
एक हंस-हंसनी का जोड़ा प्रवास पर था। एक रात वे विश्राम के लिए वे किसी गांव में बरगद के वृक्ष पर ठहर गए। जोड़ा इस गांव में पहले भी कभी ठहर चुका था, इसलिए गांव की आब-ओ-हवा से परिचित था। इस बार उन्हें गांव पहले जैसा नहीं लगा। यह बात हंसनी ने हंस पर जाहिर कर दी। इन्हीं विचारों में हंस भी खोया था कि उसे बरगद के वृक्ष पर एक उल्लू दिखाई दे गया। हंस ने मुस्कुरा कर हंसनी से कहा, अब इस गांव में उल्लू बसने लगे हैं, इसलिए यह गांव उजड़ गया है।
उल्लू हंस-हंसनी की बातें सुन रहा था, उसे उनकी यह बात नागवार गुजरी। सुबह जब जोड़ा उडऩे को तैयार हुआ तो उल्लू ने हंसनी को रोक लिया और हंस से बोला यह मेरी पत्नी है। हंस को उल्लू की मूर्खता पर हंसी आई, उसने उल्लू को लाख समझाया कि यह तुम्हारी पत्नी नहीं हो सकती, किंतु उल्लू नहीं माना और बोला आओ पंचायत बुला लेते हैं, पंच जो फैसला देंगे उसे मान लिया जाएगा। हंस तैयार हो गया। पंचायत बुलाई गई, दोनों ने पंचों के सामने अपनी-अपनी बात रखी। पंचों ने विचार-विमर्श किया और निष्कर्ष निकाला कि हंस साल में एक बार जब यहां से गुजरता है तो विश्राम के लिए यहां ठहरता है, इसे गांव से कोई मतलब नहीं है, यह झूठ भी बोल सकता है। लेकिन उल्लू हमारे बीच का प्राणी है, 24 घंटे बरगद पर बैठकर गांव की रखवाली करता है, हमसे झूठ नहीं बोल सकता। लिहाजा फैसला उल्लू के पक्ष में हो गया। हंस की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। शाम हो गई हंस-हंसनी आगे नहीं बढ़ सके और रात्रि को पुन: बरगद पर बैठ गए। उल्लू हंस के पास आया और बोला मैं जानता हूं कि हंसनी मेरी पत्नी नहीं हो सकती फिर भी तुम हार गए। क्योंकि जिन्होंने यह फैसला दिया है उनके पास अपना दिमाग नहीं है, वे सब मेरे कहने पर चलते हैं, मेरे प_े हैं, इसलिए तुम सही होकर भी जीत नहीं सके। यही सूरत-ए-हाल महाराष्ट्र का है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जानते हैं कि उन्होंने जो प_े पाल रखे हैं, वे उनकी एक आवाज पर पूरे प्रदेश को सिर पर उठा लेंगे और उठा रहे हैं, नेतृत्व नपुंसक है। इतिहास साक्षी है कि नपुंसक और स्वार्थी नेतृत्व किसी भी देश काल में अपने राज्य और प्रजा को सुरक्षा, संपन्नता प्रदान नहीं कर पाया। फिर वहां यह कल्पना कैसे की जा सकती जहां के नेतृत्व की ऊर्जा का श्रोत ही दुष्टता और धृष्टता हो। फिर हमें इन खबरों से कतई विचलित नहीं हो चाहिए कि बाला साहेब ठाकरे और राज ठाकरे मुंबई को अपनी बापौती समझ रहे हैं। दुनिया भर में देश का मस्तक ऊंचा करने वाले उद्योगपति मुकेश अंबानी को हड़का रहे हैं, खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को आंखें दिखा रहे हैं और दुनिया के श्रेष्ठ कलाकार अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान को न केवल धमका रहे हैं, बल्कि उनके घरों पर हमले भी करवा रहे हैं।..भई दुष्ट अगर दुष्टता नहीं करेगा तो क्या भजन करेगा।...फिर तब जब उन्हें पता हो कि 1969 की तरह कोई इंदिरा गांधी इस देश में नहीं है, जो दक्षिण भारतीयों को परेशान करने के जुर्म में ऐसी की तैसी कर देगी।
