Saturday, September 11, 2010
पवित्र मौके पर पाक परस्तों का पाप
गणेश चतुर्थी और ईद के सुखद संयोग को हुर्रियत के नाग इस तरह अपवित्र करेंगे किसी ने कल्पना नहीं की थी। कश्मीर में सरकार ने ईद की खुशियां मनाने के लिए कफ्र्यू हटाया था, लेकिन वहां दुआ करने के बजाए लोगों ने उपद्रव किया। नामज अदा करने के जमकर उपद्रव किया, भारत विरोधी नारे लगाए, तिरंगे को आग लगाई। सुरक्षा बलों को सख्त निर्देश थे कि लोगों को खुशी-खुशी ईद मनाने दी जाए, कुछ भी हो जाएग कहीं कफ्यू नहीं लगेगा, कहीं कोई पाबंदी नहीं होगी, कोई गाली नहीं चलाएगा। क्या मजाक है, गद्दारों से मोहब्बत किस लिए दिखाई जा रही है समझ नहीं आता।क्या केंद्र ने उन पाकिस्तान परस्तों का ठेका ले रखा है जो जिस थाली में खा रहे हैं उसी थाली में छेद कर रहे हैं। जब देशवासियों की गाढ़ी कमाई का अरबों रुपए कश्मीर पर लुटाया जा रहा है तो उन कमीनों को लात मारकर बाहर क्यों नहीं करते जो पाकिस्तनी झंडे फहरा कर देशवासियों की भावनाओं और देश का अपमान कर रहे हैं। कश्मीर अभी भी देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा संघीय व्यवस्था में भारी है, चाहे वह कर वसूली हो या फिर विभिन्न कानूनों का समान रूप से लागू करना। बावजूद इसके विकास के लिए विशेष पैकेजों की बाढ़ लगातार उफान पर रहती है। कश्मीर में ईद के मुबारक मौके पर हुर्रियत के कमीनों ने जो किया उसने स्पष्ट कर दिया कि यह इंसान और मुसलमान कुछ भी होने के लायक नहीं हैं।अब जरा पाकिस्तान को देखें, खुद को इस्लाम के अलंबरदार कहने वाले यहां के राक्षसों ने एक नाबालिग हिन्दू लडक़ी को अगवा कर जबरदस्ती मुसलमान बना दिया गया, पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया, उल्टे समझा दिया कि इसका कोई लाभ नहीं क्योंकि इस रिपोर्ट को अदालत रद्द कर देगी। फिर भी हमारी सरकार इनके साथ प्यार की पींगे बढ़ा रही है। अमन की दुआएं करने के मौके पर इंसानियत को शर्मशार करने वाले क्या मुसलमान हो सकते हैं। पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र के नाम पर एक कलंक है। इससे और इसके हिमायतियों से अमन और मोहब्बत की उम्मीद करना मूर्खता है।
Saturday, September 4, 2010
सोनिया, गडकरी और बालासाहेब ठाकरे
शर्म करो और हो सके तो चुल्लू भर पानी में डूब मरो, इससे बेहतर कोई सलाह उनके लिए मेरे पास नहीं है, जो भरपूर मौका मिलने के बाद खुद तो कुछ नहीं कर सके और सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर अनावश्यक विवाद और अपने निचले दर्ज का नेता होने का प्रमाण पेश कर रहे हैं।
1998 में सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा गया। इस समय कांग्रेस में भरपूर बिखराव था, कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं था। भाजपा के लिए मौका था कि वह विपक्षी दल की इस स्थिति का लाभ उठाती, लेकिन जनता के समर्थन और केंद्र में सरकार होने के बावजूद भाजपा लाभ नहीं उठा सकी। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सर्वमान्य व्यक्ति के नेतृत्व में भी पार्टी कोई ऐसा उदाहरण देश के सामने नहीं रख सकी, जिसे भाजपा के हक में याद किया जाए। पोखरण का विस्फोट सिर्फ बटन दवा कर अपने नाम करना चाहते थे इसलिए जनता ने नकार दिया। सहयोगियों के सामने हमेशा घुटने टेकते रहे, आपसी खींचतान चरम पर रही, प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री के बीच मतभेद नजर आए। और सबसे शर्मनाक स्थिति यह थी कि भाजपा की मातृ संस्था यानि आरएसएस और इनके वरिष्ठ नेता ही सरकार के पक्ष में नहीं थे।