राजनीति जब-जब ठोकर खाती है उसका भुगतान पूरे राष्ट्र को करना पड़ता है, और मजबूत राजनीति केवल मजबूत लोकतंत्र के ही कंधों पर टिक सकती है और लोकतंत्र की मजबूती का अभिप्राय केवल अधिकारों की संपन्नता नहीं बल्कि अधिकार संपन्न होने के बाद बढ़े दायित्वों के सफल निर्वाहन में निहित है। जब-जब किसी राष्ट्र ने राजनीति और लोकव्यवस्था के इस सिद्धांत को नजरअंदाज किया है उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा है, कल्प और काल चाहे जो भी रहा हो। और जो हम कहें कि यह नेताओं का अपराध है तो हम आधा झूठ बोलते हैं, क्योंकि जब-जब धृतराष्ट्रों को सत्ता सौंपकर पितामह भीष्म अपनी आंखें बंद कर लेंगे तब-तब द्रोपदी का चीरहरण होता रहेगा।
भारतवर्ष के इतिहास में ऐसे अनेक अवसरों का वृत्तांत बतौर उदाहरण मौजूद हैं, बावजूद इसके आज अधिकारों की दुंदभी बजा रही भारतीय जनता और मीडिया उसी राह पर है जहां कर्तव्यों से अधिकारों की चिंता अधिक प्रतीत होती है। हमें समझना होगा कि जब लोकतंत्र मजबूत होगा तभी राजनीति भी मजबूत होगा, लेकिन नि:संदेह लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीति स्थिर होगी क्योंकि बिना राजनीति और राज्य व्यवस्था के तो किसी राष्ट्र की कल्पना की ही नहीं जा सकती। यदि अतिरेक के प्रवाह में हम लोकशाही को राज्यव्यवस्था मान लेंगे तो अनगिनत मत-मतांतरों में कोई व्यवस्था कैसे सृजित और संचालित होगी? यह सच है कि हमारे अतीत के अनुभव दुखद हैं और भविष्य की कोई राह नजर नहीं आती। नेतृत्वहीन, दिशाहीन, कर्तव्यबोध हीन राजनीतिक दल और उनके नेताओं ने विकल्पों का शून्य पैदा कर दिया है, जिसकी ओर देखो आरोपों की काली चादर में लिपटा खड़ा है। बावजूद इसके यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान के वृक्ष का अंकुर अतीत की भूमि में ही प्रस्फुटित होता है। इसलिए जनता और उसके अधिकारों का स्वंभू-झंडाबरदार मीडिया जो हर छोटी बड़ी उथल-पुथल को लेकर श्रेय के पीछे भागने लगता है, श्रेय की इस क्षणिक आंकाक्षा को त्यागकर इस पर विमर्श करे कि अतीत में ऐसी क्या गलती हुई जिसका परिणाम वर्तमान भोग रहा है। क्या हमारी गलती से ही तो ऐसे लोग सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच गए, जो जनता को अपनी उच्चाकांक्षाओं, वासनाओं और व्यसनों पर बलि चढ़ाने के लिए प्रतिपल तैयार प्रतीत होते हैं? क्या हमने ही तो उस वक्त अपने कर्तव्यों से आंखें नहीं मूंद लीं थीं जब यह दूषित राजनीति की अमरबेल बढ़कर गांधी, नेहरू, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री की धरोहर को नष्टनाबूत करने के लिए उस पर छाए जा रही थी? और अब जबकि यह गलती हमसे हो चुकी है तो इसका निदान क्या है? क्योंकि कोई समस्या अंतहीन तो होती ही नहीं है, लेकिन इस समस्या का अंतर किसी पर जूता फेंककर, किसी को गाली देकर, चंद लोगों के भ्रष्टाचार के मामले खोलकर तो संभव नहीं है। और यदि हम यह अपेक्षा करें कि कोई ऐसा उपाय भी हो सकता है कि राम राज्य आ आएगा तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि ईष्यालुओं की नस्ल विलुप्त हो जाएगी। ऐसा कोई उपाय नहीं है, लेकिन अंकुश का एक उपाय जो है, वो हमारे अपने पास है और वह है दायित्वबोध का उपाय, कि हमें क्या करना है। पांच साल में एक बार आने वाले मौके पर किसी चुनना है, अपने बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र समय रहते बनवाना है या आराम से, अपनी कमजोरी को पड़ोसी की योग्यता पर छल कपट से सिद्ध करना है या नहीं, अपने स्वार्थ के लिए किसी नेता की सिफारिश चाहिए है या पुरुषार्थ से अपने नियत लक्ष्य पर पहुंचना है।
