केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने सोमवार को एक विवादित बयान दे दिया। उन्होंने कहा, देश में हिदुओं की आबादी कम हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हिंदू लोगों को कन्वर्ट नहीं कराते हैं। रिजिजू ने ट्वीट किया, पड़ोस के दूसरे देशों की तुलना में भारत में माइनॉरिटीज फल-फूल रही है। कांग्रेस को इस तरह भड़काने वाले बयान नहीं देने चाहिए। प्रदेश में सभी धार्मिक ग्रुप अमन और चैन के साथ रहते हैं।
खुराक
Monday, February 13, 2017
Thursday, March 31, 2016
बोफोर्स के जिन्न को जगा दिया
भारत और वेस्टइंडीज के बीच हुए सेमीफाइनल मुकाबले से पहले भारतीय बल्लेबाज धाकड़ विराट कोहली तथा वेस्टइंडीज के बल्लेबाज क्रिस गेल के बीच चल रहे तुलनात्मक विमर्श और इसी बीच अचानक कोलकाता में गिरे ओवर ब्रिज की दुर्घटना में यदि मीडिया न उलझा होता तो शायद महानायक अमिताभ बच्चन का लिखा ब्लॉग सर्वाधिक चर्चा का विषय होता। इसलिए नहीं कि यह ब्लॉग अमिताभ का है बल्कि इसलिए जब कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, अरुणाचल और उत्तराखंड में राष्टपति शासन लगाया जा चुका है, हिमाचल और मणिपुर के हालातों लेकर कांगे्रस नेतृत्व चिंतित है, पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होना है, इसे मौके पर बिग बी ने बोफोर्स के जिन्न को जगा दिया।Thursday, November 1, 2012
यह खुद को परखने का वक्त है
राजनीति जब-जब ठोकर खाती है उसका भुगतान पूरे राष्ट्र को करना पड़ता है, और मजबूत राजनीति केवल मजबूत लोकतंत्र के ही कंधों पर टिक सकती है और लोकतंत्र की मजबूती का अभिप्राय केवल अधिकारों की संपन्नता नहीं बल्कि अधिकार संपन्न होने के बाद बढ़े दायित्वों के सफल निर्वाहन में निहित है। जब-जब किसी राष्ट्र ने राजनीति और लोकव्यवस्था के इस सिद्धांत को नजरअंदाज किया है उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा है, कल्प और काल चाहे जो भी रहा हो। और जो हम कहें कि यह नेताओं का अपराध है तो हम आधा झूठ बोलते हैं, क्योंकि जब-जब धृतराष्ट्रों को सत्ता सौंपकर पितामह भीष्म अपनी आंखें बंद कर लेंगे तब-तब द्रोपदी का चीरहरण होता रहेगा।
भारतवर्ष के इतिहास में ऐसे अनेक अवसरों का वृत्तांत बतौर उदाहरण मौजूद हैं, बावजूद इसके आज अधिकारों की दुंदभी बजा रही भारतीय जनता और मीडिया उसी राह पर है जहां कर्तव्यों से अधिकारों की चिंता अधिक प्रतीत होती है। हमें समझना होगा कि जब लोकतंत्र मजबूत होगा तभी राजनीति भी मजबूत होगा, लेकिन नि:संदेह लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीति स्थिर होगी क्योंकि बिना राजनीति और राज्य व्यवस्था के तो किसी राष्ट्र की कल्पना की ही नहीं जा सकती। यदि अतिरेक के प्रवाह में हम लोकशाही को राज्यव्यवस्था मान लेंगे तो अनगिनत मत-मतांतरों में कोई व्यवस्था कैसे सृजित और संचालित होगी? यह सच है कि हमारे अतीत के अनुभव दुखद हैं और भविष्य की कोई राह नजर नहीं आती। नेतृत्वहीन, दिशाहीन, कर्तव्यबोध हीन राजनीतिक दल और उनके नेताओं ने विकल्पों का शून्य पैदा कर दिया है, जिसकी ओर देखो आरोपों की काली चादर में लिपटा खड़ा है। बावजूद इसके यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान के वृक्ष का अंकुर अतीत की भूमि में ही प्रस्फुटित होता है। इसलिए जनता और उसके अधिकारों का स्वंभू-झंडाबरदार मीडिया जो हर छोटी बड़ी उथल-पुथल को लेकर श्रेय के पीछे भागने लगता है, श्रेय की इस क्षणिक आंकाक्षा को त्यागकर इस पर विमर्श करे कि अतीत में ऐसी क्या गलती हुई जिसका परिणाम वर्तमान भोग रहा है। क्या हमारी गलती से ही तो ऐसे लोग सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच गए, जो जनता को अपनी उच्चाकांक्षाओं, वासनाओं और व्यसनों पर बलि चढ़ाने के लिए प्रतिपल तैयार प्रतीत होते हैं? क्या हमने ही तो उस वक्त अपने कर्तव्यों से आंखें नहीं मूंद लीं थीं जब यह दूषित राजनीति की अमरबेल बढ़कर गांधी, नेहरू, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री की धरोहर को नष्टनाबूत करने के लिए उस पर छाए जा रही थी? और अब जबकि यह गलती हमसे हो चुकी है तो इसका निदान क्या है? क्योंकि कोई समस्या अंतहीन तो होती ही नहीं है, लेकिन इस समस्या का अंतर किसी पर जूता फेंककर, किसी को गाली देकर, चंद लोगों के भ्रष्टाचार के मामले खोलकर तो संभव नहीं है। और यदि हम यह अपेक्षा करें कि कोई ऐसा उपाय भी हो सकता है कि राम राज्य आ आएगा तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि ईष्यालुओं की नस्ल विलुप्त हो जाएगी। ऐसा कोई उपाय नहीं है, लेकिन अंकुश का एक उपाय जो है, वो हमारे अपने पास है और वह है दायित्वबोध का उपाय, कि हमें क्या करना है। पांच साल में एक बार आने वाले मौके पर किसी चुनना है, अपने बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र समय रहते बनवाना है या आराम से, अपनी कमजोरी को पड़ोसी की योग्यता पर छल कपट से सिद्ध करना है या नहीं, अपने स्वार्थ के लिए किसी नेता की सिफारिश चाहिए है या पुरुषार्थ से अपने नियत लक्ष्य पर पहुंचना है।