भाजपा ने अपनी छवि को सुदृढ़ करने के बाजाए चुनावों में सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा जमकर उछला। भाजपा को सोते-जागते विदेशी मूल के अलावा और कुछ सूझा ही नहीं। सुषमा स्वराज और उमा भारती तो सिर मुंडाने के लिए तैयार हो गई थीं। विरोध की यह बेतुकी परिपाटी भाजपा की ही देन है, और दुर्भाग्य की आज तक बदस्तूर जारी है। अब जबकि सोनिया गांधी को उनकी पार्टी ने लगातार चौथी बार अध्यक्ष चुन लिया तो भाजपा कहती है कि वे प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद भी छोड़कर दिखाएं।इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा ने सोनिया गांधी से हार मान ली है, भाजपा ने मान लिया है कि जबतक सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं कांग्रेस का बाल बांका नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा नहीं तो यह कोई तुक की बात नहीं है कि आप प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद छोड़ दें।
अब ठाकरे साहब को देखिए। इस मर्द की मर्दानगी कभी महाराष्ट्र से बाहर नहीं निकल सकी। ऐसा नहीं है कि मौका नहीं मिला। देश के करीब-करीब हर हिस्से में शिवसेना की इकाईयां हैं, लेकिन उनकी औकात वहां नहीं है, क्योंकि ठाकरे का पौरुष सिर्फ महाराष्ट्र में रोजी-रोटी कमा रहे उत्तर भारतीयों और सामना की संपादकीय में ही दिखाई देता है। बाहर निकलने का दम इनमें नहीं है, इसलिए इनके मुंह से भी यह बातें शोभा नहीं देतीं।
लगे हाथ कुछ और सूरमाओं की बात कर लें। शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा। इन तीनों को सोनिया के विदेशी मूल का होने से ऐतराज था। पार्टी छोड़ी और आज सोनिया की कृपा ही जिंदा हैं। शरद पवार का समय पूरा हो रहा है, इसलिए सोनिया की कृपा से अपनी बेटी को राजनीति में दाखिल करवा लिया और संगमा को कोई पूछ नहीं रहा, उनकी भी बेटी आज सोनिया की कृपा पर देश की सबसे छोटी सांसद बनकर खुश है।
इन सबका मतलब सोनिया का प्रशस्तिगान नहीं है। सोनिया को देश पहली ही पारी में नकार चुका था और लगातार तीन बार भाजपा को मौका दिया। लेकिन भाजपा इतनी नाकारा निकली की नकार चुकी सोनिया को देश ने पुन: अंगीकार किया। सत्ता जनता की भावनाओं की कद्र करने और विपक्ष उसकी अधिकारों की आवाज उठाने के लिए होता है। भाजपा दोनों ही मोर्चों पर फेल रही। राम मंदिर जैसे जनजन से जुड़े भावनात्मक मुद्दे पर भाजपा गठबंधन के सहयोगियों के सामने जिस मजबूती से खड़ी नहीं हो सकी, जबकि कांग्रेस ने अमेरिका के साथ परमाणु करार जैस विषय पर सरकार को दांव पर लगाकर वामपंथियों को दरकिनार कर दिया। सोनिया गांधी का इसके पीछे सरकार को भरपूर समर्थन रहा। जबकि मंदिर निर्माण जैसे पवित्र आंदोलन के पीछे भाजपा अध्यक्ष हमेशा पूर्णजनादेश की बातें करके जनता को बरगलाते रहे।
तब से अब तक इस तरह की बहुत सी बातें हैं कहने के लिए, लेकिन लब्बोलुआब यही है कि सोनिया गांधी को यहां तक पहुंचने में सोनिया गांधी की कोई योग्यता या कोई उपलब्धी नहीं है, असल बात यह है कि जनता ने जिन्हें विकल्प के रूप में चुना था वे खोखले साबित हुए और देश को सोनिया के नेतृत्व में सरकार को चुनना पड़ा। रही बात कांग्रेस की कांग्रेस में यदि कोई कद्दावर होता तो राजीव गांधी के स्वर्गवास के बाद कांग्रेस की जो दुर्गती हुई थी वह न होती। वे पहले से ही कांग्रेस को गांधी परिवार की बापौती माने बैठे हैं, इसलिए उनकी वीरता पर चर्चा करना बेकार है।
