Thursday, June 30, 2011

बड़े चालू निकले मनमोहन



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संपादकों के साथ बातचीत में जो कहा वह निश्चित तौर पर उनके शब्द नहीं थे, और यदि हैं तो कहना पड़ेगा मनमोहन बड़े चालू निकले। अपनी आई किस तरह दूसरों पर डाली जाती है इसका नायाब नमूना है मनमोहन की संपादकों से बातचीत। लोकपाल बिल के दायरे में प्रधानमंत्री पद को लाने की सिविल सोसायटी की मांग को मनमोहन ने बड़ी मासूमियत से सहयोगी और विपक्षी राजनीतिक दलों पर डाल दिया। और अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के मुद्दों का समर्थन करके उनके आक्रमण की धार कमजोर कर दी। अन्ना दर-दर पर समर्थन मांगते फिर रहे हैं।



मनमोहन सिंह ने कहा मैं स्वयं लोकपाल बिल के दायरे में आने को तैयार हूं लेकिन इसका अंतिम फैसला मंत्रिमंडल और विपक्षी दलों की राय के बाद होगा। पंजाब और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को लोकपाल दायरे में लाने का विरोध कर चुकी हैं। यह बड़ा ही सटीक निशाना है। मंत्रिमंडल में केवल कांग्रेसी नहीं हैं समर्थक दलों के भी मंत्री हैं, पीएम को लोकपाल दायरे से बाहर रखने के इनके फैसले को कांग्रेस का फैसला नहीं माना जाएगा। दूसरी ओर जय ललिता और प्रकाश सिंह बादल पहले ही विरोध कर चुके हैं। लालू प्रसाद ने भी स्पष्ट कर दिया कि बाबा साहब अंबेडकर के संविधान से छेड़छाड़ नहीं करने देंगे। भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने बेशक पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन वे भी कमोबेश इस मामले में सिविल सोयायटी के खिलाफ ही रहेंगे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अन्ना के सुझावों पर आधारित लोकायुक्त तो गठन करना चाहते हैं पर लोकपाल पर वे कोई विचार पार्टी से बातचीत करके ही व्यक्त करेंगे। भाजपा को भी देखिए सर्वदलीय बैठक से एक दिन पहले उसने बैठक बुलाई है। खुलकर समर्थन या विरोध नहीं कर रहे हैं बैठक में बीच का रास्ता निकालेंगे कि कैसे अन्ना को खुश करके सरकार को घेरा जाए और लोकपाल से भी बचा जाए। यानि यह तय है कि लोकपाल पर सर्वदलीय समिति में एकराय नहीं बनेगी। बावजूद इसके यदि सरकार ने बिल पेश किया तो उसका हस्र महिला आरक्षण विधेयक की तरह होना तय है। यानि पीएम को लोकपाल से मुक्त रखने का फैसला कांग्रेस का नहीं पूरी सियासी जमात का है। अब अन्ना यदि किसी प्रकार का आंदोलन इसके बाद करते हैं तो यह कांग्रेस का नहीं बल्कि समूची राजनीतिक बिरादरी के खिलाफ होगा।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि देश को मजबूत लोकपाल की जरूरत है लेकिन यह रामबाण नहीं है। प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार निरोधक कानून के दायरे में है और संसद उन्हें पद से हटा सकती है। कोई भी समूह अपनी हर बात को अंतिम बताकर थोप नहीं सकता। यानि छिपे शब्दों में लोकपाल को गैर जरूरी करार दिया। साथ ही अन्ना हजारे को चेतावनी दे दी कि अपनी मांग को सरकार के ऊपर थोपने की कोशिश न करें। इसी बहाने बाबा रामदेव को भी भाजपा और आरएसएस से दूर रहने का इशारा भी कर दिया। दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर की गई पुलिस कार्रवाई को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। क्योंकि उनके पीछे सांप्रदायिक तत्व थे। लेकिन मैं उनके उठाए मुद्दों का समर्थन करता हूं। यानि प्रधानमंत्री या सरकार बाबा रामदेव की सभी बातें मानने को तैयार हैं या मान लेंगे बशर्ते वे भाजपा या आरएसएस से दूरी बनाए रखें। और वे ऐसा कर सकते हैं शायद यही इशारा उन्होंने यह कहते हुए दिया कि वे सोनिया गांधी से हर मुद्दे पर चर्चा करते हैं और उन्हें उनका भरपूर समर्थन मिलता है।