लिहाजा इन दो कोड़ी की मानसिकता वालों पर माथा खपाने की बजाए उन लोगों को आईना दिखाएं, जिनका समर्थन पाकर यह गुंडे उत्पाद मचा रहे हैं। उन मुंबईवासियों को यह समझना होगा कि उनके हित, उनकी अस्मिता और उनकी संपन्नता के नाम पर उनके महाराष्ट्र और उनके देश के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। जिन उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से बाहर निकालने की बात पर मराठी फूल जाते हैं यदि उन्हें एक कौने में समेट दिया जाये तो शेष सारे राष्टï्र को लेने के देने पड़ जायेंगे। जिस अस्मिता, सम्मान, संस्कृति, परंपराओं, विकास, कला और सृजन की बात करते हैं, वास्तव में उसके वाहक हिन्दी भाषी यानि उत्तर भारतीय ही हैं। देश हो या परदेश अपने गीता अथवा रामायण के गुटके के सहारे इन्हीं हिन्दी भाषियों ने तमाम दु:ख तकलीफें सहकर उस संस्कृति को जिंदा रखा है जिसकी पूजा और सम्मान आज भी दुनिया करती है।
बात केवल एक बाल ठाकरे या राज ठाकरे की नहीं है, ठाकरे और उनकी तरह की मानसिकता रखने वाले कितने बुद्धिमान हैं जो अपना परिचय समय-समय अपनी छिछोरी हरकतों से देते रहते हैं। समझना मुंबई और महाराष्ट्रवासियों को है। उन्हें जिस मुंबई, मुंबई के जिस विकास और ग्लैमर पर नाज है उनकी कोई गिनती नहीं है। बड़े व्यवसायियों में पारसियों की संख्या सर्वाधिक है। शेयर बाजार पर गुजरातियों का कब्जा है। कस्टम, सेंट्रल, एक्साईज और इनकम टैक्स विभाग के 70 प्रतिशत अधिकारी बिहार के हैं। बॉलीबुड में पंजाबियों का प्रभुत्व है। तकनीशियनों में 25 प्रतिशत उत्तर भारतीय हैं। निर्माण उद्योगों में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों का हिस्सा 30 प्रतिशत से अधिक है। सुरक्षा गार्ड की भूमिका में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग 40 प्रतिशत से अधिक है। निजी स्कूलों के अधिकांश संचालक उत्तर प्रदेश के हैं। दूध व्यवसाय में 75 प्रतिशत से अधिक उत्तर प्रदेशी हैं। खोमचा लगाने वालों में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगों का हिस्सा 50 प्रतिशत है। अपने-आप को पढ़े लिखों की राजधानी और आई.टी का आका समझने वाले मुंबई, बैंगलूर, कर्नाटकियों को यह पता ही नहीं है उनकी यह हैसियत भी हिन्दी भाषियों के कारण है। यहां हजारों की संख्या में पढ़े लिखे नौजवान अपनी सेवाएं दे रहे हैं। हां इन हिन्दी भाषियों का दुर्भाग्य है कि देश को 6-6 प्रधानमंत्री देने के बाद यह पिछड़े क्षेत्र के कहे जाते हैं। लेकिन यह क्षेत्र पिछड़ इसलिए है क्योंकि यहां रहने वालों की मेहनत, हुनर और इनकी जीवटता का उपयोग पूरे देश ने किया। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य प्रांतों ने इस देश के लिए कुछ किया नहीं, बहुत कुछ किया, लेकिन जितना और जिस प्रकार से उत्तर भारतीयों ने किया उतना किसी और ने नहीं किया।
इतिहास साक्षी है जब भी भारत-भारतीयता पर किसी तरह का संकट आता है, देश अपने इस भू-भाग की तरफ देखता है। लेकिन जब सुफल चखने की बात आती है, तो उत्तर भारत को हाशिये में धकेल दिया जाता है। किनारों पर बैठे लोग अकसर लड़-झगड़ कर अपना हिस्सा ले लेते हैं, और हिंदी पट्टी के हिस्से आती है दीनता और गरीबी। बावजूद दुनिया के जिस भी कोने में उत्तर भारतीय पहुंचे, उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाए रखा। वे मॉरिशस गए, फिजी गए, ट्रिनिडाड-टुबैगो गए। लेकिन कभी अपनी जड़ों से कटे नहीं। तमाम अभावों और परेशानियों के बावजूद उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाए रखा। एक अकेले रामायण या गीता का गुटका उनके जीवन का संबल बना। आज यदि देश से बाहर भारतीय संस्कृति का कोई अस्तित्व है, तो उसे इस स्थिति तक पहुंचाने में उत्तर भारतीयों का सबसे बड़ा योगदान है।