1998 में सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा गया। इस समय कांग्रेस में भरपूर बिखराव था, कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं था। भाजपा के लिए मौका था कि वह विपक्षी दल की इस स्थिति का लाभ उठाती, लेकिन जनता के समर्थन और केंद्र में सरकार होने के बावजूद भाजपा लाभ नहीं उठा सकी। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सर्वमान्य व्यक्ति के नेतृत्व में भी पार्टी कोई ऐसा उदाहरण देश के सामने नहीं रख सकी, जिसे भाजपा के हक में याद किया जाए। पोखरण का विस्फोट सिर्फ बटन दवा कर अपने नाम करना चाहते थे इसलिए जनता ने नकार दिया। सहयोगियों के सामने हमेशा घुटने टेकते रहे, आपसी खींचतान चरम पर रही, प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री के बीच मतभेद नजर आए। और सबसे शर्मनाक स्थिति यह थी कि भाजपा की मातृ संस्था यानि आरएसएस और इनके वरिष्ठ नेता ही सरकार के पक्ष में नहीं थे।भाजपा ने अपनी छवि को सुदृढ़ करने के बाजाए चुनावों में सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा जमकर उछला। भाजपा को सोते-जागते विदेशी मूल के अलावा और कुछ सूझा ही नहीं। सुषमा स्वराज और उमा भारती तो सिर मुंडाने के लिए तैयार हो गई थीं। विरोध की यह बेतुकी परिपाटी भाजपा की ही देन है, और दुर्भाग्य की आज तक बदस्तूर जारी है। अब जबकि सोनिया गांधी को उनकी पार्टी ने लगातार चौथी बार अध्यक्ष चुन लिया तो भाजपा कहती है कि वे प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद भी छोड़कर दिखाएं।इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा ने सोनिया गांधी से हार मान ली है, भाजपा ने मान लिया है कि जबतक सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष हैं कांग्रेस का बाल बांका नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा नहीं तो यह कोई तुक की बात नहीं है कि आप प्रधानमंत्री की तरह अध्यक्ष पद छोड़ दें।
अब ठाकरे साहब को देखिए। इस मर्द की मर्दानगी कभी महाराष्ट्र से बाहर नहीं निकल सकी। ऐसा नहीं है कि मौका नहीं मिला। देश के करीब-करीब हर हिस्से में शिवसेना की इकाईयां हैं, लेकिन उनकी औकात वहां नहीं है, क्योंकि ठाकरे का पौरुष सिर्फ महाराष्ट्र में रोजी-रोटी कमा रहे उत्तर भारतीयों और सामना की संपादकीय में ही दिखाई देता है। बाहर निकलने का दम इनमें नहीं है, इसलिए इनके मुंह से भी यह बातें शोभा नहीं देतीं।
लगे हाथ कुछ और सूरमाओं की बात कर लें। शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा। इन तीनों को सोनिया के विदेशी मूल का होने से ऐतराज था। पार्टी छोड़ी और आज सोनिया की कृपा ही जिंदा हैं। शरद पवार का समय पूरा हो रहा है, इसलिए सोनिया की कृपा से अपनी बेटी को राजनीति में दाखिल करवा लिया और संगमा को कोई पूछ नहीं रहा, उनकी भी बेटी आज सोनिया की कृपा पर देश की सबसे छोटी सांसद बनकर खुश है।