और सबसे बड़ा सच
इसके इतर भी एक सच है जो मनमोहन की छवि का है। मनमोहन सिंह देश के बुद्धिमान और ईमानदार लोगों में गिने जाते हैं, अपनी अर्थशास्त्रीय क्षमता का उन्होंने दुनिया में लोहा मनवाया है, दुनिया के बड़े मुल्क उनके सुझावों और दूरदर्शिता के कायल हैं...लेकिन जबसे यूपीए सरकार के मुखिया की कमान संभाली है उनके गंभीर व्यक्तित्व पर गहरे-गहरे दाग लग गए हैं। अपनी ईमानदार छवि को बचाए रखने के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने कांग्रेस नेताओं से अलग विचार रखे हैं, इससे पहले 2जी मामले की जांच के लिए गठित एपीसी और जेपीसी के सामने भी पेश होने को तैयार हो गए थे। यूपीए के प्रधानमंत्री के भीतर बैठा एक सीधा, सरल और सज्जन व्यक्ति छटपटा रहा है अपनी बेदाग छवि को बचाए रखने के लिए। उनकी चुप्पी और बोलने, दोनों में यह बेचैनी साफ झलकती है।

Wednesday, June 15, 2011

योगी का प्रपंच



परमार्थ के ध्येय को जब स्वार्थ के आवरण में ढंककर आगे बढ़ाया जाता है तो उसका परिणाम बाबा रामदेव के अनशन की तरह होता है। कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन यह सत्य है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ और भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा कराए गए काले धन को वापस लाने जैसा पवित्र उद्देश्य बाबा रामदेव की नायक बनने की उद्दाम महात्वाकांक्षा से प्रेरित था, जो उनके मन में, जंतर-मंतर पर अनशन के दौरान अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन को देखकर, मचली थी।बाबा के मन पर दूसरी चोट तब लगी जब सिविल सोसायटी में उन्हें शामिल नहीं किया गया, जबकि वे उस समय भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जनजागरण अभियान के तहत देशभ्रमण कर रहे थे।

बाबा इस ईष्र्या को छिपा नहीं सके और उन्होंने लोकपाल समिति में प्रशांत भूषण और शांति भूषण के शामिल होने पर आपत्ति उठाई थी। लेकिन योग गुरू की छवि के चलते उस वक्त लोगों ने योगी के मन में मचल रही कामना को सहज प्रतिक्रिया माना। और बाबा रामदेव के अनशन को भी उनकी इसी छवि के चलते लोगों ने वैसा ही समर्थन दिया जैसा अन्ना हजारे को दिया था। लेकिन संन्यासी का स्वार्थ उसे ले डूबा, शुरू से ही उन्होंने ऐसी गलतियां कीं जिनके चलते वे जनता से दूर, सरकार के निशाने पर और विपक्ष का मोहरा बनते चले गए।

रामदेव की सबसे पहली और बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने लोगों को आंदोलन से जुडऩे के लिए जिस तरह रामलीला मैदान में जुटाया उससे समाज में यह संदेश गया कि बाबा जनहित में अनशन नहीं बल्कि सरकार के सामने शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं। यह बात किसी और ने नहीं हरिद्वार के ही एक संत ने कही। बाबा की दूसरी भूल अनशन की भव्यता...अनशन साधारण तरीके से होता है लेकिन बाबा का अनशन स्थल सर्वसुविधा संपन्न किसी पांच सितारा होटल की तरह था। गरीब जनता की बात करने के लिए बाबा ने करोड़ों रुपए फूंक दिएतीसरी गलती प्रशासन से झूठ...इस गलती ने बाबा को पहले कदम पर ही सरकार के निशाने पर लाकर बैठा दिया। बाबा ने रामलीला मैदान में 400 लोगों के लिए योग शिविर की अनुमति ली और 50 हजार लोगों के साथ अनशन पर बैठ गए। जाहिर है यह लोग योग शिविर में भाग लेने आए थे न कि अनशन में। चौथी गलती समर्थकों से धोखा...बाबा ने सरकार के साथ समझौते का जो पत्र लिखा उसके विषय में अनशन में शामिल लोगों को नहीं बताया।