हम क्यों न यह मांग करें कि लोकपाल के साथ ही हमें एक ऐसा कानून भी चाहिए, जो अपराधियों को चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों उन्हें चुनाव लडऩे से रोकता हो? हम क्यों न यह मांग करें कि दो बार से अधिक कोई भी नेता चुनाव नहीं लड़ सकेगा? हम क्यों न यह मांग करें कि राज्य सभा के जरिए पीछे की खिड़की से चाहे जिसे संसद में लाने वाली सरकार एक बार से अधिक ऐसा अवसर किसी को उपलब्ध नहीं कराएगी? और दागियों को तो एक बार भी नहीं? लेकिन अफसोस कि हम ऐसी मांगें नहीं करते, और ऐसी मांगें इसलिए नहीं होती क्योंकि जो मांग हम करते हैं वस्तुत: वह भी उधार की मांगें होती हैं हमारी अपनी नहीं। और यही हमारी वो कमजोर आदत है जिसका लाभ नेता उठाते हैं या नेता बनने के अभिलाषी व्यक्ति। सृजन और विध्वंश में खर्च होने वाले क्रमश: समय का जो अंतर है वह यहां भी लगेगा, लेकिन व्यवस्था सुधरेगी जरूर यदि हम ठान लेंगे तो, पर ऐसे नहीं जिस तरह आज ठाने हुए हैं। किसी के कहने पर किसी को हराकर और किसी को जिताकर तो यह समस्या अनंतकाल तक खत्म नहीं होगी। इसके लिए सबसे पहले तो हमें अपना ही उपचार करना होगा।
एक ओर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, तृणमूल, जदयू सहित तमाम दलों के नेता, यहां तक कि वामपंथी भी भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त प्रतीत हो रहे हैं तो दूसरी ओर ईमानदारी की अलख जगाकर राजनीतिक विकल्प तलाशने निकले अरविंद केजरीवाल के साथियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। प्रश्न-प्रतिप्रश्न और आरोप-प्रत्यारोपों की आंधी के बीच मीडिया तिनके की तरह उड़कर कभी इसके कॉलर पर चिपक रहा है तो कभी उसके कॉलर पर, समर्थकों का नया हंगामाई अंदाज देखने को मिल रहा है और सब भौचक हैं कि विकल्प के बीज में ही भ्रष्टाचार की फंगस दिख रही है तो भविष्य का वृक्ष कैसा होगा?
अब तक जो देखा जा रहा है हमारा ध्यान समस्या के वृक्ष पर है मूल पर नहीं, इसलिए हमारा जो आधा-अधूरा प्रहार होगा वह भी वृक्ष पर होगा मूल पर नहीं। जरूरत है दोहरे प्रहार की, उस वृक्ष को भी खंड-खंड किया जाए और जिसने पौधों को मिलने वाली धूप, हवा, पानी पर अतिक्रमण कर रखा है और उस जमीन पर भी जिसमें उस वृक्ष की जड़ें बेहद मजबूती से गड़ी हुई हैं।
किसी भी परिणाम का कारक कोई एक तो हो ही नहीं सकता, कई कारण मिलकर एक परिणाम को जन्म देते हैं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ ही लोकव्यवहार में जो बुनियादी खामियां हैं, इस अंतहीन दिख रही समस्या की मूल जड़ भी इसी में है, और उसका पालन-पोषण भी हमारे ही बीच होता है, इसलिए इसे चाहे जितना काटो-छांटो न तो यह छोटी होती है और न ही कभी खत्म। यानि इस पाप का मूल हमारे ही बीच में है जो राजनीतिक जमात को संजीवनी देता है ताकत देता है। तो हमें उन लोगों पर भी वैचारिक प्रहार करना होगा जो भ्रष्टाचार और अत्याचार के वृक्ष को खाद पानी दे रहे हैं। लेकिन यह प्रहार अभद्रता, अशिष्टता और हिंसा का नहीं होगा। यह प्रहार है वैचारिक, बौद्धिक, जागरुकता का। अन्ना हजारे शायद यही करने जा रहे हैं। जंतर-मंतर से उन्होंने वृक्ष पर प्रहार किया, अब छोटे-छोटे गांवों, कस्बों और तहसीलों में जाने का विचार है। यदि वे सफल रहे तो जढ़ जनता को हिलाया जा सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे बीच हैं और इनको लोभ, मोह, भय, जाति और समाज का खाद पानी मिलता है। यहीं पर चोट की जरूरत है कि जागो अधिकारों की मांग करने वालो, अपने दायित्वों के प्रति भी सजग हो। वोट देना अधिकार है, बोलना अधिकार है, अच्छा खाना, रहना और पहनना अधिकार है, लेकिन जाति, वर्ण और किसी लालच में गलत आदमी का चुनाव अपराध है, किसी को अपशब्द कहकर उसकी मानहानि अपराध है, अपने धनबल और छलकपट से किसी की रोजी रोटी छीनना अपराध है। इनसे बचना है कि यही मानव सभ्यता है और ऐसे ही लोग ईमानदार और पारदर्शी व्यवस्था के अधिकारी भी हैं। जो समाज ऐसा नहीं सोचता, केवल गाल बजाता है वह इसी व्यवस्था का अधिकारी है जैसी में जी रहा है, जंगल राज में।