हम क्यों न यह मांग करें कि लोकपाल के साथ ही हमें एक ऐसा कानून भी चाहिए, जो अपराधियों को चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों उन्हें चुनाव लडऩे से रोकता हो? हम क्यों न यह मांग करें कि दो बार से अधिक कोई भी नेता चुनाव नहीं लड़ सकेगा? हम क्यों न यह मांग करें कि राज्य सभा के जरिए पीछे की खिड़की से चाहे जिसे संसद में लाने वाली सरकार एक बार से अधिक ऐसा अवसर किसी को उपलब्ध नहीं कराएगी? और दागियों को तो एक बार भी नहीं? लेकिन अफसोस कि हम ऐसी मांगें नहीं करते, और ऐसी मांगें इसलिए नहीं होती क्योंकि जो मांग हम करते हैं वस्तुत: वह भी उधार की मांगें होती हैं हमारी अपनी नहीं। और यही हमारी वो कमजोर आदत है जिसका लाभ नेता उठाते हैं या नेता बनने के अभिलाषी व्यक्ति। सृजन और विध्वंश में खर्च होने वाले क्रमश: समय का जो अंतर है वह यहां भी लगेगा, लेकिन व्यवस्था सुधरेगी जरूर यदि हम ठान लेंगे तो, पर ऐसे नहीं जिस तरह आज ठाने हुए हैं। किसी के कहने पर किसी को हराकर और किसी को जिताकर तो यह समस्या अनंतकाल तक खत्म नहीं होगी। इसके लिए सबसे पहले तो हमें अपना ही उपचार करना होगा।
एक ओर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, तृणमूल, जदयू सहित तमाम दलों के नेता, यहां तक कि वामपंथी भी भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त प्रतीत हो रहे हैं तो दूसरी ओर ईमानदारी की अलख जगाकर राजनीतिक विकल्प तलाशने निकले अरविंद केजरीवाल के साथियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। प्रश्न-प्रतिप्रश्न और आरोप-प्रत्यारोपों की आंधी के बीच मीडिया तिनके की तरह उड़कर कभी इसके कॉलर पर चिपक रहा है तो कभी उसके कॉलर पर, समर्थकों का नया हंगामाई अंदाज देखने को मिल रहा है और सब भौचक हैं कि विकल्प के बीज में ही भ्रष्टाचार की फंगस दिख रही है तो भविष्य का वृक्ष कैसा होगा?
अब तक जो देखा जा रहा है हमारा ध्यान समस्या के वृक्ष पर है मूल पर नहीं, इसलिए हमारा जो आधा-अधूरा प्रहार होगा वह भी वृक्ष पर होगा मूल पर नहीं। जरूरत है दोहरे प्रहार की, उस वृक्ष को भी खंड-खंड किया जाए और जिसने पौधों को मिलने वाली धूप, हवा, पानी पर अतिक्रमण कर रखा है और उस जमीन पर भी जिसमें उस वृक्ष की जड़ें बेहद मजबूती से गड़ी हुई हैं।
किसी भी परिणाम का कारक कोई एक तो हो ही नहीं सकता, कई कारण मिलकर एक परिणाम को जन्म देते हैं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ ही लोकव्यवहार में जो बुनियादी खामियां हैं, इस अंतहीन दिख रही समस्या की मूल जड़ भी इसी में है, और उसका पालन-पोषण भी हमारे ही बीच होता है, इसलिए इसे चाहे जितना काटो-छांटो न तो यह छोटी होती है और न ही कभी खत्म। यानि इस पाप का मूल हमारे ही बीच में है जो राजनीतिक जमात को संजीवनी देता है ताकत देता है। तो हमें उन लोगों पर भी वैचारिक प्रहार करना होगा जो भ्रष्टाचार और अत्याचार के वृक्ष को खाद पानी दे रहे हैं। लेकिन यह प्रहार अभद्रता, अशिष्टता और हिंसा का नहीं होगा। यह प्रहार है वैचारिक, बौद्धिक, जागरुकता का। अन्ना हजारे शायद यही करने जा रहे हैं। जंतर-मंतर से उन्होंने वृक्ष पर प्रहार किया, अब छोटे-छोटे गांवों, कस्बों और तहसीलों में जाने का विचार है। यदि वे सफल रहे तो जढ़ जनता को हिलाया जा सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे बीच हैं और इनको लोभ, मोह, भय, जाति और समाज का खाद पानी मिलता है। यहीं पर चोट की जरूरत है कि जागो अधिकारों की मांग करने वालो, अपने दायित्वों के प्रति भी सजग हो। वोट देना अधिकार है, बोलना अधिकार है, अच्छा खाना, रहना और पहनना अधिकार है, लेकिन जाति, वर्ण और किसी लालच में गलत आदमी का चुनाव अपराध है, किसी को अपशब्द कहकर उसकी मानहानि अपराध है, अपने धनबल और छलकपट से किसी की रोजी रोटी छीनना अपराध है। इनसे बचना है कि यही मानव सभ्यता है और ऐसे ही लोग ईमानदार और पारदर्शी व्यवस्था के अधिकारी भी हैं। जो समाज ऐसा नहीं सोचता, केवल गाल बजाता है वह इसी व्यवस्था का अधिकारी है जैसी में जी रहा है, जंगल राज में।