उधर सरकार से जो समझौता किया था वह भी पूरा नहीं किया। विपक्ष की ओर मिल रही शह और मीडिया कवरेज से फूले बाबा तब भी अनशन पर अड़े रहे जबकि सरकार ने उनकी सारी मांगें बाकायदा लिखित में सिरोधार्य कर लीं। इस मौके पर यदि रामदेव सत्याग्रह छोड़ देते तो न केवल जनता की नजर में नायक बन जाते बल्कि सरकार भी उनको सिर आंखों पर बैठए रहती। लेकिन स्वयं को महानायक के तौर पर स्थापित करने की लालच ने बाबा को सरकार की नजर में खलनायक और जनता की नजर में संदग्धि बना दिया। रही सही कसर बाबा के उन पूर्व भक्तों ने पूरी कर दी जो पहले कभी बाबा के चक्कर में ठगे गए थे।

बाबा के साथ इस वक्त केवल वे ही लोग हैं जो उनसे या तो उनसे जुड़े हुए हैं या फिर वे लोग हैं जो बाबा के कंधे पर बंदूक रखकर सरकार का शिकार करना चाहते हैं। कुछ संतों ने ऐसे लोगों की रणनीतियों को भांपकर बाबा का अनशन तुड़वा कर अपनी महानता का परिचय दिया, लेकिन ध्वंश की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले बाबा को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे। भाजपा जनहित और लोकतंत्र के नाम पर इस मुद्दे को पूरी तरह भुनाने का प्रयास करेगी, इसके लिए वह देशव्यापी आंदोलन का ऐलान कर चुकी है। हालांकि सरकार को बेशर्म-बेहया और बेईमान कहने वाली यह पार्टी स्वयं कितनी बेशर्म और बेहया है इसका खुलासा भी दूसरे दिन हो गया।बाबा रामदेव जब अस्पताल में भर्ती हुए तो भाजपा ने भारी हायतौबा मचाई और केंद्र सरकार के बाबा से कोई बातचीत न करने के फैसले को न जाने क्या-क्या संज्ञाएं दीं। इस दौरान भाजपा की ओर से जनता को उद्दोलित करने की भी कोशिश की गई। लोगों को याद होगा जिस दिन डॉक्टरों ने बताया कि रामदेव की हालत में सुधार हो रहा है, उसी दिन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक कह रहे थे कि बाबा कोमा में जा सकते हैं। यह जनभावनाओं को भड़काने के लिए दिया गया सुनियोजित गैर जरूरी बयान था। बाबा की जिद की आड़ में भाजपा सरकार ने अपना स्वार्थ साधने के लिए जमकर प्रपोगंडा किया। निशंका को अच्छे खासे बाबा कोमा में जाते नजर आ रहे थे लेकिन गंगा बचाव आंदोलन से जुड़े स्वामी निगमानंद जो वाकई कोमा में थे उनको मरने के लिए छोड़ दिया गया। वह भी अनशन के चलते तबियत बिगडऩे पर अस्पताल में लाए गए थे पर निशंक ने न तो पहले उनकी मांगों पर ध्यान दिया और न भर्ती होने के बाद उनसे अनशन तोडऩे का आग्रह करने की जहमत उठाई। चार दिन के भूखे रामदेव के लिए जहां पूरी सरकार और प्रशासन पिल पड़ा वहीं 116 दिनों से भूखे प्यासे स्वामी निगमानंद को देखने की किसी को फुर्सत नहीं मिली। संत निगमानंद निशंक सरकार की बेहयाई के चलते खामोश मौत मर गए। निगमानंद की मौत बाबा के अनशन तोडऩे के एक दिन बाद हुई। संतों के प्रति भगवादल में कितना सम्मान है यह उसका भी प्रमाण है। बाबा रामदेव के तमाम खोट सामने आने के बाद भी पूरी भाजपा उनकी सेवा सुसुर्सा में लगी थी लेकिन निगमानंद जिसका गंगा के बचने या न बचने में कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता, उनमें कोई खोट भी नहीं है, को मौत के मुंह में जाने दिया।बहरहाल सेहत सुधरने के बाद पूरे घटनाक्रम पर रामदेव को विचार करना चाहिए। संत समाज का इस देश में कितना आदर है अल्प समय में सफलता की बुलंदियों पर पहुंचकर रामदेव ने यह स्वयं अनुभव किया होगा, जनहित में संत का सड़कों पर आना भी गलत नहीं है। लेकिन साधु के बाने में बेशुमार दौलत जोडऩा, जनता से छल करना, स्वयं को महान बनाने के उपक्रम करना न केवल लौकिक बल्कि पारलौकिक अपराध है। बाबा रामदेव यह अपराध कितने समय से कर रहे हैं, एक-एक कर सामने आ रहे हैं। हो सकता है मीडिया में जो आ रहा है वह सरकार प्रायोजित हो, लेकिन कोलकाता का वह व्यवसाई कैसे गलत हो सकता है जिसने योग गुरू से परेशान होकर उनकी भक्ति से तौबा कर ली। बह चुप्पी झूठ नहीं हो सकती जो कंपनियों के सवाल पर बाबा रामदेव और बालकृष्ण के ओठों पर जम गई थी।