भारतवर्ष के इतिहास में ऐसे अनेक अवसरों का वृत्तांत बतौर उदाहरण मौजूद हैं, बावजूद इसके आज अधिकारों की दुंदभी बजा रही भारतीय जनता और मीडिया उसी राह पर है जहां कर्तव्यों से अधिकारों की चिंता अधिक प्रतीत होती है। हमें समझना होगा कि जब लोकतंत्र मजबूत होगा तभी राजनीति भी मजबूत होगा, लेकिन नि:संदेह लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीति स्थिर होगी क्योंकि बिना राजनीति और राज्य व्यवस्था के तो किसी राष्ट्र की कल्पना की ही नहीं जा सकती। यदि अतिरेक के प्रवाह में हम लोकशाही को राज्यव्यवस्था मान लेंगे तो अनगिनत मत-मतांतरों में कोई व्यवस्था कैसे सृजित और संचालित होगी? यह सच है कि हमारे अतीत के अनुभव दुखद हैं और भविष्य की कोई राह नजर नहीं आती। नेतृत्वहीन, दिशाहीन, कर्तव्यबोध हीन राजनीतिक दल और उनके नेताओं ने विकल्पों का शून्य पैदा कर दिया है, जिसकी ओर देखो आरोपों की काली चादर में लिपटा खड़ा है। बावजूद इसके यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान के वृक्ष का अंकुर अतीत की भूमि में ही प्रस्फुटित होता है। इसलिए जनता और उसके अधिकारों का स्वंभू-झंडाबरदार मीडिया जो हर छोटी बड़ी उथल-पुथल को लेकर श्रेय के पीछे भागने लगता है, श्रेय की इस क्षणिक आंकाक्षा को त्यागकर इस पर विमर्श करे कि अतीत में ऐसी क्या गलती हुई जिसका परिणाम वर्तमान भोग रहा है। क्या हमारी गलती से ही तो ऐसे लोग सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच गए, जो जनता को अपनी उच्चाकांक्षाओं, वासनाओं और व्यसनों पर बलि चढ़ाने के लिए प्रतिपल तैयार प्रतीत होते हैं? क्या हमने ही तो उस वक्त अपने कर्तव्यों से आंखें नहीं मूंद लीं थीं जब यह दूषित राजनीति की अमरबेल बढ़कर गांधी, नेहरू, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री की धरोहर को नष्टनाबूत करने के लिए उस पर छाए जा रही थी? और अब जबकि यह गलती हमसे हो चुकी है तो इसका निदान क्या है? क्योंकि कोई समस्या अंतहीन तो होती ही नहीं है, लेकिन इस समस्या का अंतर किसी पर जूता फेंककर, किसी को गाली देकर, चंद लोगों के भ्रष्टाचार के मामले खोलकर तो संभव नहीं है। और यदि हम यह अपेक्षा करें कि कोई ऐसा उपाय भी हो सकता है कि राम राज्य आ आएगा तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि ईष्यालुओं की नस्ल विलुप्त हो जाएगी। ऐसा कोई उपाय नहीं है, लेकिन अंकुश का एक उपाय जो है, वो हमारे अपने पास है और वह है दायित्वबोध का उपाय, कि हमें क्या करना है। पांच साल में एक बार आने वाले मौके पर किसी चुनना है, अपने बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र समय रहते बनवाना है या आराम से, अपनी कमजोरी को पड़ोसी की योग्यता पर छल कपट से सिद्ध करना है या नहीं, अपने स्वार्थ के लिए किसी नेता की सिफारिश चाहिए है या पुरुषार्थ से अपने नियत लक्ष्य पर पहुंचना है।
हम क्यों न यह मांग करें कि लोकपाल के साथ ही हमें एक ऐसा कानून भी चाहिए, जो अपराधियों को चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों उन्हें चुनाव लडऩे से रोकता हो? हम क्यों न यह मांग करें कि दो बार से अधिक कोई भी नेता चुनाव नहीं लड़ सकेगा? हम क्यों न यह मांग करें कि राज्य सभा के जरिए पीछे की खिड़की से चाहे जिसे संसद में लाने वाली सरकार एक बार से अधिक ऐसा अवसर किसी को उपलब्ध नहीं कराएगी? और दागियों को तो एक बार भी नहीं? लेकिन अफसोस कि हम ऐसी मांगें नहीं करते, और ऐसी मांगें इसलिए नहीं होती क्योंकि जो मांग हम करते हैं वस्तुत: वह भी उधार की मांगें होती हैं हमारी अपनी नहीं। और यही हमारी वो कमजोर आदत है जिसका लाभ नेता उठाते हैं या नेता बनने के अभिलाषी व्यक्ति। सृजन और विध्वंश में खर्च होने वाले क्रमश: समय का जो अंतर है वह यहां भी लगेगा, लेकिन व्यवस्था सुधरेगी जरूर यदि हम ठान लेंगे तो, पर ऐसे नहीं जिस तरह आज ठाने हुए हैं। किसी के कहने पर किसी को हराकर और किसी को जिताकर तो यह समस्या अनंतकाल तक खत्म नहीं होगी। इसके लिए सबसे पहले तो हमें अपना ही उपचार करना होगा।
एक ओर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, तृणमूल, जदयू सहित तमाम दलों के नेता, यहां तक कि वामपंथी भी भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त प्रतीत हो रहे हैं तो दूसरी ओर ईमानदारी की अलख जगाकर राजनीतिक विकल्प तलाशने निकले अरविंद केजरीवाल के साथियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। प्रश्न-प्रतिप्रश्न और आरोप-प्रत्यारोपों की आंधी के बीच मीडिया तिनके की तरह उड़कर कभी इसके कॉलर पर चिपक रहा है तो कभी उसके कॉलर पर, समर्थकों का नया हंगामाई अंदाज देखने को मिल रहा है और सब भौचक हैं कि विकल्प के बीज में ही भ्रष्टाचार की फंगस दिख रही है तो भविष्य का वृक्ष कैसा होगा?
