहां न तो कोई तैयार है न कोई चारा।
दरअसल कुछ निकलने की उम्मीद करना मूर्खता है और अदालत का व्यवस्था को कोसना बेमानी। क्योंकि ऐसी उम्मीदें तभी फलीभूत हो सकती हैं जब दूसरा पक्ष ईमानदार हो। यहां तो हमाम में सब नंगे हैं। गले तक गंदगी के दलदल में डूबकर दूसरों को सुचिता का पाठ पढ़ा रहे हैं। बीएस येदियुरप्पा अरबों की जमीन अपने बाल-बच्चों में बांट दें तो दाग अच्छे हैं और राजा अरबों रुपए डकार जाएं तो व्यवस्था पर बदनुमा दाग। चव्हाण और राजा को हटाकर कांग्रेसी खुद को हरिश्चंद्र की औलद समझने लगें और बीयर कंपनियों को देने के लिए गेहूं सड़ा दें तो अधिकारियों की लापरवाही। क्या तमाशा है, दूसरे की नब्ज पकड़ में आ जाए तो मुर्दे जिंदगी का सबक सिखलाने लगते हैं।
और फिर इन्हीं को क्यों कोसें। ईमानदार है कौन। जन्म प्रमाण पत्र से मौत का सर्टिफिकेट बनवाने तक का ऐसा कौन सा काम है जिसके लिए बाबू लेने को तैयार न हो और जनता देने को तैयार न हो। हमें आराम मिल जाए इसके लिए कुछ ले-दे कर हम दूसरों का पत्ता काटने से कहीं नहीं चूकते। दस-बीस रुपए देकर शॉर्टकट से निकलने के हम आदि हो चुके हैं, और बहाना बनाते हैं कि कौन झमेले में पड़े। भ्रष्टाचार को लानत भेजते-भेजते हमारा दम नहीं फूलता और चार-छह लाख खर्च करके मनचाही नौकरी पाकर हम सीना फुलाकर घूमते हैं। हम ईमानदार नहीं है दोगले हैं खुद के प्रति, समाज के प्रति और व्यवस्था के प्रति।
इसका मतलब यह नहीं कि सब ऐसे हैं, कुछ वाकई ईमानदार भी हैं, लेकिन बस कुछ, अधिकांश लोग ढींगे मारते हैं, इन्हें या तो मौका नहीं मिला या फिर ये पकड़े नहीं गए। अन्यथा कोई कारण नहीं कि हर आदमी ईमानदारी का दम भरे और पूरा देश भ्रष्टाचार के दलदल में डूबता चला जाए, देश की सर्वोच्च अदालत को कहना पड़े कि व्यवस्था में गंगा से ज्यादा कचरा आ चुका है।