Saturday, June 11, 2011

स्वार्थ के लिए सिद्धांतों को तिलांजलि

राजनीतिक रिश्ते, उनके प्रति निष्ठाएं और प्राथमिकताएं जरूरतों के हिसाब से बदलती रहती हैं। उमा भारती की भारतीय जनता पार्टी में वापसी पार्टी से उनके रिश्ते, निष्ठा और प्राथमिकताएं भी इन्हीं जरूरतों पर आधारित हैं। आज फिर दोनों के स्वार्थ चरम पर हैं, दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। उमा भारती को अपने खोए हुए जनाधार को पुन: प्राप्त करने के लिए एक बैनर चाहिए तो भाजपा को एक ऐसा नेता चाहिए जिसे लोग सुनें, जो भीड़ जुटा सके। भाजपा में आज आडवाणी के अलावा ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसे सुनने के लिए लोग जुटें और उमा भारती के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके सहारे वे अपने राजनैतिक कद को पुन: बढ़ा सकें। क्योंकि जिस उमा भारती के लिए भाजपा बड़े नेता दौड़े चले आते थे आज वे चाहे जहां जाएं पद पर बैठा कोई अदना नेता भी उनके स्वागत के लिए नहीं आता। इसलिए उनकी वापसी व्यापारिक सौदे के समान है एक हाथ दे-एक हाथ ले।
1980 के दशक में भारतीय जनता पार्टी को ऐसे लोगों की जरूरत थी, जो आम आदमी के जेहन में हिन्दुत्व की भावना को चरमसीमा तक पहुंचा सकें। यद्यपि संघ में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी फिर भी भाजपा ने भगवावस्त्र धारी प्रवचनकर्ता संतों को अपने आप से जोड़ा। उमा भारती उन्हीं में से एक थीं। उमा भारती बचपन से ही प्रवचन करती थीं, गीता के कंठस्थ श्लोक और उनका सूक्ष्म विश्लेषण सुनने वालों को मंत्र मुग्ध कर देता था। स्व। राजमाता सिंधिया के प्रयासों से बुंदेलखंड में उमा भारती भाजपा को कांग्रेस की काट के रूप में मिलीं। हालांकि वे पहला चुनाव 1984 में खजुराहो संसदीय सीट से हार गई थीं, लेकिन इसके बाद उन्होंने 1989 से 1991, 96 तथा 98 लगातार विजयश्री हासिल की और बुंदेलाओं के गढ़ में अब तक न मुरझाने वाला कमल खिलाया। लेकिन लंबी विजयी राजनीतिक यात्रा के बाद भाजपा का उमा से मोहभंग हो गया और उनके स्वयं के अर्जित पुण्य लोक भी नष्ट हो चुके थे। पार्टी को उनकी जितनी जरूरत थी, उससे कहीं अधिक उनका अहंकार बढ़ गया। वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी से एक ही मंत्रालय में रहने के बाद भी टकराव, और दूसरी पंक्ति के नेताओं से स्वयं का श्रेष्ठ और बड़ा समझने का भाव। अब उमा भारती का साध्वी का चोला उतर चुका था, कर्मण्य वाधिकारस्ते, मां फलेषु कदाचन: और जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह भी अच्छा है और जो होगा वह भी अच्छा होगा का मर्म समझाने वाली साध्वी उमा भारती अब स्वयं ऐसे कर्मों में लीन हो चुकी थीं जो गीतासार से कोसों दूर थे।