अब तक जो देखा जा रहा है हमारा ध्यान समस्या के वृक्ष पर है मूल पर नहीं, इसलिए हमारा जो आधा-अधूरा प्रहार होगा वह भी वृक्ष पर होगा मूल पर नहीं। जरूरत है दोहरे प्रहार की, उस वृक्ष को भी खंड-खंड किया जाए और जिसने पौधों को मिलने वाली धूप, हवा, पानी पर अतिक्रमण कर रखा है और उस जमीन पर भी जिसमें उस वृक्ष की जड़ें बेहद मजबूती से गड़ी हुई हैं।
किसी भी परिणाम का कारक कोई एक तो हो ही नहीं सकता, कई कारण मिलकर एक परिणाम को जन्म देते हैं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ ही लोकव्यवहार में जो बुनियादी खामियां हैं, इस अंतहीन दिख रही समस्या की मूल जड़ भी इसी में है, और उसका पालन-पोषण भी हमारे ही बीच होता है, इसलिए इसे चाहे जितना काटो-छांटो न तो यह छोटी होती है और न ही कभी खत्म। यानि इस पाप का मूल हमारे ही बीच में है जो राजनीतिक जमात को संजीवनी देता है ताकत देता है। तो हमें उन लोगों पर भी वैचारिक प्रहार करना होगा जो भ्रष्टाचार और अत्याचार के वृक्ष को खाद पानी दे रहे हैं। लेकिन यह प्रहार अभद्रता, अशिष्टता और हिंसा का नहीं होगा। यह प्रहार है वैचारिक, बौद्धिक, जागरुकता का। अन्ना हजारे शायद यही करने जा रहे हैं। जंतर-मंतर से उन्होंने वृक्ष पर प्रहार किया, अब छोटे-छोटे गांवों, कस्बों और तहसीलों में जाने का विचार है। यदि वे सफल रहे तो जढ़ जनता को हिलाया जा सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे बीच हैं और इनको लोभ, मोह, भय, जाति और समाज का खाद पानी मिलता है। यहीं पर चोट की जरूरत है कि जागो अधिकारों की मांग करने वालो, अपने दायित्वों के प्रति भी सजग हो। वोट देना अधिकार है, बोलना अधिकार है, अच्छा खाना, रहना और पहनना अधिकार है, लेकिन जाति, वर्ण और किसी लालच में गलत आदमी का चुनाव अपराध है, किसी को अपशब्द कहकर उसकी मानहानि अपराध है, अपने धनबल और छलकपट से किसी की रोजी रोटी छीनना अपराध है। इनसे बचना है कि यही मानव सभ्यता है और ऐसे ही लोग ईमानदार और पारदर्शी व्यवस्था के अधिकारी भी हैं। जो समाज ऐसा नहीं सोचता, केवल गाल बजाता है वह इसी व्यवस्था का अधिकारी है जैसी में जी रहा है, जंगल राज में।
Sunday, October 7, 2012
नकली पार्टियां खोखले नेता
मौजूदा राजनीतिक हालात और नेताओं के बयानों को देखकर इसमें संदेह की कतई गुंजाइश शेष नहीं है कि न तो कांग्रेस असली है और न ही भाजपा। असली कांग्रेस काफी समय पहले खत्म हो गई थी और असली भाजपा भी वाजपेयी जी की सक्रियता समाप्त होने के साथ खत्म हो गई। दोनों दलों के नेताओं में न केवल शिष्टता और सहनशीलता की कमी आई है बल्कि घोर अवश्विास ने भी इन्हें घेर लिया है। एक मूंछों पर ताव देता है तो दूसरा घर पर लठैत बुला लेता है। व्यक्तिगत आक्षेप और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति दोनों दलों के नेताओं में लगातार बढ़ रही है।
तो पहले ऐसा क्या था? इसे समझने के लिए कुछ तथ्य गौर करने लायक हैं। यह मेरे लिए सुखद अनुभव है कि मुझे भारतीय राजनीति और भारतीय नेताओं के इतने उज्जवल चरित्र को पढऩे का मौका मिला।
हाल ही में एक वाकया सामने आया था जिसमें बताया गया था राजीव गांधी ने अटल बिहार वाजपेयी को उनकी बीमारी का पता लगते ही संयुक्त राष्ट्र जा रहे एक प्रतिनिधि मंडल में शामिल किया था। अटल जी ने राजीव की इस सदासयता का सदा सम्मान किया है। लेकिन परस्पर विश्वास और सम्मान की बहुत बड़ी मिशाल मुझे जानने को मिली है, जिसकी आज के किसी भी नेता से अपेक्षा नहीं की जा सकती। इतिहास का यह पन्ना राजनीतिक शिष्टता और स्वच्छ राजनीति का अनुपम उदाहरण है। यह वक्त कौन सा है, मुझे नहीं पता, इस वक्त को देखने वाले कौन हैं जिन्होंने यह इस दृष्टांत को लोगों तक पहुंचाया, लेकिन है बेहद अनुकरणीय।