इन सबका मतलब सोनिया का प्रशस्तिगान नहीं है। सोनिया को देश पहली ही पारी में नकार चुका था और लगातार तीन बार भाजपा को मौका दिया। लेकिन भाजपा इतनी नाकारा निकली की नकार चुकी सोनिया को देश ने पुन: अंगीकार किया। सत्ता जनता की भावनाओं की कद्र करने और विपक्ष उसकी अधिकारों की आवाज उठाने के लिए होता है। भाजपा दोनों ही मोर्चों पर फेल रही। राम मंदिर जैसे जनजन से जुड़े भावनात्मक मुद्दे पर भाजपा गठबंधन के सहयोगियों के सामने जिस मजबूती से खड़ी नहीं हो सकी, जबकि कांग्रेस ने अमेरिका के साथ परमाणु करार जैस विषय पर सरकार को दांव पर लगाकर वामपंथियों को दरकिनार कर दिया। सोनिया गांधी का इसके पीछे सरकार को भरपूर समर्थन रहा। जबकि मंदिर निर्माण जैसे पवित्र आंदोलन के पीछे भाजपा अध्यक्ष हमेशा पूर्णजनादेश की बातें करके जनता को बरगलाते रहे।
तब से अब तक इस तरह की बहुत सी बातें हैं कहने के लिए, लेकिन लब्बोलुआब यही है कि सोनिया गांधी को यहां तक पहुंचने में सोनिया गांधी की कोई योग्यता या कोई उपलब्धी नहीं है, असल बात यह है कि जनता ने जिन्हें विकल्प के रूप में चुना था वे खोखले साबित हुए और देश को सोनिया के नेतृत्व में सरकार को चुनना पड़ा। रही बात कांग्रेस की कांग्रेस में यदि कोई कद्दावर होता तो राजीव गांधी के स्वर्गवास के बाद कांग्रेस की जो दुर्गती हुई थी वह न होती। वे पहले से ही कांग्रेस को गांधी परिवार की बापौती माने बैठे हैं, इसलिए उनकी वीरता पर चर्चा करना बेकार है।
Wednesday, September 1, 2010
सियासत की शिकार श्रीराम जन्मभूमि
अयोध्या फिर सुर्खियों में है, फैसला आने वाला है...यहां भगवान राम का मंदिर होगा या बाबरी मस्जिद। सरकार ने ऐहतियातन सुरक्षा की आपात योजना तैयार कर डाली है, धारा 144 लागू कर दी गई है क्योंकि भगवान वाले और खुदा के खुदमुख्तारों ने फैसले से पहले ही ऐलान कर दिया है कि दूसरे के हक में फैसला मंजूर नहीं करेंगे। यानि सियासत चरम पर है और फैसला कुछ भी हो कुछ न कुछ फसाद या हलचल तय मानी जा रही है।
फसाद इसलिए नहीं कि किसी को खुदा या राम से मुहब्बत है बल्कि इसलिए कि दोनों ही कौमों के चंद स्वयंभू नेता इस मसले पर राजनीतिक रोटियां सेंकने को तैयार हैं। सदियों से रामजन्म भूमि इसी सियासती की श्किार है। इनके सियासी स्वार्थ सेहतमंद रहें इसलिए आम जनता को राम और अल्लाह के नाम पर लड़वाया जाता रहा। पहले यह काम अंग्रेजों ने किया और अब नेता कर रहे हैं। अंग्रेजों ने स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोडऩे के लिए सबसे पहले मस्जिद का सहारा लिया था। उपलब्ध साक्ष्यों में हेरफेर करके उन्हें प्रचारित किया और बाद में उन्हीं तथ्यों को उल्लेख इतिहासकार अपनी पुस्तकों में करते आए।
1889 के पहले लिखे गए किसी भी सरकारी या गैरसरकारी दस्तावेज और मुस्लिम इतिहासकारों के 'नामेÓ कहीं भी मस्जिद बनाने का आरोप बाबर पर नहीं लगाते, लेकिन इसके बाद जो भी दस्तावेज तैयार हुए या इतिहासकारों ने बाबरकाल का उल्लेख अपनी पुस्तकों में किया उनमें स्पष्ट लिखा कि बाबर ने मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया।