भारतवर्ष के इतिहास में ऐसे अनेक अवसरों का वृत्तांत बतौर उदाहरण मौजूद हैं, बावजूद इसके आज अधिकारों की दुंदभी बजा रही भारतीय जनता और मीडिया उसी राह पर है जहां कर्तव्यों से अधिकारों की चिंता अधिक प्रतीत होती है। हमें समझना होगा कि जब लोकतंत्र मजबूत होगा तभी राजनीति भी मजबूत होगा, लेकिन नि:संदेह लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीति स्थिर होगी क्योंकि बिना राजनीति और राज्य व्यवस्था के तो किसी राष्ट्र की कल्पना की ही नहीं जा सकती। यदि अतिरेक के प्रवाह में हम लोकशाही को राज्यव्यवस्था मान लेंगे तो अनगिनत मत-मतांतरों में कोई व्यवस्था कैसे सृजित और संचालित होगी? यह सच है कि हमारे अतीत के अनुभव दुखद हैं और भविष्य की कोई राह नजर नहीं आती। नेतृत्वहीन, दिशाहीन, कर्तव्यबोध हीन राजनीतिक दल और उनके नेताओं ने विकल्पों का शून्य पैदा कर दिया है, जिसकी ओर देखो आरोपों की काली चादर में लिपटा खड़ा है। बावजूद इसके यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान के वृक्ष का अंकुर अतीत की भूमि में ही प्रस्फुटित होता है। इसलिए जनता और उसके अधिकारों का स्वंभू-झंडाबरदार मीडिया जो हर छोटी बड़ी उथल-पुथल को लेकर श्रेय के पीछे भागने लगता है, श्रेय की इस क्षणिक आंकाक्षा को त्यागकर इस पर विमर्श करे कि अतीत में ऐसी क्या गलती हुई जिसका परिणाम वर्तमान भोग रहा है। क्या हमारी गलती से ही तो ऐसे लोग सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच गए, जो जनता को अपनी उच्चाकांक्षाओं, वासनाओं और व्यसनों पर बलि चढ़ाने के लिए प्रतिपल तैयार प्रतीत होते हैं? क्या हमने ही तो उस वक्त अपने कर्तव्यों से आंखें नहीं मूंद लीं थीं जब यह दूषित राजनीति की अमरबेल बढ़कर गांधी, नेहरू, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री की धरोहर को नष्टनाबूत करने के लिए उस पर छाए जा रही थी? और अब जबकि यह गलती हमसे हो चुकी है तो इसका निदान क्या है? क्योंकि कोई समस्या अंतहीन तो होती ही नहीं है, लेकिन इस समस्या का अंतर किसी पर जूता फेंककर, किसी को गाली देकर, चंद लोगों के भ्रष्टाचार के मामले खोलकर तो संभव नहीं है। और यदि हम यह अपेक्षा करें कि कोई ऐसा उपाय भी हो सकता है कि राम राज्य आ आएगा तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि ईष्यालुओं की नस्ल विलुप्त हो जाएगी। ऐसा कोई उपाय नहीं है, लेकिन अंकुश का एक उपाय जो है, वो हमारे अपने पास है और वह है दायित्वबोध का उपाय, कि हमें क्या करना है। पांच साल में एक बार आने वाले मौके पर किसी चुनना है, अपने बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र समय रहते बनवाना है या आराम से, अपनी कमजोरी को पड़ोसी की योग्यता पर छल कपट से सिद्ध करना है या नहीं, अपने स्वार्थ के लिए किसी नेता की सिफारिश चाहिए है या पुरुषार्थ से अपने नियत लक्ष्य पर पहुंचना है।