आचार्य नरेंद्र देव कांग्रेस छोड़ चुके थे और उन्होंने प्रजा समाजवादी पार्टी बनाई थी। पंडित संपूर्णानंद कांग्रेस में थे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। जब सवाल आया प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का। सभी को अंदाजा था कि आचार्य जी इसे स्वयं लिखेंगे। आचार्य जी की तबियत थोड़ी खराब थी। कुछ दिनों बाद आचार्य जी से उनके साथियों ने पूछा कि घोषणा पत्र लिखने का काम कहां तक पहुंचा तो आचार्य जी ने कहा कि उन्होंने संपूर्णानंद से कहा है और वह घोषणा पत्र लिख रहे हैं। आचार्य जी के साथी थोड़े चिंतित हुए, पर किसी ने आचार्य जी के फैसले पर उंगली नहीं उठाई। तीन महीनों के बाद हाथ से लिखा कागजों का बंडल आचार्य जी के पास आया, जिसे पं. संपूर्णानंद ने भेजा था। आचार्य जी ने उसे देखा भी नहीं और सीधे प्रेस में छपने भिजवा दिया। आचार्य जी के साथी चिंतित होकर उनके पास गए और कहा कि कम से कम एक बार देख तो लीजिए कि लिखा क्या है? आचार्य जी ने मुस्कराते हुए कहा कि संपूर्णानंद ने लिखा है, सब सही होगा और वही लिखा होगा, जो मैं लिखता। फिर ध्यान दिला दूं कि आचार्य नरेंद्र देव जी ने प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का काम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद जी को सौंपा, जिसे उन्होंने स्वीकार किया और जो उन्होंने लिखा उसे बिना देखे, बिना कामा-फुलस्टाप बदले आचार्य जी ने छपने भेज दिया, जबकि दोनों राजनीतिक तौर पर परस्पर विरोधी दलों में थे।
अगर आज सोनिया गांधी और नितिन गडकरी का उनका कोई साथी या दोस्त किसी दूसरी पार्टी में हो और ऐसा ही आग्रह करे तो नितिन गडकरी और सोनिया गांधी क्या करेंगे? एक और बाकया है। चंद्रभानु गुप्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके खिलाफ चंद्रशेखर और उनके साथियों ने लखनऊ में प्रदर्शन किया। नारे लगे, सी वी गुप्ता चोर है, गली-गली में शोर है। यूपी में हैं तीन चोर, मुंशी गुप्ता जुगल किशोर। शाम हुई, लगभग दस हजार प्रदर्शनकारी लखनऊ में थे और किसी के खाने का इंतजाम नहीं था। चंद्रशेखर अपने कुछ साथियों के साथ गुप्ता जी से मिलने गए। गुप्ता जी ने कहा, आओ भूखे-नंगे लोगों, इनको ले तो आए, अब क्या लखनऊ में भूखा रखोगे। चंद्रशेखर जी ने कहा कि आपका राज्य है, जैसा चाहें कीजिए। गुप्ता जी खीज गए, लेकिन कहा कि मैंने कह दिया है पूड़ी-सब्जी पहुंचती होगी। मैंने पहले ही समझ लिया था कि बुला तो लोगे, लेकिन खाने का इंतजाम नहीं कर पाओगे।
दूसरी ओर हमने पिछले दिनों देखा, बाबा रामदेव को उनके समर्थकों सहित एक स्टेडियम में रखा गया, वहां पीने के लिए पानी तक नहीं था।
तो पहले ऐसा क्या था? इसे समझने के लिए कुछ तथ्य गौर करने लायक हैं। यह मेरे लिए सुखद अनुभव है कि मुझे भारतीय राजनीति और भारतीय नेताओं के इतने उज्जवल चरित्र को पढऩे का मौका मिला।
हाल ही में एक वाकया सामने आया था जिसमें बताया गया था राजीव गांधी ने अटल बिहार वाजपेयी को उनकी बीमारी का पता लगते ही संयुक्त राष्ट्र जा रहे एक प्रतिनिधि मंडल में शामिल किया था। अटल जी ने राजीव की इस सदासयता का सदा सम्मान किया है। लेकिन परस्पर विश्वास और सम्मान की बहुत बड़ी मिशाल मुझे जानने को मिली है, जिसकी आज के किसी भी नेता से अपेक्षा नहीं की जा सकती। इतिहास का यह पन्ना राजनीतिक शिष्टता और स्वच्छ राजनीति का अनुपम उदाहरण है। यह वक्त कौन सा है, मुझे नहीं पता, इस वक्त को देखने वाले कौन हैं जिन्होंने यह इस दृष्टांत को लोगों तक पहुंचाया, लेकिन है बेहद अनुकरणीय।
आचार्य नरेंद्र देव कांग्रेस छोड़ चुके थे और उन्होंने प्रजा समाजवादी पार्टी बनाई थी। पंडित संपूर्णानंद कांग्रेस में थे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। जब सवाल आया प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का। सभी को अंदाजा था कि आचार्य जी इसे स्वयं लिखेंगे। आचार्य जी की तबियत थोड़ी खराब थी। कुछ दिनों बाद आचार्य जी से उनके साथियों ने पूछा कि घोषणा पत्र लिखने का काम कहां तक पहुंचा तो आचार्य जी ने कहा कि उन्होंने संपूर्णानंद से कहा है और वह घोषणा पत्र लिख रहे हैं। आचार्य जी के साथी थोड़े चिंतित हुए, पर किसी ने आचार्य जी के फैसले पर उंगली नहीं उठाई। तीन महीनों के बाद हाथ से लिखा कागजों का बंडल आचार्य जी के पास आया, जिसे पं. संपूर्णानंद ने भेजा था। आचार्य जी ने उसे देखा भी नहीं और सीधे प्रेस में छपने भिजवा दिया। आचार्य जी के साथी चिंतित होकर उनके पास गए और कहा कि कम से कम एक बार देख तो लीजिए कि लिखा क्या है? आचार्य जी ने मुस्कराते हुए कहा कि संपूर्णानंद ने लिखा है, सब सही होगा और वही लिखा होगा, जो मैं लिखता। फिर ध्यान दिला दूं कि आचार्य नरेंद्र देव जी ने प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का काम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद जी को सौंपा, जिसे उन्होंने स्वीकार किया और जो उन्होंने लिखा उसे बिना देखे, बिना कामा-फुलस्टाप बदले आचार्य जी ने छपने भेज दिया, जबकि दोनों राजनीतिक तौर पर परस्पर विरोधी दलों में थे।