ठाकरे परिवार उनके जैसी हरकत करने वाले नेता चाहे वो किसी भी प्रांत के हों यदि अखंड भारत को टुकड़ों में बांटने की चाल चलते हैं तो इसमें सारा दोष है कायर और स्वार्थी सत्ताधीशों का। देश की सुरक्षा और उसके निर्माण के लिए जिसे सत्ता सौंपी गई है उसका पहला और सर्वमान्य कर्तव्य है देश की एकता अखंडता और अस्मिता की रक्षा करना। लेकिन सत्ताधीशों को अपने इस कर्तव्य की कोई चिंता नहीं है। स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद ऐसे नेता तो बहुत हैं जो देश की चिंता करते हैं, लेकिन उसे अमल में लाने से कतराते हैं। आज ठाकरे जिस तरह की राजनीति करके अपने ही देश में लोगों को परदेशी बनाने पर आमादा हैं 1969 में भी इसी तरह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने का प्रयास किया था। तब मुंबई में दक्षिण भारतीयों के खिलाफ ऐसे ही हथकंडों का इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकानी चाही थी। लेकिन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें दिन में ही तारे दिखा दिये थे और इन्हीं बाल ठाकरे ने इमरजैंसी लगने के बावजूद श्रीमती इंदिरा गांधी की चरण वंदना में कोई कसर नहीं रखी थी। आज भले ही लोग इमरजेंसी के बहाने लोग इंदिरा को पाीन पी पी कर कोसें लेकिन हकीकत यही है कि इंदिरा के बाद कोई ऐसा नेता देश में नहीं हुआ जिसने किसी बाहुबली की बांह मरोडऩे की शक्ति जुटा पाई हो। आज कोई भी नेता अपनी मनमानी करता है और सीधे केंद्र को चुनौती देता है यदि ताकत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ। पिछले एक पखवाड़े से महाराष्टï्र में राजनीति और मराठी अस्मिता के नाम पर देश की अस्मिता और संविधान की मूल भावना जिसे एक मराठी के ही संरक्षण में अंतिम रूप दिया गया, की अस्मिता की तार-तार किया जा रहा है, और आप उसका समर्थन कर रहे हैं।
क्या है मुंबई
1995 से पहले इस शहर का नाम बंबई या बाम्बे था। मुंबई मराठी उच्चारण का नाम है, जो देवी मुंबा के नाम पर रखा गया था। मराठा क्षेत्र में इस देवी की पूजा सदियों से होती चली आ रही है।
250 ईसा पूर्व अशोक के दौर में यह मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था। बाद में इस द्वीप पर सातवाहन शासकों ने भी राज किया।
1343 में इस पर गुजरात के हिन्दू शासक का अधिकार हुआ।
1534 में पुर्तगाली शासक ने गुजरात के शासक राजा बहादुर शाह से मुंबई का अधिकार हासिल किया। पुर्तगालियों ने इसे बोम बहिया नाम दिया। बहिया का अर्थ बे अर्थात खाड़ी है।
1661 में मुंबई द्वीप समूह को पुर्तगाल के राजा ने अपनी बेटी कैथरीन द ब्रिगान्जा की विवाह के बाद उनके पति अंग्रेज राजकुमार चाज्र्स द्वितीय को उपहार में दे दिया।
1668 में चाल्र्स द्वितीय ने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को भाड़े पर दिया। भाड़ा एक साल के लिए 10 पाउंड सोना तय किया गया। कंपनी ने मुंबई को बंरगाह के रूप में विकसित किया। सर बारटले फेरेरी यहां के पहले गवर्नर नियुक्त किए गये।
1661 से 1675 के बीच के 14 सालों में मुंबई की आबादी 10 हजार से 60 हजार हो गई।
1687 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना मुख्यालय सूरत से बदल कर मुंबई कर दिया। इसके बाद वह बंबई प्रसीडेंसी का मुख्यालय बना।
1857 तक यह शहर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन रहा। इसके बाद यह ब्रिटिश सरकार की छत्रछाया में आ गया। सर जार्ज ऑक्सेंडेन गवर्नर जनरल बने।
1861 से 1865 के बीच अमेरिकन मंदी के दौरान यह शहर कपास व्यार के प्रमुख केंद्र के रूप में उभारा।
1869 में स्वेज नहर के निर्माण के बाद यह अरब सागर का सबसे प्रमुख बंदरगाह बन गया।