असल में मंदिर तोडऩे का गुनाह इब्राहीम लोधी ने किया था। उसने 17 सितंबर 1523 को मस्जिद की नींव डाली थी और 10 सितंबर 1524 को मस्जिद बनकर तैयार हुई। बाबर का आक्रमण इसके बाद हुआ। बाबर को हिन्दुतान बुलाने का गुनाह पंजाब के सूबेदार और इब्राहीम लोधी के चचा दौलत खां और रणथंबोर के हिन्दू राजपूत राणा सांगा ने किया था। बाबर हिन्दुस्तान आया और 20 अप्रैल 1526 को पानीपत के मैदान में उसने इब्राहीम लोधी को पराजित कर उसकी सल्तनत छीन ली। बाबर का साम्राज्य बढ़ता गया और फिर उसके ही एक सूबेदार मीर बांकी ने लोधी द्वारा बनवाई मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद कर दिया, यह ठीक वैसा ही है जैसे आज गांधी, नेहरू और किदवई नगर हैं, गांधी, नेहरू, किदवई को यह पता ही नहीं है कि उनके नाम से कोई नगर या सड़क है। मस्जिद के बाहर एक शिलालेख में मस्जिद निर्माण से संबंधित जानकारी थी, यह शिलालेख 1889 तक पढ़े जाने लायक था। एक अंग्रेस अफसर ए फ्यूरर ने इस शिलालेख का अनुवाद किया था जो आज भी आर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में दफन है। स्वाधीनता संग्राम में जब हिन्दू-मुस्लिम दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ इंकलाब का नारा बुलंद किया तब इस एकता को तोडऩे के लिए अंग्रेजों ने इस शिलालेख को तोड़ दिया। इसके अलावा अंग्रेज अफसर कनिंघम जिसके पास पुरातत्व महत्व की इमारतों की देखरेख की जिम्मेदारी थी, ने चालाकी से लखनऊ गजेटियर में यह दर्ज कराया कि मस्जिद निर्माण के समय एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दुओं का कत्ल किया गया था। लेकिन उस वक्त ऐसे संसाधन उपलब्ध नहीं थे जिससे कनिंघम के झूठ को पकड़ा जा सके। जबकि फैजाबाद गजेटियर के मुताबिक 1869 में पूरे फैजाबाद की आबादी 9949 थी, यह वो समय था जब राजाज्ञा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था, ऐसा कोई साधन नहीं था कि अचानक कहीं आया जाया जा सके, फिर 1526 में पौने दो लाख हिन्दू एक जगह अचानक कैसे एकत्रित हो गए। इस बात को आज बखूबी समझा जा सकता है।
अंग्रेजों के इस कुकर्म से कुछ विद्वान इन तथ्यों से परिचित थे और फिर अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि है यह सत्य किसी पुस्तक का मोहताज नहीं, इसलिए 1857 में मुसलमानों के तत्कालीन क्रांतिकारी नेता अमीर अली ने मुसलमानों से एक सभा में अपील की थी कि हमारा फर्जे इलाही हमें मजबूर करता है, हम हिन्दुओं के खुदा रामचंद्र जी की पैदाइशी जगह पर जो मस्जिद बनी है, उसे बाखुशी उनके सुपुर्द कर दें, क्योंकि यही दोनों के बीच नाइत्तेफाकी की सबसे बड़ी बजह है। अमीर अली की इस बात का सबने समर्थन किया था। लेकिन अंग्रेज इससे घबरा गए, उन्होंने अमीर अली और बाबा रामचरणदास को फांसी पर लटका दिया। सुल्तानपुर गजेटियर के पेज 36 पर इसका उल्लेख है। संत रामशरणदास की पुस्तक श्रीराम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद, तथ्य और सत्य में भी इसका उल्लेख है।
अंग्रेजों की हूबहू भूमिका में आज के नेता हैं। यह मंदिर मस्जिद विवाद हल करना ही नहीं चाहते, अन्यथा ऐसे कई मौके आए जब इसका समाधान निकल सकता था। लखनऊ में 11 अक्टूबर 1990 को 7 राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठनों सामूहिक बैठक में निर्णय किया था कि 30 अक्टूबर से पहले किसी भी दिन बाबरी मस्जिद को हटाकर राम मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि सौंप दी जाए। इस बैठक में मुस्लिम फॉर प्रोग्रेस के अध्यक्ष शरीफ जमाल कुरैशी, मुस्लिमे हिन्द के अध्यक्ष मोहम्मद आलम कोया, राष्ट्रवादी मुस्लिम फ्रंट के अध्यक्ष अब्दुल हकीम खां, दस्तकार मोर्चे के असद अंसारी, मुस्लिम संघर्ष वाहिनी के अध्यक्ष अय्यूब सईद, मुस्लिम महिला संगठन की