अगर आज सोनिया गांधी और नितिन गडकरी का उनका कोई साथी या दोस्त किसी दूसरी पार्टी में हो और ऐसा ही आग्रह करे तो नितिन गडकरी और सोनिया गांधी क्या करेंगे? एक और बाकया है। चंद्रभानु गुप्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उनके खिलाफ चंद्रशेखर और उनके साथियों ने लखनऊ में प्रदर्शन किया। नारे लगे, सी वी गुप्ता चोर है, गली-गली में शोर है। यूपी में हैं तीन चोर, मुंशी गुप्ता जुगल किशोर। शाम हुई, लगभग दस हजार प्रदर्शनकारी लखनऊ में थे और किसी के खाने का इंतजाम नहीं था। चंद्रशेखर अपने कुछ साथियों के साथ गुप्ता जी से मिलने गए। गुप्ता जी ने कहा, आओ भूखे-नंगे लोगों, इनको ले तो आए, अब क्या लखनऊ में भूखा रखोगे। चंद्रशेखर जी ने कहा कि आपका राज्य है, जैसा चाहें कीजिए। गुप्ता जी खीज गए, लेकिन कहा कि मैंने कह दिया है पूड़ी-सब्जी पहुंचती होगी। मैंने पहले ही समझ लिया था कि बुला तो लोगे, लेकिन खाने का इंतजाम नहीं कर पाओगे।
दूसरी ओर हमने पिछले दिनों देखा, बाबा रामदेव को उनके समर्थकों सहित एक स्टेडियम में रखा गया, वहां पीने के लिए पानी तक नहीं था।
Thursday, April 12, 2012
Wednesday, November 30, 2011
क्या बेशर्मी है
क्या बेशर्मी है, पहले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी एफडीआई को जटिल बता रहे थे और आज सबसे के लिए फायदेमंद बता रहे हैं। पहले भाजपा एफडीआई के पक्ष में थी आज विरोध में देश सिर पर उठा रखा है। धन्य हो हिन्दुस्तान के सियासतखोरो धन्य हो...और जनता के लिए कुछ कहना बेमानी है...लोकतंत्र है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है...और हमारा अधिकांश सच दूसरे लोग तय करते हैं...जैसे फिलहाल कालेधन पर बाबा रामदेव औा आडवाणीजी तय कर रहे हैं...भ्रष्टाचार का सच अन्ना हजारे और उनकी टीम तय कर रही है...रिटेल में विदेशी निवेश सरकार और विपक्ष तय कर रही है...इसमें हमारा रोल केवल जिंदाबाद और मुर्दाबाद तक ही सीमति है, और नारे लगवाने वाला बड़े गर्व से कहता है, यह देश की आवाज है। कोई नहीं पूछना चाहता कि आखिर सच क्या है, कोई बताना भी नहीं चाहता कि आखिर सच क्या है क्योंकि सबके हित खादी से जुड़े हैं, और जिनके हित खादी से नहीं जुड़े हैं, जिन्हें नेता बनने का शौक नहीं है, जनता उन्हें बेवकूफ समझती है।
Wednesday, August 17, 2011
अन्ना और देश षड्यंत्र का शिकार तो नहीं
अन्ना १६ अगस्त से अनशन शुरु करने की धमकी दे रहे हैं । मात्र दो दिन बाद । अन्ना को स्वंय नही पता कि लोकपाल बिल क्या है । अन्ना मात्र एक चेहरा हैं , दो अति महत्वकांक्षी व्यक्तियों की देन है यह जनलोकपाल नाक का ड्रामा।एक है अरविंद केजरीवाल , दुसरा मनीष सिसोदिया । अरविंद केजरीवाल आईआरएस में था एलायड सर्विस है यह । मनीष सिसोदिया पत्रकार है , इसकी एक संस्था है कबीर । इनलोगों की संस्थायें सामाजिक काम के लिये नही बनी है बल्कि सरकार के अनुदान और विदेशों से मिले दान को भी हासिल करने की नियत से बनाई गई है । मनीष की एक संस्था है कबीर जो संस्था निबंधित है । समाजसेवा के लिये संस्था का निबंधित होना जरुरी नही है ।
निबंधन की जरुरत तभी पडती है , जब सरकार से अनुदान या दान लेना हो । कबीर आयकर से भी निबंधित है यानी अगर कोई व्यक्ति कबीर को दान देता है तो दान दाता को उस राशी पर आयकर नही देना पडेगा । मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर को विदेशो से भी अच्छा –खासा दान मिलता है । संस्थाओं का खेल बहुत पेचीदा है ।संस्था के माध्यम से आयकर की चोरी सबसे आसान है । अगर किसी व्यक्ति को आयकर बचाना है तो वह संस्था को एक करोड रुपया अपनी आय मे से देगा , उस एक करोड पर दान देने वाले को आयकर नही देना पडेगा । जिस संस्था को दान दिया है , वह संस्था आयकर की जो बचत हुई है , उसमें से आधी रकम ले लेगी , बाकी पैसा को विभिन्न माध्यम से खर्च दिखला दिया जायेगा और उसे दान दाता को वापस कर दिया जायेगा ।