हम क्यों न यह मांग करें कि लोकपाल के साथ ही हमें एक ऐसा कानून भी चाहिए, जो अपराधियों को चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों उन्हें चुनाव लडऩे से रोकता हो? हम क्यों न यह मांग करें कि दो बार से अधिक कोई भी नेता चुनाव नहीं लड़ सकेगा? हम क्यों न यह मांग करें कि राज्य सभा के जरिए पीछे की खिड़की से चाहे जिसे संसद में लाने वाली सरकार एक बार से अधिक ऐसा अवसर किसी को उपलब्ध नहीं कराएगी? और दागियों को तो एक बार भी नहीं? लेकिन अफसोस कि हम ऐसी मांगें नहीं करते, और ऐसी मांगें इसलिए नहीं होती क्योंकि जो मांग हम करते हैं वस्तुत: वह भी उधार की मांगें होती हैं हमारी अपनी नहीं। और यही हमारी वो कमजोर आदत है जिसका लाभ नेता उठाते हैं या नेता बनने के अभिलाषी व्यक्ति। सृजन और विध्वंश में खर्च होने वाले क्रमश: समय का जो अंतर है वह यहां भी लगेगा, लेकिन व्यवस्था सुधरेगी जरूर यदि हम ठान लेंगे तो, पर ऐसे नहीं जिस तरह आज ठाने हुए हैं। किसी के कहने पर किसी को हराकर और किसी को जिताकर तो यह समस्या अनंतकाल तक खत्म नहीं होगी। इसके लिए सबसे पहले तो हमें अपना ही उपचार करना होगा।
एक ओर कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, तृणमूल, जदयू सहित तमाम दलों के नेता, यहां तक कि वामपंथी भी भ्रष्टाचार के आरोपों में लिप्त प्रतीत हो रहे हैं तो दूसरी ओर ईमानदारी की अलख जगाकर राजनीतिक विकल्प तलाशने निकले अरविंद केजरीवाल के साथियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं। प्रश्न-प्रतिप्रश्न और आरोप-प्रत्यारोपों की आंधी के बीच मीडिया तिनके की तरह उड़कर कभी इसके कॉलर पर चिपक रहा है तो कभी उसके कॉलर पर, समर्थकों का नया हंगामाई अंदाज देखने को मिल रहा है और सब भौचक हैं कि विकल्प के बीज में ही भ्रष्टाचार की फंगस दिख रही है तो भविष्य का वृक्ष कैसा होगा?
अब तक जो देखा जा रहा है हमारा ध्यान समस्या के वृक्ष पर है मूल पर नहीं, इसलिए हमारा जो आधा-अधूरा प्रहार होगा वह भी वृक्ष पर होगा मूल पर नहीं। जरूरत है दोहरे प्रहार की, उस वृक्ष को भी खंड-खंड किया जाए और जिसने पौधों को मिलने वाली धूप, हवा, पानी पर अतिक्रमण कर रखा है और उस जमीन पर भी जिसमें उस वृक्ष की जड़ें बेहद मजबूती से गड़ी हुई हैं।
किसी भी परिणाम का कारक कोई एक तो हो ही नहीं सकता, कई कारण मिलकर एक परिणाम को जन्म देते हैं। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ ही लोकव्यवहार में जो बुनियादी खामियां हैं, इस अंतहीन दिख रही समस्या की मूल जड़ भी इसी में है, और उसका पालन-पोषण भी हमारे ही बीच होता है, इसलिए इसे चाहे जितना काटो-छांटो न तो यह छोटी होती है और न ही कभी खत्म। यानि इस पाप का मूल हमारे ही बीच में है जो राजनीतिक जमात को संजीवनी देता है ताकत देता है। तो हमें उन लोगों पर भी वैचारिक प्रहार करना होगा जो भ्रष्टाचार और अत्याचार के वृक्ष को खाद पानी दे रहे हैं। लेकिन यह प्रहार अभद्रता, अशिष्टता और हिंसा का नहीं होगा। यह प्रहार है वैचारिक, बौद्धिक, जागरुकता का। अन्ना हजारे शायद यही करने जा रहे हैं। जंतर-मंतर से उन्होंने वृक्ष पर प्रहार किया, अब छोटे-छोटे गांवों, कस्बों और तहसीलों में जाने का विचार है। यदि वे सफल रहे तो जढ़ जनता को हिलाया जा सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे बीच हैं और इनको लोभ, मोह, भय, जाति और समाज का खाद पानी मिलता है। यहीं पर चोट की जरूरत है कि जागो अधिकारों की मांग करने वालो, अपने दायित्वों के प्रति भी सजग हो। वोट देना अधिकार है, बोलना अधिकार है, अच्छा खाना, रहना और पहनना अधिकार है, लेकिन जाति, वर्ण और किसी लालच में गलत आदमी का चुनाव अपराध है, किसी को अपशब्द कहकर उसकी मानहानि अपराध है, अपने धनबल और छलकपट से किसी की रोजी रोटी छीनना अपराध है। इनसे बचना है कि यही मानव सभ्यता है और ऐसे ही लोग ईमानदार और पारदर्शी व्यवस्था के अधिकारी भी हैं। जो समाज ऐसा नहीं सोचता, केवल गाल बजाता है वह इसी व्यवस्था का अधिकारी है जैसी में जी रहा है, जंगल राज में।
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