1947 में भारत की आजादी के बाद यह शहर बंबई राज्य की राजधानी बना।
1955 के बाद चले भाषाई आंदोलन के बाद बंबई को गुजरात व महाराष्टï्र राज्यों में बांट दिया गया। मुंबई महाराष्टï्र की राजधानी 1960 में बनी।
1961 में मुंबई की 34 प्रतिशत आबादी गैर मराठियों की थी। 2008 में यह प्रतिशत 57 हो गया है। इनमें उत्तर भारतीय 21 प्रतिशत, गुजराती 18 प्रतिशत, तमिल व सिंधी 3-3 प्रतिशत तथा अन्य लोग 12 प्रतिशत हैं।
मुंबई का मूल
परंपरागत रूप से बड़े व्यवसायियों में पारसियों की संख्या सर्वाधिक है। यह समुदाय 9वीं सदी में ईरान से यहां आया। मुंबई के आठ द्वीपों को जोडऩे की योजना में पारसी समुदाय ने काफी राशि खर्च की।1960 के दौरान यहां 31 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्रों में रोजगार पाते थे। यह प्रतिशत आज 65 हो गया है। असंगठित क्षेत्र से जुड़े रोजगार में 80 प्रतिशत से अधिक गैर मराठी लोग हैं।शेयर बाजार पर गुजरातियों का कब्जा है। बाजार के बड़े दलालों में 75 प्रतिशत से अधिक गुजराती हैं।कस्टम, सेंट्रल, एक्साईज और इनकम टैक्स विभाग के 70 प्रतिशत अधिकारी बिहार के हैं।बॉलीबुड में पंजाबियों का प्रभुत्व है। टॉप पर रहने वाले अमिताभ बच्चन उत्तर प्रदेशी हैं। तकनीशियनों में 25 प्रतिशत उत्तर भारतीय हैं।निर्माण उद्योगों में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों का हिस्सा 30 प्रतिशत से अधिक है।एक अनुमान के मुताबिक सिक्युरिटी गार्ड की भूमिका में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग 40 प्रतिशत से अधिक है।
लिहाजा इन दो कोड़ी की मानसिकता वालों पर माथा खपाने की बजाए उन लोगों को आईना दिखाएं, जिनका समर्थन पाकर यह गुंडे उत्पाद मचा रहे हैं। उन मुंबईवासियों को यह समझना होगा कि उनके हित, उनकी अस्मिता और उनकी संपन्नता के नाम पर उनके महाराष्ट्र और उनके देश के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। जिन उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र से बाहर निकालने की बात पर मराठी फूल जाते हैं यदि उन्हें एक कौने में समेट दिया जाये तो शेष सारे राष्टï्र को लेने के देने पड़ जायेंगे। जिस अस्मिता, सम्मान, संस्कृति, परंपराओं, विकास, कला और सृजन की बात करते हैं, वास्तव में उसके वाहक हिन्दी भाषी यानि उत्तर भारतीय ही हैं। देश हो या परदेश अपने गीता अथवा रामायण के गुटके के सहारे इन्हीं हिन्दी भाषियों ने तमाम दु:ख तकलीफें सहकर उस संस्कृति को जिंदा रखा है जिसकी पूजा और सम्मान आज भी दुनिया करती है।
बात केवल एक बाल ठाकरे या राज ठाकरे की नहीं है, ठाकरे और उनकी तरह की मानसिकता रखने वाले कितने बुद्धिमान हैं जो अपना परिचय समय-समय अपनी छिछोरी हरकतों से देते रहते हैं। समझना मुंबई और महाराष्ट्रवासियों को है। उन्हें जिस मुंबई, मुंबई के जिस विकास और ग्लैमर पर नाज है उनकी कोई गिनती नहीं है। बड़े व्यवसायियों में पारसियों की संख्या सर्वाधिक है। शेयर बाजार पर गुजरातियों का कब्जा है। कस्टम, सेंट्रल, एक्साईज और इनकम टैक्स विभाग के 70 प्रतिशत अधिकारी बिहार के हैं। बॉलीबुड में पंजाबियों का प्रभुत्व है। तकनीशियनों में 25 प्रतिशत उत्तर भारतीय हैं। निर्माण उद्योगों में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों का हिस्सा 30 प्रतिशत से अधिक है। सुरक्षा गार्ड की भूमिका में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग 40 प्रतिशत से अधिक है। निजी स्कूलों के अधिकांश संचालक उत्तर प्रदेश के हैं। दूध व्यवसाय में 75 प्रतिशत से अधिक उत्तर प्रदेशी हैं। खोमचा लगाने वालों में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगों का हिस्सा 50 प्रतिशत है। अपने-आप को पढ़े लिखों की राजधानी और आई.