श्रीमती नफीसा शेख तथा भारतीय मुस्लिम युवा सम्मेलन के मुख्तार अब्बास नकवी शामिल थे। यही वो समय था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आरएसएस प्रमुख देवरस जी को बुलाकर कहा था कि गैर विवादित भूमि पर विश्व हिन्दू परिषद की अगुवाई में मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ करें, जबतक कार्य विवादित भूमि तक पहुंचेगा मामला सुलझा दिया जाएगा। देवरस जी और विहिप इसके लिए तैयार थे, लेकिन सत्ता की लालच में डूबे लालकृष्ण आडवाणी के सामने दोनों को झुकना पड़ा। आडवाणी जी 25 सितंबर को ही रथ पर सवार हो चुके थे, जिससे उतरना उन्हें गवारा नहीं हुआ और उसके बाद जो हुआ वह सबके सामने है। आज विहिप मंदिर निर्माण में आणवाणी को सबसे बड़ी बाधा बताता है। आडवाणी ने यदि रथयात्रा की जिद न करके राव की बात पर चलने और मुस्लिम संगठनों की बैठक में हुए फैसले को स्वीकार कर लिया होता तो संभवत: अब तक जन्मभूमि पर भव्य मंदिर होता। भाजपा ने हिन्दुओं के वोट पाने के लिए इस आंदोलन को ऊंचाईयां दीं और सत्ता मिलने के बाद इससे किनारा कर लिया। ऐसा एक नहीं कई बार हुआ। अंतत: जनता ने सच को समझा और इन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया, तो अब फिर भाजपा राम की शरण में है।
अदालत से जो फैसला आना है वह इन तथ्यों पर आएगा कि वहां वास्तव में कोई मंदिर था या नहीं। मुस्लिमों का कहना है कि जिस स्थान पर मस्जिद बनी है वहां पहले कोई मंदिर था ही नहीं। इस विषय पर कई बार बैठकें और वार्ताएं हो चुकी हैं। पुरातत्व विभाग की टीम ने यहां खुदाई करके भी देखा, जिसकी रिपोर्ट अदालत को दे दी गई है। हालांकि यहां खुदाई जैसे किसी उपक्रम की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि ऐसी कई निशानियां मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि यहां मंदिर था। मसल मस्जिद का ऊपरी हिस्सा जिन 14 खंबों पर टिका हुआ है उनमें हिन्दू देवी देवताओं की आकृतियां विद्यमान हैं। मस्जिद में कहीं भी लकड़ी का उपयोग नहीं होता, जबकि यहां बड़ी मात्रा में लकड़ी का उपयोग किया गया है। मस्जिद में हरहाल में एक पानी की टंकी होती है, बाबरी मस्जिद में इसकी व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात इस्लमा के मुताबिक विवादित स्थल पर नमाज नहीं पढ़ी जा सकती और पिछले करीब 40 वर्षों से यहां नमाज पढ़ी भी नहीं जा रही है, इसलिए उपलब्ध साक्ष्यों और इस्लामिक मान्यता को ध्यान में रखकर मुस्लिमों को खुशी-खुशी अपने पूर्व में लिए गए निर्णयों पर अमल करना चाहिए। अदालत का निर्णय चाहे जो भी आए।
फसाद इसलिए नहीं कि किसी को खुदा या राम से मुहब्बत है बल्कि इसलिए कि दोनों ही कौमों के चंद स्वयंभू नेता इस मसले पर राजनीतिक रोटियां सेंकने को तैयार हैं। सदियों से रामजन्म भूमि इसी सियासती की श्किार है। इनके सियासी स्वार्थ सेहतमंद रहें इसलिए आम जनता को राम और अल्लाह के नाम पर लड़वाया जाता रहा। पहले यह काम अंग्रेजों ने किया और अब नेता कर रहे हैं। अंग्रेजों ने स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोडऩे के लिए सबसे पहले मस्जिद का सहारा लिया था। उपलब्ध साक्ष्यों में हेरफेर करके उन्हें प्रचारित किया और बाद में उन्हीं तथ्यों को उल्लेख इतिहासकार अपनी पुस्तकों में करते आए।