विदेश से भी विभिन्न कार्यो के लिये धन प्राप्त होता है मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर को दो लाख डालर का दान फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन नाम की अमेरिकी संस्था ने दिया है । अमेरिका की एक कुख्यात संस्था है सीआईए । सभी को पता है सीआईए अमेरिकी हितों की रक्षा के लिये विदेशो में काम करती है । इसके काम का तरीका सबसे अलग होता है । मुख्य रुप से सीआईए किसी भी देश की सरकार को अमेरिका का पक्षधर बनाये रखने का कार्य करती है । यह संस्था मंत्रियों से लेकर सांसद , सामाजसेवी, अधिकारी और विपक्षी दलों को अप्रत्यक्ष तरीके से मदद पहुचाती है ताकी वक्त पर अमेरिकी हितो की रक्षा हो सके ।
मदद का तरीका भी अलग – अलग होता है विभिन्न दलों के राज्यों के मुख्यमंत्रियों को समारोहों में निमंत्रित करना , विपक्षी दलों के कद्दावर नेता तथा सांसदो को किसी न किसी बहाने से विदेश भ्रमण कराना । सामाजिक कार्यकर्ताओं की संस्था को अमेरिकी संस्थाओं द्वारा दान दिलवाना । सीआईए नेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता तथा अधिकारी तक की कमजोर नस को पकडती है अगर किसी की कमजोर नस लडकी है तो उसकी भी व्यवस्था की जाती है। बच्चों के लिये स्कालरशिप से लेकर नौकरी तक की भी व्यवस्था यह सीआईए करती है . फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन का कार्य हमेशा संदिग्ध रहा है ।
उसी फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन से मदद मिलती है मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर को और अन्ना के आंदोलन के संचालन का सारा खर्च मनीष सिसोदिया तथा अरविंद केजरीवाल वहन कर रहे हैं। वस्तुत: इन दोनो अति महत्वकांक्षियों ने हीं, जनलोकपाल नाम के एक कानून की स्थापना के लिये आंदोलन की रुपरेखा तय की । इन दोनो को पता था कि अगर सिर्फ़ ये दोनो इस आंदोलन की शुरुआत करेंगे तो यह टायं-टायं फ़िस्स हो जायेगा । हो सकता था कि रामदेव की तर्ज पर इनकी संस्थाओं की जांच भी होने लगे , वैसी स्थिति में इनका क्या हश्र होगा इनको पता था।
इन्हें कुछ नामी –गिरामी चेहरों की तलाश थी । शुरुआत में किरन बेदी, शांतिभुषण , रामदेव और रविशंकर को जोडने का प्रयास इन दोनो ने किया । बात नही जमी। किरन बेदी खुद आरोपो से घिरी थीं। भुषण बाप-बेटे पर इलाहाबाद के एक परिवार को ७० साल तक मुकदमे में फ़साकर अपनी संपति इन्हें बेचने के लिये बाध्य करने का आरोप लगा था। भुषण पिता-पुत्र की कहानी भी किसी जमीन कब्जा करने वाले गुंडे से कम रोचक नही है । अपने नामी वकील होने का सबसे गलत फ़ायदा दोनो पिता – पुत्र ने उठाया है । लेकिन उसकी चर्चा बाद में करेंगे।
एक मोहरे की खोज जारी रही । अन्ना के रुप में इन्हें संभावना नजर आई । महाराष्ट्र में अपने गांव में कुछ सामाजिक काम अन्ना ने किये थें। वह भी एक संस्था चलाते थें। अन्ना के भूत के बारे में बहुत कम लोगों को पता था । राष्ट्रीय स्तर पर भी अन्ना को बहुत कम लोग जानते थें। लेकिन वर्तमान तकनीक के इस दौर यह कोई समस्या नहि थी । अन्ना सबसे उम्दा बकरा थें इनदोनों के लिये । नाम के भुखे थें। शिक्षा मात्र सातवीं पास हिंदी – अंग्रेजी का ग्यान नही था। गांधी टोपी पहनते थें संप्रदायिक कहलाने का भी भय नही था। बहुत आराम से गांधीवादी कहकर अन्ना ब्रांड को लांच किया जा सकता था।
आज भी अन्ना की पिछली जिंदगी को छुपाया जाता है । अभीतक जो सूचना अन्ना के बारे में उपलब्ध है , उसके अनुसार अन्ना का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के भिंगर नामक गांव में हुआ था । इनके पिता का नाम बाबूराव हजारे तथा माता का नाम लक्षमी बाई था। पांच एकड जमीन के मालिक अन्ना के पिता एक मजदूर या कर्षक थें। परिवारिक कारणो से १९५२ में इनका परिवार रालेगांव सिद्धि नामक जगह पर जा बसा ।
अन्ना का बचपन इनकी एक संतानहीन चाची जो बंबई में रहती थी वहां बीता । अन्ना ने सातवीं तक शिक्षा ग्रहण की । इसके बाद के कुछ सालों को अन्ना के जिंदगी की कहानी से हटा दिया गया है और इन्हें सेना की नौकरी में दिखलाने का प्रयास सभी जगह किया गया है । अन्ना जब बंबई में थें तो ये फ़ूल बेचने का धंधा बचपन में करते थें । कुछ पैसे आ जाने के बाद अन्ना ने फ़ूलों की दुकान खोल ली ।