2003 में मध्यप्रदेश में उनके नेतृत्व में जब भाजपा की सरकार बन गई तब तो उनका अहंकार आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने गाहे-गवाहे यही प्रचारित किया कि उनके कारण ही पार्टी मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार को हटाने में कामयाब रही है। उन्होंने स्वयं को मां और मध्यप्रदेश को अपना बच्चा तक करार दिया। अपने अहंकार के बशीभूत होकर मध्यप्रदेश की इस 22वीं मुख्यमंत्री को महज 9 माह बाद कर्नाटक में साम्प्रदायिकता फैलाने तथा दंगे भड़काने के आरोप में 23 अगस्त 2004 को त्यागपत्र देना पड़ा। हालांकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, वे चाहतीं तो मुख्यमंत्री रहते हुए भी मामले में पेशी कर सकती थीं, लेकिन गगनगामी अहंकार को ज्ञान का अंकुश नियंत्रित नहीं कर सका। बहरहाल इस मामले में उन्हें बेदाग बरी किया गया, लेकिन पार्टी का स्वार्थ पूरा हो चुका था इसलिए वह उमा भारती का अहंकार सहन करने के मूड में नहीं थी। उमा प्रयास करती रहीं और बाबूलाल गौर कुर्सी छोडऩे को तैयार नहीं हुए। उमा भारती ने सत्ता की लालच में तमाम प्रयास किए। उनकी ऊल-जलूल बयानबाजी पार्टी के लिए सिरदर्द बन गई। हद तो तब हो गई जब भरी सभा में उन्होंने पार्टी के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी को ही नीचा दिखा दिया। इससे खफा पार्टी ने उन्हें कुनबे से बेदखल कर दिया गया। पार्टी से निकलने के बाद उमा भारती ने भाजपा को खूब कोसा और नेताओं को भला-बुरा कहा। यहां तक कि जिन्हें वे पिता तुल्य मानती थीं उन अटल, आडवाणी पर गंभीर आरोप लगाए। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने पर उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को भी पार्टी से निष्कासित करने की अपील कर डाली। पार्टी के लिए उनका यह जुमला बड़ा चर्चित हुआ था कि एक विमान चालक है ओर पांच अपहरणकर्ता हैं। उनका इशारा तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के अलावा प्रमोद महाजन, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज आदि नेताओं की ओर था।
उमा भारती ने अपनी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया। जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया। तब उन्हें पहली बार अहसास हुआ कि पार्टी उनसे नहीं वे पार्टी से हैं। बावजूद इसके उमा भारती ने कई बार भाजपा में न जाने की कसमें खाईं। यहां तक कि जब उनकी घर वापसी के घोर प्रयास चल रहे थे ऐसे समय में भी उन्होंने भाजपा को भ्रष्ट पार्टी करार दिया। साथ ही सुषमा, जेटली और वैंकेया नायडू को गैर जनाधार वाला नेता करार देते हुए कहा था कि यही आधारविहीन नेता पार्टी में उनकी वापसी का विरोध कर रहे हैं। पार्टी के बड़े पदों पर बैठे इन लोगों को झेलना भी उनके लिए मुश्किल होगा। लेकिन वक्त बदला और दोनों ने परस्पर जरूरत को ध्यान में रखकर एक दूसरे को अपनाया। जहाज का जो पंछी जहाज डुबोने की कसमें खा रहा था वापस उसी पर सवार हो गया।