1889 के पहले लिखे गए किसी भी सरकारी या गैरसरकारी दस्तावेज और मुस्लिम इतिहासकारों के 'नामेÓ कहीं भी मस्जिद बनाने का आरोप बाबर पर नहीं लगाते, लेकिन इसके बाद जो भी दस्तावेज तैयार हुए या इतिहासकारों ने बाबरकाल का उल्लेख अपनी पुस्तकों में किया उनमें स्पष्ट लिखा कि बाबर ने मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया।
असल में मंदिर तोडऩे का गुनाह इब्राहीम लोधी ने किया था। उसने 17 सितंबर 1523 को मस्जिद की नींव डाली थी और 10 सितंबर 1524 को मस्जिद बनकर तैयार हुई। बाबर का आक्रमण इसके बाद हुआ। बाबर को हिन्दुतान बुलाने का गुनाह पंजाब के सूबेदार और इब्राहीम लोधी के चचा दौलत खां और रणथंबोर के हिन्दू राजपूत राणा सांगा ने किया था। बाबर हिन्दुस्तान आया और 20 अप्रैल 1526 को पानीपत के मैदान में उसने इब्राहीम लोधी को पराजित कर उसकी सल्तनत छीन ली। बाबर का साम्राज्य बढ़ता गया और फिर उसके ही एक सूबेदार मीर बांकी ने लोधी द्वारा बनवाई मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद कर दिया, यह ठीक वैसा ही है जैसे आज गांधी, नेहरू और किदवई नगर हैं, गांधी, नेहरू, किदवई को यह पता ही नहीं है कि उनके नाम से कोई नगर या सड़क है। मस्जिद के बाहर एक शिलालेख में मस्जिद निर्माण से संबंधित जानकारी थी, यह शिलालेख 1889 तक पढ़े जाने लायक था। एक अंग्रेस अफसर ए फ्यूरर ने इस शिलालेख का अनुवाद किया था जो आज भी आर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में दफन है। स्वाधीनता संग्राम में जब हिन्दू-मुस्लिम दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ इंकलाब का नारा बुलंद किया तब इस एकता को तोडऩे के लिए अंग्रेजों ने इस शिलालेख को तोड़ दिया। इसके अलावा अंग्रेज अफसर कनिंघम जिसके पास पुरातत्व महत्व की इमारतों की देखरेख की जिम्मेदारी थी, ने चालाकी से लखनऊ गजेटियर में यह दर्ज कराया कि मस्जिद निर्माण के समय एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दुओं का कत्ल किया गया था। लेकिन उस वक्त ऐसे संसाधन उपलब्ध नहीं थे जिससे कनिंघम के झूठ को पकड़ा जा सके। जबकि फैजाबाद गजेटियर के मुताबिक 1869 में पूरे फैजाबाद की आबादी 9949 थी, यह वो समय था जब राजाज्ञा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था, ऐसा कोई साधन नहीं था कि अचानक कहीं आया जाया जा सके, फिर 1526 में पौने दो लाख हिन्दू एक जगह अचानक कैसे एकत्रित हो गए। इस बात को आज बखूबी समझा जा सकता है।
अंग्रेजों के इस कुकर्म से कुछ विद्वान इन तथ्यों से परिचित थे और फिर अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि है यह सत्य किसी पुस्तक का मोहताज नहीं, इसलिए 1857 में मुसलमानों के तत्कालीन क्रांतिकारी नेता अमीर अली ने मुसलमानों से एक सभा में अपील की थी कि हमारा फर्जे इलाही हमें मजबूर करता है, हम हिन्दुओं के खुदा रामचंद्र जी की पैदाइशी जगह पर जो मस्जिद बनी है, उसे बाखुशी उनके सुपुर्द कर दें, क्योंकि यही दोनों के बीच नाइत्तेफाकी की सबसे बड़ी बजह है। अमीर अली की इस बात का सबने समर्थन किया था। लेकिन अंग्रेज इससे घबरा गए, उन्होंने अमीर अली और बाबा रामचरणदास को फांसी पर लटका दिया। सुल्तानपुर गजेटियर के पेज 36 पर इसका उल्लेख है। संत रामशरणदास की पुस्तक श्रीराम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद, तथ्य और सत्य में भी इसका उल्लेख है।
