Saturday, September 4, 2010

सोनिया, गडकरी और बालासाहेब ठाकरे

शर्म करो और हो सके तो चुल्लू भर पानी में डूब मरो, इससे बेहतर कोई सलाह उनके लिए मेरे पास नहीं है, जो भरपूर मौका मिलने के बाद खुद तो कुछ नहीं कर सके और सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर अनावश्यक विवाद और अपने निचले दर्ज का नेता होने का प्रमाण पेश कर रहे हैं।
1998 में सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा गया। इस समय कांग्रेस में भरपूर बिखराव था, कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं था। भाजपा के लिए मौका था कि वह विपक्षी दल की इस स्थिति का लाभ उठाती, लेकिन जनता के समर्थन और केंद्र में सरकार होने के बावजूद भाजपा लाभ नहीं उठा सकी। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सर्वमान्य व्यक्ति के नेतृत्व में भी पार्टी कोई ऐसा उदाहरण देश के सामने नहीं रख सकी, जिसे भाजपा के हक में याद किया जाए। पोखरण का विस्फोट सिर्फ बटन दवा कर अपने नाम करना चाहते थे इसलिए जनता ने नकार दिया। सहयोगियों के सामने हमेशा घुटने टेकते रहे, आपसी खींचतान चरम पर रही, प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री के बीच मतभेद नजर आए। और सबसे शर्मनाक स्थिति यह थी कि भाजपा की मातृ संस्था यानि आरएसएस और इनके वरिष्ठ नेता ही सरकार के पक्ष में नहीं थे।भाजपा ने अपनी छवि को सुदृढ़ करने के बाजाए चुनावों में सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा जमकर उछला। भाजपा को सोते-जागते विदेशी मूल के अलावा और कुछ सूझा ही नहीं। सुषमा स्वराज और उमा भारती तो सिर मुंडाने के लिए तैयार हो गई थीं। विरोध की यह बेतुकी परिपाटी भाजपा की ही देन है, और दुर्भाग्य की आज तक बदस्तूर जारी है। अब जबकि सोनिया गांधी को उनकी पार्टी ने लगातार चौथी बार अध्यक्ष चुन लिया तो भाजपा कहती है कि वे प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद भी छोड़कर दिखाएं।इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा ने सोनिया गांधी से हार मान ली है, भाजपा ने मान लिया है कि जबतक सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं कांग्रेस का बाल बांका नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा नहीं तो यह कोई तुक की बात नहीं है कि आप प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद छोड़ दें।
अब ठाकरे साहब को देखिए। इस मर्द की मर्दानगी कभी महाराष्ट्र से बाहर नहीं निकल सकी। ऐसा नहीं है कि मौका नहीं मिला। देश के करीब-करीब हर हिस्से में शिवसेना की इकाईयां हैं, लेकिन उनकी औकात वहां नहीं है, क्योंकि ठाकरे का पौरुष सिर्फ महाराष्ट्र में रोजी-रोटी कमा रहे उत्तर भारतीयों और सामना की संपादकीय में ही दिखाई देता है। बाहर निकलने का दम इनमें नहीं है, इसलिए इनके मुंह से भी यह बातें शोभा नहीं देतीं।
लगे हाथ कुछ और सूरमाओं की बात कर लें। शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा। इन तीनों को सोनिया के विदेशी मूल का होने से ऐतराज था। पार्टी छोड़ी और आज सोनिया की कृपा ही जिंदा हैं। शरद पवार का समय पूरा हो रहा है, इसलिए सोनिया की कृपा से अपनी बेटी को राजनीति में दाखिल करवा लिया और संगमा को कोई पूछ नहीं रहा, उनकी भी बेटी आज सोनिया की कृपा पर देश की सबसे छोटी सांसद बनकर खुश है।
इन सबका मतलब सोनिया का प्रशस्तिगान नहीं है। सोनिया को देश पहली ही पारी में नकार चुका था और लगातार तीन बार भाजपा को मौका दिया। लेकिन भाजपा इतनी नाकारा निकली की नकार चुकी सोनिया को देश ने पुन: अंगीकार किया। सत्ता जनता की भावनाओं की कद्र करने और विपक्ष उसकी अधिकारों की आवाज उठाने के लिए होता है। भाजपा दोनों ही मोर्चों पर फेल रही। राम मंदिर जैसे जनजन से जुड़े भावनात्मक मुद्दे पर भाजपा गठबंधन के सहयोगियों के सामने जिस मजबूती से खड़ी नहीं हो सकी, जबकि कांग्रेस ने अमेरिका के साथ परमाणु करार जैस विषय पर सरकार को दांव पर लगाकर वामपंथियों को दरकिनार कर दिया। सोनिया गांधी का इसके पीछे सरकार को भरपूर समर्थन रहा। जबकि मंदिर निर्माण जैसे पवित्र आंदोलन के पीछे भाजपा अध्यक्ष हमेशा पूर्णजनादेश की बातें करके जनता को बरगलाते रहे।
तब से अब तक इस तरह की बहुत सी बातें हैं कहने के लिए, लेकिन लब्बोलुआब यही है कि सोनिया गांधी को यहां तक पहुंचने में सोनिया गांधी की कोई योग्यता या कोई उपलब्धी नहीं है, असल बात यह है कि जनता ने जिन्हें विकल्प के रूप में चुना था वे खोखले साबित हुए और देश को सोनिया के नेतृत्व में सरकार को चुनना पड़ा। रही बात कांग्रेस की कांग्रेस में यदि कोई कद्दावर होता तो राजीव गांधी के स्वर्गवास के बाद कांग्रेस की जो दुर्गती हुई थी वह न होती। वे पहले से ही कांग्रेस को गांधी परिवार की बापौती माने बैठे हैं, इसलिए उनकी वीरता पर चर्चा करना बेकार है।

3 comments:

  1. विवेकानंद जी बहुत खरी और सटीक बात कही है आपने।

    यहां आपके विचार भी आमंत्रित हैं-
    क्या आतंकवाद का कोई धर्म होता है-
    http://sudhirraghav.blogspot.com/

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  2. विवेकानंद जी, मेरे ब्लाग पर आप आए, अच्छा लगा, चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए शुक्रिया औरआपकी टिप्पणी के संदर्भ में यह कहना चाहूंगा-
    आतंकवाद बंदूक की गोली नहीं फैलाती, वह दिमाग फैलाता है, जिसके हाथ में ट्रिगर होता है, और वह कोई कट्टरपंथी भी हो सकता है, जिसके मन में दूसरे धर्म के लिए कटुता भरी हो। चाहे पंजाब का आतंकवाद हो या जेहाद या भगवा आतंकवाद, धर्म के ठेकेदार यही कहते रहे हैं, उनका धर्म जिम्मेदार नहीं है। जबकि हकीकत यह होती है कि धर्मस्थलों के चढ़ावा के पैसे से हथियार खरीदे जाते रहे और धर्मस्थल आतंकवादियों की शरणस्थल बन रहे। इसलिए इन ठेकेदारों द्वारा रचे जा रहे भ्रम में नहीं फंसना चाहिए और धर्म के नाम पर दुनिया में फैलते आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होना चाहिए।

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