अन्ना का एक अपना ग्रुप था आवारा लडकों का जो खुद को अपने क्षेत्र का दादा समझते थें। अन्ना का ग्रुप मारपीट करने में आगे रहता था । अन्ना की इन्हीं हरकतों के कारण परिवार का दबाव उनके उपर पडा और उन्हें सेना की नौकरी में जाना पडा । अन्ना खुद भी अपनी जिंदगी के बहुत सारे पहलू को उजागर नही करना चाहते हैं।
वर्तमान में मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल के इशारे पर अन्ना काम कर रहे हैं । अमेरिकी संस्था अप्रत्यक्ष रुप से अन्ना के आंदोलन को आर्थिक मदद दे रहा है । फ़ोर्ड फ़ाऊंडेशन ने मदद का नाम दिया है पारदर्शी , जिम्मेवार और प्रभावशाली सरकार के लिये प्रयास करना यानी सरकार के खिलाफ़ विद्रोफ़ करना। अन्ना के आंदोलन देश के वैसे बिजनेसमैन जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं आर्थिक मदद पहुंचा रहे है । अराजकता फ़ैलाना उनका उद्देश्य है ताकि उनके खिलाफ़ जो जांच चल रही है वह बाधित हो जाय । अन्ना की टीम को अरुंधती राय तथा स्वामी अग्नीवेश जैसे लोग मदद कर रहे हैं।
अग्नीवेश नक्सल आंदोलन के समर्थक है । वस्त्र गेरुआ पहनते हैं। नक्सल आंदोलन का उद्देश्य सही हो सकता है लेकिन उद्देश्य प्राप्ति का रास्ता हिंसा है जो गलत है । भारत मिश्र या अफ़गानिस्तान नही बन सकता और न हीं किसी को इजाजत दी जा सकती है इसे वैसा बनाने की । अरुंधती और अग्नीवेश दोनो कश्मीर के अलगावादियों के समर्थक है । वैसे सारे लोग जोआज अन्ना का समर्थन कर रहे हैं देश के दुसरे विभाजन की पर्ष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।यहां हम फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन की सूची दे रहे हैं और मनीष सिसोदिया की संस्था कबीर के विषय में भी दे रहे हैं
Kabir is a society registered under Societies Registration Act. It was registered on January 7, 1999 with number S34169. It is also registered under section 10A and 80G of the Income Tax Act. We are also authorized under the Foreign Contribution Regulation Act to receive foreign funding for our organization.
।Manish Sisodia is a founding member of Kabir and is currently the Chief Functionary of Kabir. He is the chief executive responsible for general management of the organization, particularly its strategy and direction. He is also the public face of Kabir and is responsible for Kabir’s relationships with external groups and individuals. Prior to joining Kabir, Manish was a journalist and a Producer and News Reader with Zee News. Even during that time, Manish served as an active volunteer with Parivartan, the citizens’ initiative working on Right to Information in Delhi. He holds a BSc from Meerut University in Uttar Pradesh.
Kabir comprises of a team of young, dedicated social activists who have the zeal and passion and are working on spreading awareness about RTI and Swaraj. We envision a culture of transparency and accountability in government that allows for meaningful participation of citizens in their own governance. It is with this mission and vision that Kabir spun off of Parivartan (the activist group led by Arvind Kejriwal that was critical in raising public support for the passage of the RTI Act) and began operations on August 15th, 2005.
बिहार मीडिया से ज्यों का त्यों
यह पोस्ट बिहार मीडिया से उठाया गया है, अन्ना के विषय में इनके क्या ख्यालात हैं उनका छिदरायान्वेशन नहीं करना चाहिए बल्कि इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यदि इनकी जानकारी में एक प्रतिशत भी सत्यता है तो देश के खिलाफ यह बहुत बड़ा षड्यंत्र हो रहा है और इसका अगुवा अनजाने में एक ईमानदार व्यक्ति बन रहा है। इसलिए इसका विरोध होना चाहिए।
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