टी का आका समझने वाले मुंबई, बैंगलूर, कर्नाटकियों को यह पता ही नहीं है उनकी यह हैसियत भी हिन्दी भाषियों के कारण है। यहां हजारों की संख्या में पढ़े लिखे नौजवान अपनी सेवाएं दे रहे हैं। हां इन हिन्दी भाषियों का दुर्भाग्य है कि देश को 6-6 प्रधानमंत्री देने के बाद यह पिछड़े क्षेत्र के कहे जाते हैं। लेकिन यह क्षेत्र पिछड़ इसलिए है क्योंकि यहां रहने वालों की मेहनत, हुनर और इनकी जीवटता का उपयोग पूरे देश ने किया। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य प्रांतों ने इस देश के लिए कुछ किया नहीं, बहुत कुछ किया, लेकिन जितना और जिस प्रकार से उत्तर भारतीयों ने किया उतना किसी और ने नहीं किया।
इतिहास साक्षी है जब भी भारत-भारतीयता पर किसी तरह का संकट आता है, देश अपने इस भू-भाग की तरफ देखता है। लेकिन जब सुफल चखने की बात आती है, तो उत्तर भारत को हाशिये में धकेल दिया जाता है। किनारों पर बैठे लोग अकसर लड़-झगड़ कर अपना हिस्सा ले लेते हैं, और हिंदी पट्टी के हिस्से आती है दीनता और गरीबी। बावजूद दुनिया के जिस भी कोने में उत्तर भारतीय पहुंचे, उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाए रखा। वे मॉरिशस गए, फिजी गए, ट्रिनिडाड-टुबैगो गए। लेकिन कभी अपनी जड़ों से कटे नहीं। तमाम अभावों और परेशानियों के बावजूद उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाए रखा। एक अकेले रामायण या गीता का गुटका उनके जीवन का संबल बना। आज यदि देश से बाहर भारतीय संस्कृति का कोई अस्तित्व है, तो उसे इस स्थिति तक पहुंचाने में उत्तर भारतीयों का सबसे बड़ा योगदान है।
ठाकरे परिवार उनके जैसी हरकत करने वाले नेता चाहे वो किसी भी प्रांत के हों यदि अखंड भारत को टुकड़ों में बांटने की चाल चलते हैं तो इसमें सारा दोष है कायर और स्वार्थी सत्ताधीशों का। देश की सुरक्षा और उसके निर्माण के लिए जिसे सत्ता सौंपी गई है उसका पहला और सर्वमान्य कर्तव्य है देश की एकता अखंडता और अस्मिता की रक्षा करना। लेकिन सत्ताधीशों को अपने इस कर्तव्य की कोई चिंता नहीं है। स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद ऐसे नेता तो बहुत हैं जो देश की चिंता करते हैं, लेकिन उसे अमल में लाने से कतराते हैं। आज ठाकरे जिस तरह की राजनीति करके अपने ही देश में लोगों को परदेशी बनाने पर आमादा हैं 1969 में भी इसी तरह अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने का प्रयास किया था। तब मुंबई में दक्षिण भारतीयों के खिलाफ ऐसे ही हथकंडों का इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकानी चाही थी। लेकिन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें दिन में ही तारे दिखा दिये थे और इन्हीं बाल ठाकरे ने इमरजैंसी लगने के बावजूद श्रीमती इंदिरा गांधी की चरण वंदना में कोई कसर नहीं रखी थी। आज भले ही लोग इमरजेंसी के बहाने लोग इंदिरा को पाीन पी पी कर कोसें लेकिन हकीकत यही है कि इंदिरा के बाद कोई ऐसा नेता देश में नहीं हुआ जिसने किसी बाहुबली की बांह मरोडऩे की शक्ति जुटा पाई हो। आज कोई भी नेता अपनी मनमानी करता है और सीधे केंद्र को चुनौती देता है यदि ताकत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ। पिछले एक पखवाड़े से महाराष्टï्र में राजनीति और मराठी अस्मिता के नाम पर देश की अस्मिता और संविधान की मूल भावना जिसे एक मराठी के ही संरक्षण में अंतिम रूप दिया गया, की अस्मिता की तार-तार किया जा रहा है, और आप उसका समर्थन कर रहे हैं।