अंग्रेजों की हूबहू भूमिका में आज के नेता हैं। यह मंदिर मस्जिद विवाद हल करना ही नहीं चाहते, अन्यथा ऐसे कई मौके आए जब इसका समाधान निकल सकता था। लखनऊ में 11 अक्टूबर 1990 को 7 राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठनों सामूहिक बैठक में निर्णय किया था कि 30 अक्टूबर से पहले किसी भी दिन बाबरी मस्जिद को हटाकर राम मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि सौंप दी जाए। इस बैठक में मुस्लिम फॉर प्रोग्रेस के अध्यक्ष शरीफ जमाल कुरैशी, मुस्लिमे हिन्द के अध्यक्ष मोहम्मद आलम कोया, राष्ट्रवादी मुस्लिम फ्रंट के अध्यक्ष अब्दुल हकीम खां, दस्तकार मोर्चे के असद अंसारी, मुस्लिम संघर्ष वाहिनी के अध्यक्ष अय्यूब सईद, मुस्लिम महिला संगठन की श्रीमती नफीसा शेख तथा भारतीय मुस्लिम युवा सम्मेलन के मुख्तार अब्बास नकवी शामिल थे। यही वो समय था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आरएसएस प्रमुख देवरस जी को बुलाकर कहा था कि गैर विवादित भूमि पर विश्व हिन्दू परिषद की अगुवाई में मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ करें, जबतक कार्य विवादित भूमि तक पहुंचेगा मामला सुलझा दिया जाएगा। देवरस जी और विहिप इसके लिए तैयार थे, लेकिन सत्ता की लालच में डूबे लालकृष्ण आडवाणी के सामने दोनों को झुकना पड़ा। आडवाणी जी 25 सितंबर को ही रथ पर सवार हो चुके थे, जिससे उतरना उन्हें गवारा नहीं हुआ और उसके बाद जो हुआ वह सबके सामने है। आज विहिप मंदिर निर्माण में आणवाणी को सबसे बड़ी बाधा बताता है। आडवाणी ने यदि रथयात्रा की जिद न करके राव की बात पर चलने और मुस्लिम संगठनों की बैठक में हुए फैसले को स्वीकार कर लिया होता तो संभवत: अब तक जन्मभूमि पर भव्य मंदिर होता। भाजपा ने हिन्दुओं के वोट पाने के लिए इस आंदोलन को ऊंचाईयां दीं और सत्ता मिलने के बाद इससे किनारा कर लिया। ऐसा एक नहीं कई बार हुआ। अंतत: जनता ने सच को समझा और इन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया, तो अब फिर भाजपा राम की शरण में है।
अदालत से जो फैसला आना है वह इन तथ्यों पर आएगा कि वहां वास्तव में कोई मंदिर था या नहीं। मुस्लिमों का कहना है कि जिस स्थान पर मस्जिद बनी है वहां पहले कोई मंदिर था ही नहीं। इस विषय पर कई बार बैठकें और वार्ताएं हो चुकी हैं। पुरातत्व विभाग की टीम ने यहां खुदाई करके भी देखा, जिसकी रिपोर्ट अदालत को दे दी गई है। हालांकि यहां खुदाई जैसे किसी उपक्रम की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि ऐसी कई निशानियां मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि यहां मंदिर था। मसल मस्जिद का ऊपरी हिस्सा जिन 14 खंबों पर टिका हुआ है उनमें हिन्दू देवी देवताओं की आकृतियां विद्यमान हैं। मस्जिद में कहीं भी लकड़ी का उपयोग नहीं होता, जबकि यहां बड़ी मात्रा में लकड़ी का उपयोग किया गया है। मस्जिद में हरहाल में एक पानी की टंकी होती है, बाबरी मस्जिद में इसकी व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात इस्लमा के मुताबिक विवादित स्थल पर नमाज नहीं पढ़ी जा सकती और पिछले करीब 40 वर्षों से यहां नमाज पढ़ी भी नहीं जा रही है, इसलिए उपलब्ध साक्ष्यों और इस्लामिक मान्यता को ध्यान में रखकर मुस्लिमों को खुशी-खुशी अपने पूर्व में लिए गए निर्णयों पर अमल करना चाहिए। अदालत का निर्णय चाहे जो भी आए।
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