क्या है मुंबई
1995 से पहले इस शहर का नाम बंबई या बाम्बे था। मुंबई मराठी उच्चारण का नाम है, जो देवी मुंबा के नाम पर रखा गया था। मराठा क्षेत्र में इस देवी की पूजा सदियों से होती चली आ रही है।
250 ईसा पूर्व अशोक के दौर में यह मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था। बाद में इस द्वीप पर सातवाहन शासकों ने भी राज किया।
1343 में इस पर गुजरात के हिन्दू शासक का अधिकार हुआ।
1534 में पुर्तगाली शासक ने गुजरात के शासक राजा बहादुर शाह से मुंबई का अधिकार हासिल किया। पुर्तगालियों ने इसे बोम बहिया नाम दिया। बहिया का अर्थ बे अर्थात खाड़ी है।
1661 में मुंबई द्वीप समूह को पुर्तगाल के राजा ने अपनी बेटी कैथरीन द ब्रिगान्जा की विवाह के बाद उनके पति अंग्रेज राजकुमार चाज्र्स द्वितीय को उपहार में दे दिया।
1668 में चाल्र्स द्वितीय ने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को भाड़े पर दिया। भाड़ा एक साल के लिए 10 पाउंड सोना तय किया गया। कंपनी ने मुंबई को बंरगाह के रूप में विकसित किया। सर बारटले फेरेरी यहां के पहले गवर्नर नियुक्त किए गये।
1661 से 1675 के बीच के 14 सालों में मुंबई की आबादी 10 हजार से 60 हजार हो गई।
1687 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना मुख्यालय सूरत से बदल कर मुंबई कर दिया। इसके बाद वह बंबई प्रसीडेंसी का मुख्यालय बना।
1857 तक यह शहर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन रहा। इसके बाद यह ब्रिटिश सरकार की छत्रछाया में आ गया। सर जार्ज ऑक्सेंडेन गवर्नर जनरल बने।
1861 से 1865 के बीच अमेरिकन मंदी के दौरान यह शहर कपास व्यार के प्रमुख केंद्र के रूप में उभारा।
1869 में स्वेज नहर के निर्माण के बाद यह अरब सागर का सबसे प्रमुख बंदरगाह बन गया।
1947 में भारत की आजादी के बाद यह शहर बंबई राज्य की राजधानी बना।
1955 के बाद चले भाषाई आंदोलन के बाद बंबई को गुजरात व महाराष्टï्र राज्यों में बांट दिया गया। मुंबई महाराष्टï्र की राजधानी 1960 में बनी।
1961 में मुंबई की 34 प्रतिशत आबादी गैर मराठियों की थी। 2008 में यह प्रतिशत 57 हो गया है। इनमें उत्तर भारतीय 21 प्रतिशत, गुजराती 18 प्रतिशत, तमिल व सिंधी 3-3 प्रतिशत तथा अन्य लोग 12 प्रतिशत हैं।
मुंबई का मूल
परंपरागत रूप से बड़े व्यवसायियों में पारसियों की संख्या सर्वाधिक है। यह समुदाय 9वीं सदी में ईरान से यहां आया। मुंबई के आठ द्वीपों को जोडऩे की योजना में पारसी समुदाय ने काफी राशि खर्च की।1960 के दौरान यहां 31 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्रों में रोजगार पाते थे। यह प्रतिशत आज 65 हो गया है। असंगठित क्षेत्र से जुड़े रोजगार में 80 प्रतिशत से अधिक गैर मराठी लोग हैं।शेयर बाजार पर गुजरातियों का कब्जा है। बाजार के बड़े दलालों में 75 प्रतिशत से अधिक गुजराती हैं।कस्टम, सेंट्रल, एक्साईज और इनकम टैक्स विभाग के 70 प्रतिशत अधिकारी बिहार के हैं।बॉलीबुड में पंजाबियों का प्रभुत्व है। टॉप पर रहने वाले अमिताभ बच्चन उत्तर प्रदेशी हैं। तकनीशियनों में 25 प्रतिशत उत्तर भारतीय हैं।निर्माण उद्योगों में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों का हिस्सा 30 प्रतिशत से अधिक है।एक अनुमान के मुताबिक सिक्युरिटी गार्ड की भूमिका में बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग 40 प्रतिशत से अधिक है।